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भूटान को 10 हजार करोड़ रुपये की आर्थिक सहायता और बदले में नरेंद्र मोदी को सर्वोच्च नागरिक सम्मान

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भूटान एकमात्र पड़ोसी देश बचा था, जिसके बारे में हम दावे के साथ कल तक कह सकते थे कि उसे भारत और भूटान के भीतर तैनात हमारे सैन्य बलों को लेकर कोई आपत्ति नहीं है। आज मोदी शासन के 10 वर्ष बाद इस दावे पर भी प्रश्नचिन्ह खड़े हो रहे हैं, जो बेहद चिंताजनक मामला है। आज हम एक अन्य पड़ोस के देश मालदीव से जल्द से जल्द कर्ज चुकता करने की मांग कर रहे हैं, जो देखने में भले ही दबावकारी नजर आये, लेकिन दीर्घकालीन कूटनीतिक संबंधों के साथ-साथ भूराजनैतिक क्षेत्र में यह सब कितना नुकसानदायक होने जा रहा है, क्या भारतीय अवाम इसका अंदाजा लगा पा रहा है?

भूटान का सर्वोच्च नागरिक सम्मान हासिल करने वाले पीएम नरेंद्र मोदी दुनिया के सबसे पहले विदेशी व्यक्ति हैं। 2024 आम चुनाव की घोषणा पहले ही हो चुकी है, ऐसे में पड़ोसी देश, चाहे भले वह आकार में कितना भी छोटा क्यों न हो, चुनावी लाभ प्रदान कर सकता है। बदले में भूटान को क्या मिला? 10,000 करोड़ रुपये की सहायता राशि। जी हां, यह सच है।

हैरान होने की जरूरत नहीं है। यह सब तब हो रहा है जब चुनाव आयोग के हाथ में देश की आचार संहिता आ चुकी है। कई विशेषज्ञ कार्यवाहक प्रधानमंत्री की इस घोषणा को विधि-सम्मत नहीं बता रहे हैं। लेकिन कई लोग इस बात का भी दावा कर रहे हैं कि भूटान की आर्थिक सहायता के लिए चुनाव आयोग से पूर्व अनुमति हासिल की गई थी।

रक्षा मामलों के विशेषज्ञ प्रवीण साहनी की टिप्पणी काबिलेगौर है। उनके अनुसार, “जब आम चुनाव आचार संहिता लागू है तो मोदी ने भूटान को 10,000 करोड़ रुपये देने की घोषणा क्यों की है? और इस समय प्रधानमंत्री को भूटान जाने की क्या जल्दी थी? दोनों दिलचस्प सवालों का जवाब यह है कि: भारत नहीं चाहता है कि भूटान भारत के 2024 आम चुनाव खत्म होने से पहले ही चीन के साथ अपने सीमा समझौते की घोषणा कर दे, जो कि पूरी तरह से जारी होने के लिए तैयार है!”

2024 चुनाव का सवाल है

2022 तक भूटान की आबादी तकरीबन 7.77 लाख तक ही पहुंच पाई थी। इतनी आबादी वाले देश में तो हमारे एक सांसद का लोकसभा क्षेत्र भी नहीं समा पाता है। 1961 से नेहरु के नेतृत्व में भूटान को हमारे देश ने जो प्यार, सम्मान और आर्थिक, रणनीतिक सुरक्षा मुहैया कराई है, उसी की बदौलत आज तक भूटान के लिए भारत के सिवाय किसी और की तरफ झांकने की जरूरत नहीं थी।

लेकिन हाल के वर्षों में ऐसा कुछ हुआ है, जिसकी जानकारी आम भारतीय के पास नहीं है। हम सभी तो पिछले दस वर्षों से नरेंद्र मोदी की विश्व पटल पर उकेरी गई छवि से ही पूरी तरह से अभिभूत हैं। आज 100 में से 90 लोग भले ही मानते हों कि देश में महंगाई और बेरोजगारी में बेतहाशा वृद्धि हुई है, सरकार ने विकास के आंकड़ों में भारी हेरफेर की है, लेकिन दुनिया में मोदी काल में भारत का सम्मान बढ़ा है।

