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*लोक-संस्कृति समीक्षा : करवाचौथ, परिवार और विश्व-मानवता*

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        ~ नीलम ज्योति

करवाचौथ का इतिहास पुराना है।करवा मिट्टी का पात्र है। यदि हम लोककथाओं का अध्ययन करें तो हमें गोकुल-संस्कृति की भांति ही कुंभकार की चाकसंस्कृति के व्यापक सन्दर्भ मिलते हैं , जिसमें अंवा है और राजा-रानी कुंभकार के महत्व को स्वीकार करते हैं। चाक आदि के अनेक संदर्भ संस्कृतसाहित्य में उदाहरणों के रूप में भरे पडे हैं।

     इस पर्व का सूत्र उस जमाने से जुडता है , जब मिट्टी के बर्तन प्रयोग में आते थे। वृन्दावन के रसिक-उपासकों के यहां   करवा  [मिट्टी का टोंटीदार- लोटा या लुटिया ]  का बहुत महत्व है। उनके लिये वह एक मात्र पात्र है , जो उनकी जीवन-चर्या का साधन है। वे तो अकिंचन भाव में रहते हैं , स्वामी हरिदासजी ने गाया था :

   मन लगाय प्रीत कीजै कर करवा सों , ब्रज बीथिन दीजै सोहनी।

     स्वामी बिहारिनदेव ने लिखा :

करुऔ लाग्यौ जगत कों मीठ्यौ लाग्यौ मोहि। या परमपावन करवा कौ पानी।

दूसरी बात, ग्रन्थ ज्ञानपरंपरा का दूसरा स्तर है। पहला स्तर तो वाचिकपरंपरा का है। कोई भी ज्ञान जीवन से ग्रन्थ में गया। कोई भी परंपरा पहले वाचिक थी। इसलिये लोकपरंपरा शास्त्र की परंपरा से अधिक प्रामाणिक है क्योंकि वह जीवन में है ।वहां कोई पौरोहित्य नहीं हैं|

    करवा चौथ का जो चित्र बनता है  उसके मोटिफ़ [अभिप्राय] को देखिये -चन्दा की पूजा , सातसुहागिल , सप्तमातृका , मिट्टी की गौर , स्वस्तिक और पूजा का सरलविधान अर्घ्य। तपश्चर्या का सूत्र निराहार रहना। और भी अभिप्राय हैं , जो देशज हैं क्योंकि अलग जगहों पर करवा माता के चित्र अलग बनते हैं। माता का तत्व भी समझने की बात है। चौथमैया! अटल अखंड सौभाग्य की कामना -तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु।

    ध्यान में रखना होगा कि मनुष्य केवल शरीर ही नहीं है , मन भी है। मन है तो भाव हैं। भाव की अनुपस्थिति ही अभाव है। भाव ही नहीं है तो अरबपति होने पर भी दरिद्र ही है।

     करवाचौथ को लेकर के महाकवि बिहारी ने  सतसई में एक चित्र अंकित किया है। करवाचौथ थी। नायिका सबेरे से भूखी-प्यासी थी , चन्दा उगा कि नहीं यह देखने के लिये वह ऊंचे तिखने पर चढने लगी तो सहेली बोली :

   तू रहि सखि हौं ही लखों , चढि न अटा बलि बाल!

बिनु ही ऊगैं ससि समुझि , दीजत अरघ अकाल।

अरी सखि , तुझ पर न्यौछावर जाऊं , तू रहने दे , तू अटा पर मत चढ , मैं ही चढ कर देखती हूं कि चन्द्रोदय हुआ है या नहीं। कहीं ऐसा न हो कि चन्द्रोदय हुआ न हो और व्रत करने वाली सुहागिन तेरे मुख-चन्द्र को ही चन्द्रोदय मान कर अर्घ्य दे दें , यह तो अनर्थ हो जायेगा! 

आचार्य वासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखा है कि करवा चौथ (करक चतुर्थी) का पर्व  है , उसकी एक कहानी चली आती है। प्रायः प्रत्येक व्रत के लिए, ऐसी कहानियाँ हैं, जिन्हें ‘व्रतावदान’ कहते थे। यह करवा क्या है?चौथ के साथ इसका क्या सम्बन्ध है? इन प्रश्नों पर विचार करते हुए, ज्ञात हुआ कि ऋग्वेद के युग में ही इस व्रत का और इसकी कहानी का मूल रूप बना होगा।

     वहाँ कहा गया है कि मूल में एक चमस था। उस एक को ऋभु देवों ने चार चमसों के रूप में बदल दिया। इसी से इन्द्र द्वारा कार्य पूरा हुआ :

   एकं चमसं चतुर: कृणोतन.

  – ऋग्वेद (१।१६१/२)

चमस का ही पर्याय करक या घट है। प्रत्येक व्यक्ति का अव्यक्त रूप एक घट या कमण्डलु है। वह जीवन के जल से भरा हुआ है। व्यक्त रूप में उसी के तीन रूप हो जाते हैं। जिन्हें त्रिपुर या जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्थाएँ अथवा मन, प्राण और भूत कहते हैं। इन तीनों को चरितार्थता के लिए ऐसा विधान रचा है कि माता-पिता के कुल में उत्पन्न कुमारी का सास ससुर  के कुल में  उत्पन्न कुमार से  विवाह  होना चाहिए।

    यही सोम और अग्नि का सम्बन्ध है। इसी से   वह शृंखला  आगे  बढ़ती है , जिसकी कड़ी  सन्तान है। उसी के लिए राजकुमारी सात मातृ-देवियों या माइयों की सहायता से साँप से डसे हुए  उस राजकुमार को जीवित करती है।  ये  सात शक्तियाँ ही सात बहने हैं , जिनके लिए कहा है :

   सप्त स्वसारो अभिसंनवन्ते.

