सभ्य और बेहतर सामाजिक और नागरिक जीवन को हाथ हासिल करने के लिए लोकतंत्र को बचाने का हिसाब-किताब कैसे लगाया जाये! सोचना तो होगा। लेकिन, क्या नफरती माहौल में सही तरीके से कुछ सोचना संभव है! चाहे जैसे भी हो नफरती माहौल के खिलाफ जनता को एकजुट होना ही होगा, मगर कैसे? राजनीतिक नफा-नुकसान का हिसाब-किताब बाद में, पहले इस सवाल का जवाब खोजना ही होगा।
प्रफुल्ल कोलख्यान
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की इस सरकार का सौ दिन पूरा हुआ है। उसी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जीवन के पचहत्तरवें वसंत का भी शुभागमन हुआ। सरकार के सौ दिन पूरे होने पर सौ दिन में सरकार के ‘बड़े-बड़े’ कार्यों पर भारतीय जनता पार्टी के नेताओं-मंत्रियों ने ‘बड़े-बड़े’ बयान दिये। घटक दलों के नेताओं-मंत्रियों का बयान तो उस तरह से मीडिया में दिखा नहीं! सारे अच्छे-अच्छे काम मीडिया में गिनवा दिये गये, घटक दलों के प्रति आभार तो, दूर की बात ठीक से कहीं कोई उल्लेख तक भी नहीं! शायद ‘गैर-अच्छे’ काम की गिनती के समय उन का उल्लेख हो, क्या पता! बधाइयों और शुभकामनाओं का सिल-सिला भीतर-भीतर ही चल रहा होगा।
बाहर में तो, घमासान छिड़ा है। राजनीतिक नेताओं के विभिन्न बयानों से पूरे देश में नफरती माहौल बन गया है। दिल्ली की मुख्यमंत्री के लिए आतिशी का नाम प्रस्तावित होते ही, नफरती बयानों के माध्यम से सियासी तूफान लाने की कोशिश में भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता और नेता हलकान हो रहे हैं। सियासत को दुश्मनी की हद तक खींचकर ले जाने की चलन पिछले दस साल में इतनी गाढ़ी हो गई है कि लगता है देश से लोकतांत्रिक लिहाज का जमाना कब का लद गया।
उधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के घर जाकर गणेश पूजा में शामिल होने पर अपनी राजनीतिक सफाई दे रहे हैं। क्या वे इतने मासूम हैं! इतने मासूम कि उन्हें पता ही नहीं है कि भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के घर जाकर गणेश पूजा को उन्होंने घरेलू राजनीति से कैसे जोड़ दिया है! राम मंदिर को राजनीतिक मुद्दा बनाने का नतीजा तो, देश देख ही चुका है। अब इस नये प्रयोग का राजनीतिक स्वागत और चुनावी मूल्यांकन मतदाता समाज में किस तरह से होता है, देखा जाना चाहिए।
मुश्किल यही है कि भारत के चुनावी नेताओं को भारत की जनता की स्मृति और विवेक पर विश्वास ही नहीं है। जनता की स्मृति और विवेक पर भरोसा होता तो राजनीतिक रूप से अविवेकी वक्तव्यों, नफरती बयानों से, थोड़ा तो परहेज करते! मीडिया के घमासान का पब्लिक क्या करे! सच पूछा जाये तो देश जिन परिस्थितियों में फंस गया है, शायद इस का ठीक-ठीक अनुमान भी आम लोग नहीं कर पा रहे हैं।
राहुल गांधी देश के नेता प्रतिपक्ष हैं। अपनी विदेश यात्रा के दौरान उन्होंने विभिन्न तबकों के लोगों को संबोधित किया, सवाल जवाब के कार्यक्रम में हिस्सा लिया। चाहे आरक्षण, जातिवार जनगणना, हिस्सेदारी की स्थिति, धार्मिक और जीवन-स्तर या जीवन-शैली की विविधताओं के प्रति शासकीय रुख और राजनीतिक रवैया की ही बात क्यों न हो, उन की हर बात को तोड़-मरोड़कर कुछ-का-कुछ अर्थ निकालकर मनमर्जी आरोप लगाया जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी के नेता लोग राहुल गांधी को नंबर वन आतंकवादी कह रहे हैं। दादी जैसा हश्र कर दिये जाने की बात की जा रही है। और न जाने क्या-क्या, कहा जा रहा है!