तमाम आंकड़ों में भी इसी बात की पुष्टि हुई है। यहां तक कि ईदिना कर्नाटक, जिसके सर्वे में कर्नाटक में कांग्रेस को बड़ी जीत का दावा किया गया था, करीब 50% लोगों ने माना था कि मोदी राज में विदेशों में भारत का मान बढ़ा है। जबकि वास्तविकता इसके ठीक उलट है। पिछले 10 वर्षों के दौरान हमारी कूटनीति का शिराजा पूरी तरह से बिखर चुका है। आज हम अधिकाधिक अमेरिका-इजराइल परस्त देश की स्थिति में ठेल दिए गये हैं, या कहें हमारी विदेश नीति में आये रणनीतिक बदलाव ने हमें इस हाल में पहुंचा दिया है।

जी-20 की अध्यक्षता इस वर्ष ब्राजील के पास है। भारत से पहले यह इंडोनेशिया के पास थी। जी-20 की अध्यक्षता कोई बहुत बड़ा हौवा नहीं है। हां, ओलिंपिक या फ़ीफ़ा विश्व कप का आयोजन अवश्य तोप चीज है, जिसके आयोजन में अरबों डॉलर स्वाहा करने पड़ते हैं।

1961-62 में भारत ने भूटान के लिए इंडियन मिलिट्री ट्रेनिंग कैंप (आइएमटीसी) को स्थापित करने का काम किया था। इसका काम था रॉयल भूटान आर्मी और रॉयल बॉडीगार्ड ऑफ़ भूटान को सैन्य ट्रेनिंग में प्रशिक्षित करने का। भूटान-चीन और भारत के बीच में 12,000 सेना एक मेजर जनरल के साथ हम भूटान में मौजूद थे, जिससे हमें वापस लौटना होगा। बॉर्डर विवाद हल होते ही यह एक भारी नुकसान होने जा रहा है।

पिछले दिनों भूटान के पीएम शेरिंग टोबगे, जिन्होंने प्रधानमंत्री पदभार ग्रहण करने के बाद अपनी 5-दिवसीय भारत यात्रा में जो कुछ कहा, उसने भारतीय मीडिया में बड़ी खलबली मचा दी थी। भारतीय पत्रकारों ने जब उनसे डोकलाम मसले पर सवाल किये तो उनका साफ़ कहना था कि चीन के साथ सीमा हदबंदी का मामला जल्द ही सुलझने वाला है। जब उनसे पूछा गया कि भूटान की सीमा से जुड़े तमाम सेटलाईट इमेज में आपकी जमीन पर चीनी सेना के द्वारा कब्जा कर लेने और आवास की तस्वीरें देखी जा रही हैं, तो भूटान के प्रधानमंत्री ने बताया कि चीन से एक टेक्निकल टीम आ रही है, और सारा मसला हल हो जायेगा।

इसका क्या मतलब हुआ? यह तो साफ़ संकेत है कि भूटान और चीन के बीच इस दौरान काफी कुछ हो चुका है, जिसमें भारतीय भूमिका को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया गया है। लेकिन यह हालात कैसे बने? 60 के दशक से यह भारत ही था जो भूटान को सैन्य सुरक्षा सहित वे तमाम सुविधायें मुहैया करा रहा था, जैसा देश के भीतर प्रत्येक हिस्से को प्रदान करता है।

इस बारे में प्रवीण साहनी स्पष्ट करते हुए बताते हैं कि वर्ष 2017 में चीन और भारत के बीच डोकलाम विवाद एक प्रमुख विवाद बनकर उभरा था। बता दें कि डोकलाम भूटान की सीमा के भीतर आता है, लेकिन चूंकि भूटान की सीमाओं की रक्षा का बीड़ा भारतीय सेना के हाथ में है, इसलिए 2017 में भारतीय सेना ने जब पाया कि चीनी सेना डोकलाम क्षेत्र में सड़क निर्माण कर रही है, तो वह इस विवाद में कूद पड़ी। इससे पहले वर्ष 2012 में भारत-चीन दोनों पक्षों ने तय पाया था कि इंडिया-भूटान-चीन के ट्राई-जंक्शन को तय किया जायेगा। भारत का तर्क था की जहां संधि-स्थल बटान्गला है, जबकि चीन ने 1890 के बर्तानवी-चीन कन्वेंशन की बात उठाकर इसे गिमोचिंग बताया। अगर गिमोचिंग को आधार बनाते हैं तो डोकलाम स्वतः चीन के हिस्से में आ जाता है।