नफरती माहौल से देश और दुनिया में कैसा कोहराम मचता रहा है, क्या कोई छिपी हुई बात है! बड़ा ने तो, महात्मा गांधी जैसे व्यक्ति को नफरती माहौल में शहीद कर दिये जाने का दिन भी देखा है। दिल में नफरती माहौल का दुख और माथे पर नफरती कलंक इस देश के हिस्सा में कम नहीं आया है। क्या सचमुच नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की जान खतरे में है!
प्रधानमंत्री को कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस मामला में पत्र लिखा है, यह बात मीडिया में एक बार झलकी थी। मीडिया इसे कितनी गंभीरता से ले रहा है, क्या पता! हो सकता है, मीडिया इस मामला में बहुत गंभीर हो! इस तरह की बातों को हल्के में लेने की भारी कीमत देश को चुकानी पड़ सकती है। स्थिति ठीक नहीं है। उठानेवाले अपना झोला उठा लेंगे और अपने पीछे ‘मंडल, कमंडल और भूमंडल’ का ढेर-सारा मलवा देश के माथे छोड़ जायेंगे।
नफरती माहौल बनाने में भारतीय जनता पार्टी के नेताओं, प्रवक्ताओं की भूमिका सभ्य समाज को शर्मसार कर देनेवाली है। इन की भूमिका सिर्फ शर्मसार करनेवाली ही नहीं खतरनाक भी है, क्योंकि ये सत्ता में हैं। भारतीय जनता पार्टी के कई ऐसे नेता हैं जो सिर्फ और सिर्फ नफरती बयान के लिए ही मीडिया में बने रहते हैं। यह सच है कि इस समय भारतीय जनता पार्टी अकेले के दम पर भारत की लोकतांत्रिक सत्ता में नहीं है।
तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के नेता एन चंद्रबाबू नायडू और जनता दल यूनाइटेड के नेता नीतीश कुमार के समर्थन से ही भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हुए हैं। समझ में आने लायक बात है कि अब नफरती माहौल के बनने का जितना दायित्व भारतीय जनता पार्टी की बेलगाम वाचालता का है, उस से किसी भी अर्थ में कम दोष सत्ता-बंधन में पड़े इन समर्थक राजनीतिक दलों के नेताओं और प्रवक्ताओं की ‘सोद्देश्य खामोशी’ का नहीं है।
समझा जाता है कि तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) और जनता दल यूनाइटेड सत्ता में तो सहयोगी हैं लेकिन, राजनीति के मामलों में भारतीय जनता पार्टी के धुर विरोधी हैं। नफरती माहौल बनने का राजनीतिक फायदा सिर्फ और सिर्फ भारतीय जनता पार्टी को मिलना है। किसी भी तरह के न्याय को सुनिश्चित करने की किसी भी तरह की आकांक्षा नफरती माहौल के बनने पर खामोशी नहीं ओढ़ सकती है। फिर भी खामोशी ओढ़े रहती है तो, इन दलों को भारतीय जनता पार्टी की सत्ता और राजनीति दोनों में सहयोगी ही माना जायेगा। भारतीय जनता और भारत के लोकतंत्र को होनेवाली किसी भी क्षति के लिए सहयोगी दल भी बराबर की जिम्मेवारी से बच नहीं सकते हैं।
यक्ष के पूछने पर युधिष्ठिर ने बताया था, मछली सोने पर भी आंख नहीं मूंदती है। कौटिल्य ने अर्थ-शास्त्र में सावधान किया है कि जिस प्रकार पानी में रहनेवाली मछलियाँ पानी पीती नहीं दिखाई देतीं, उसी प्रकार अर्थ कार्यों में लगे लोग भी धन का अपहरण करते हुए नहीं जाने जा सकते। इस बात को इस तरह से भी समझने की कोशिश की जा सकती है कि आज की तारीख में सिर्फ और सिर्फ सत्ता में रहने की आकांक्षा रखनेवाली भारतीय जनता पार्टी कब अपने सत्ता-सहयोगियों की राजनीति को गटक जायेगी, इन्हें शायद पता भी नहीं चलेगा। जब तक पता चलेगा, गंगा का ही नहीं कृष्णा-कावेरी का बहुत सारा पानी बह चुका होगा!