72 दिन चले डोकलाम संकट पर चीन का कहना था कि वह सिक्किम के समानांतर जान्ग्फेरी तक सड़क निर्माण का कार्य इसलिए कर रहा है, ताकि उसके लिए अपनी सीमा की सैन्य निगरानी को सुलभ बनाया जा सके। यदि ऐसा होता है तो भारत के लिए सिक्किम सहित सिलीगुड़ी तक का क्षेत्र पूरी तरह से चीनी निगरानी में आ जाता है। भारत अड़ गया, और उस दौरान दोनों सेनायें विवादित स्थल से 150-150 मीटर पीछे खिसक गईं। तब भारत में जबर्दस्त प्रचार किया गया था कि हमारी सेना की ताकत के आगे चीन को पीछे हटने के लिए मजबूर होना पड़ा। 2019 के आम चुनाव में इसे भुनाया भी गया। लेकिन प्रवीण साहनी के अनुसार, चीन 150 मीटर पीछे हटकर भी डोकलाम में बना रहा, क्योंकि उसने तो पहले ही वहां तक अपनी पहुंच बना ली थी।

कुल मिलाकर यही कह सकते हैं कि हमारे हाथ में अखबारों की हेडलाईन आई, जबकि चीन ने डोकलाम में अपना काम बदस्तूर जारी रखा, जिसे अब भारतीय पत्रकार भूटानी प्रधानमंत्री से पुष्टि कर रहे थे। साहनी कहते हैं, 2020 में पूर्वी लद्दाख में भी यही देखने को मिला, जिसमें हमारी सेना को अपने 20 जांबाज जवानों को खोना पड़ा। आज इस मुद्दे पर लद्दाख के लोग पिछले 18 दिनों से धरना प्रदर्शन कर रहे हैं, लेकिन भारत की आधिकारिक पोजीशन बकौल नरेंद्र मोदी, “न कोई घुसा था, और न कोई घुसा हुआ है” आज भी बनी हुई है।

भूटान हमारी कूटनीतिक विफलता और चीनी बढ़त को साफ़ देख रहा था, और आज उसके लिए भी चीन के साथ कूटनीतिक संबंधों को स्थापित करने में ही भलाई नजर आ रही है। यही कारण है कि अन्य सार्क देशों की तरह आज भूटान भी चीन के साथ अपने कूटनीतिक संबंध स्थापित्त करने की दिशा में बढ़ने जा रहा है।

इसलिए, भले ही आज हम देश के भीतर भूटान के साथ अपने संबंधों को पीएम मोदी की इस दो-दिवसीय यात्रा के साथ एक नई ऊंचाई को छूने के तौर पर चित्रित करें, लेकिन यह साफ़ नजर आ रहा है कि कहीं न कहीं यह प्रायोजित यात्रा थी, जिसमें भूटान को पूर्व की तुलना में आर्थिक सहायता में 100% का इजाफा कर फिलहाल के लिए चीन-भूटान समझौते की तारीख को भारत के आम चुनाव खत्म हो जाने तक के लिए खिसकाने का प्रयास किया गया है।

भूटान एकमात्र पड़ोसी देश बचा था, जिसके बारे में हम दावे के साथ कल तक कह सकते थे कि उसे भारत और भूटान के भीतर तैनात हमारे सैन्य बलों को लेकर कोई आपत्ति नहीं है। आज मोदी शासन के 10 वर्ष बाद इस दावे पर भी प्रश्नचिन्ह खड़े हो रहे हैं, जो बेहद चिंताजनक मामला है। आज हम एक अन्य पड़ोस के देश मालदीव से जल्द से जल्द कर्ज चुकता करने की मांग कर रहे हैं, जो देखने में भले ही दबावकारी नजर आये, लेकिन दीर्घकालीन कूटनीतिक संबंधों के साथ-साथ भूराजनैतिक क्षेत्र में यह सब कितना नुकसानदायक होने जा रहा है, क्या भारतीय अवाम इसका अंदाजा लगा पा रहा है?

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