लोकतंत्र का पानी ही सूख जाये तो, राजनीति और राजनीतिक दलों और उन के नेताओं की ‘प्रभु-सत्ता’ का क्या होगा! युधिष्ठिर और कौटिल्य की बात पानी में रहनेवाली मछलियों पर ही नहीं मगरमच्छों सहित अन्य जल-जंतुओं पर भी लागू होती होगी, क्या पता! पुरातन भारतीय न्याय शास्त्रियों ने ‘मत्स्य न्याय’ से संचालित व्यवस्था के खतरनाक परिणाम के प्रति सावधान किया है। ‘मत्स्य न्याय’ में बड़ी मछली के द्वारा छोटी मछली के खा जाने का औचित्य बताया जाता है। यानी! अपनी ही प्रजाति को खा जाने का औचित्य! नफरती माहौल बनाने का पहला उद्देश्य ‘मत्स्य न्याय’ के जाल में व्यवस्था और सभ्यता को फंसाना है। मनुष्य के द्वारा मनुष्य के शोषण का औचित्य!
‘मत्स्य न्याय’ के प्रशंसक प्रशासनिक अधिकारी, राजनीतिक नेताओं, उदार बुद्धिजीवियों को चार्ल्स डॉरविन की और कोई बात, पसंद आये या न आये ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ का सिद्धांत जरूर पसंद आता है। वे लोग बहुत चालाकी और धूर्तता से ‘मत्स्य न्याय’ और ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ का संगम करा देते हैं! जब भी कोई ‘बड़ा’ किसी ‘छोटे’ के हितों का शिकार करता है, वे अपने वैधानिक, नैतिक दायित्व के विचलन और फिसलन के पूरे परिप्रेक्ष्य को ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ के मंत्रोच्चार से शुद्ध कर लेते हैं!
असल में ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ डार्विन का विकासवादी सिद्धांत है जो प्राकृतिक चयन और प्रजनन क्षमता से संबंधित है। ‘योग्यतम की उत्तरजीविता’ को सामाजिक और नागरिक न्याय का आधार नहीं बनाया जा सकता है। मछेरे को यह नहीं पता होता है कि मछली की तड़पती आंख को ठीक-ठीक पता होता है, कहां पानी है और कहां तेल है! जनता और उस की चेतना अपने दुख-दर्द से कभी आंख नहीं मूंदती है। सभ्य और बेहतर सामाजिक और नागरिक जीवन मनुष्य का जन्म-प्राप्त हक है। सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन सभ्य और बेहतर सामाजिक और नागरिक जीवन मनुष्य का जन्म-प्राप्त हक है।
सौ दिन के बारे में सरकार के जिम्मेवार लोग जिस तरह से अपनी प्रतिक्रिया दे रहे हैं उस से लगता ही नहीं है कि वे सत्ता में सहयोगियों के बल पर हैं। जो राजनीतिक दल उन्हें समर्थन दे रहे हैं, वे सत्ता में तो सहयोगी लेकिन राजनीति में उन के विरोधी हैं। नीति बनाने की बात हो या नीति बदलने की बात हो, भारतीय जनता पार्टी किसी भी तरह से किसी सहयोगी दलों या नेताओं को कोई श्रेय नहीं देते हैं। पता नहीं एन चंद्रबाबू नायडू और नीतीश कुमार ‘अपनी-अपनी राजनीति’ को जनता की नजर से ओझल किये जाने की प्रत्यक्ष राजनीति पर क्या नजरिया रखते हैं! एक बात बिल्कुल साफ है कि वे बोलें या खामोश रहें, जनता अपने कष्टों के लिए इन्हें निर्दोष नहीं माननेवाली है।
याद किया जा सकता है कि सोवियत संघ की उपस्थिति विश्व-व्यवस्था में संतुलन के लिए क्या महत्व रखती थी। सोवियत संघ की उपस्थिति का असर सिर्फ राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था तक सीमित नहीं था, बल्कि विश्व की नैतिक व्यवस्था पर भी उस का पुरजोर असर रहा। अ-कारण नहीं है कि 1991 में सोवियत संघ के टूट जाने के बाद से दुनिया के एक-ध्रुवीय बनने के मुहावरे ने दुनिया की नैतिक-व्यवस्था में भी उथल-पुथल मचा दिया। याद किया जा सकता है कि 1991 के बाद से ही भारत की राजनीति में वाम प्रभाव क्षीण होने लगा था, जिस का भारत की राजनीति के नैतिक-तत्व पर बहुत बुरा असर पड़ा।
भारत में वाम सांगठनिक, रणनीतिक आदि रूप से भले ही अलग-अलग हों प्रेरणा के मामले में निश्चित ही एक हैं। अकारण नहीं है कि इलेक्ट्रॉल बांड हो या भ्रष्टाचार से जुड़ा कोई भी मुद्दा हो वाम पक्ष के किसी नेता का कभी कोई नाम नहीं आया। वाम का कमजोर होना और भारत की राजनीति में नैतिक अंकुश का कमजोर होना, एक ही राजनीतिक परिघटना की दो अभिव्यक्तियां हैं। यही कारण है कि नैतिक-उत्पीड़न और सामाजिक-राजनीतिक अत्याचार के इस दौर में ‘वाम’ का इस्तेमाल गाली-गलौज के तर्ज पर किया जाता है। नागरिक जमात को गंभीरता से सोचना होगा कि राजनीति में नैतिक-तत्व को प्रभावी बनाने के लिए क्या किया जा सकता है! क्या नहीं करने पर राजनीति में नैतिक-तत्व का प्रभावी रहना असंभव है!
सोचना होगा कि लोकतंत्र का लक्ष्य क्या है, गंतव्य क्या है? सभ्य और बेहतर सामाजिक और नागरिक जीवन मनुष्य का जन्म प्राप्त हक है। लोकतंत्र इस हक को हासिल करने का हौसला है। इस हक को कैसे हासिल किया जा सकता है? तमाम ‘कमजोरियों और निरर्थकताओं’ के बावजूद क्या लोकतंत्र के अलावा गरीब और उत्पीड़ित जनता के सामने कोई अन्य रास्ता है! क्या लोकतंत्र का रास्ता बंद गली की तरफ बढ़ रहा है!
शायद नहीं। नहीं तो, फिर सभ्य और बेहतर सामाजिक और नागरिक जीवन को हाथ हासिल करने के लिए लोकतंत्र को बचाने का हिसाब-किताब कैसे लगाया जाये! सोचना तो होगा। लेकिन, क्या नफरती माहौल में सही तरीके से कुछ सोचना संभव है! चाहे जैसे भी हो नफरती माहौल के खिलाफ जनता को एकजुट होना ही होगा, मगर कैसे? राजनीतिक नफा-नुकसान का हिसाब-किताब बाद में, पहले इस सवाल का जवाब खोजना ही होगा।