   – ऋग्वेद (१. १६४.३)

सात बहनें मिलकर देवरथ में बैठे हुए अधिपति का यशोगीत गाती हैं। उनके पास जो अमृत है, यह सातवीं से, जिसका नाम ‘बूढ़ सुहागिन’ माता है, अर्थात् जो मङ्गलात्मक आशीर्वाद से विश्वकर्मा की सृष्टि को बढ़ाती है, राजकुमारी को मिलता है।

    ऋभुदेवों ने एक गुणातीत प्राण कलश को लेकर उसके जो चार रूप किये, उनके उस चतुष्ट्य विधान की स्मारक कहानी करक- चतुर्थी का लोकव्रत है। ये सात अछरा माई हमें  भारत के जंगलों, पहाड़ों, आदिवासियों से लेकर गांव और नगर सब जगह मिल जाएंगी।जो सप्त मातृकाओं को ही नहीं जानता ,वह भारत को ही कितना जानता है?

करवाचौथ का गीत  है :

मैं तौ बरत रही हूं करवाचौथ दहीन के अरघ दिये।

मैंनें मांग्यौ अजुध्या कौ राज ससुर राजा दसरथ से।

मैंनें मांगी कौसल्या सी सास ससुर राजा दसरथ से।

मैंनें बर मांगे सिरी राम दिबर छोटे लछ्मन से।

मेरे चरत भरत देबर जेठ ननद छोटी भगिनी सी।

लोकगीतों में कचहरी बैठते ससुर , भेंसदुहन्ते जेठ, दही बिलोती सास, रसोई तपन्ती जेठानी , गेंद खेलन्ते देवर , गुडिया खेलन्ती ननद  समेत भरेपूरे परिवार  के चित्र हैं। एक-एक संबंध मानो आत्मीयभाव का रसायन है! भारत की खोज करने कहां जाऊं ? भारत तो मुझे इस अमृत- भाव में ही दिख रहा है ! परिवार को देखें और सोचें कि अपनी भाषा और बोली में पारिवारिक-संबंधों को व्यक्त करनेवाली शब्दावली कितनी विस्तृत है -फूफा, साडू, ददियासास, ननियासास, भतीजे, भांजे , चाचा, ताऊ, साले , सलहज , कहां तक गिनाऊं  !संकरी है संकरी पुरखापौरि पुरखा- परिगह अति बडौ ! आंगन बहुत छोटा है तो छोटा ही सही, किन्तु कुनबा तो बहुत बडा है ! भात न बूसे , गोत न रूठे , दही अमिल ना होय ! भात बुसे नहीं , दही खट्टा न हो और गोती रूठे नहीं ! इनके लिये तो दिल को ही बडा करना होगा. 

      दाम्पत्यसंबंध -जनम-जनम का साथ! कितना तेजस्वी संबंध है ? सावित्री के तेज के सामने बेचारे यमराज का विधान शिथिल हो जाता है और सत्यवान पुनर्जीवित हो जाता है!  बहिन का वह संबंध कितना मांगलिक है ! बहिन का तिलक मंगलभाव का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक है !  भाई और भाभी के प्रेमसंबंध की गांठ बांधने की उससे बडी अधिकारी और कौनसी सत्ता हो सकती है ? 

     हरदौल की गाथा देवर के पवित्र-संबंध की अमरगाथा है ! भाई , मिलहि न जगत सहोदर भ्राता ! श्रवण की गाथा मातापिता की सेवा की अमृतकथा है।

भारत के लोक और शास्त्र : दोनों में परिवार के संबंधों को लेकर शत-सहस्र गाथाएं हैं जो शताब्दियों से इन संबंधों में अमृतभाव का संचार करती रही हैं.

    बहू रिमझिम महलाँ से ऊतरी कर सोलह सिंगार ,आज म्हारी आमली झलिया जी.

म्हारी सासूजी पूछे ए बहू थारा गहना का अरथ विचार.

सासूजी गहना गहना के करौ म्हारौ गहना से परवार.

सासूजी गहना गहना के करौ

म्हारौ सुसरा गढ़ारा राजवी ,सासूजी म्हारा अरथ-भंडार.

सासूजी गहना गहना के करौ

म्हारा जेठ बाजूबन्द बाँकड़ा जीठानी म्हारी बाजूबन्द री लूम.

म्हारा देवर चुड़ला दाँत कौ ,दोरानी म्हारी चुड़ला री टीप.

म्हारी ननद कसूमल काँचली नणदोई गजमोतियारौ हार.

आज म्हारी आमली फलियो जी 

म्हे तो वाराजी बहूजी थारी जीभ  नें।लड़ायौ म्हारौ सो परवार.

म्हें तो वारी सासूजी थारी कोखणें ,थे तो जाया अरजुन वीर.

आज म्हारी आमली फलियो जी

मालवी नारी के सम्मिलित परिवार के ऐसे चित्र आज के टूटते-बिखरते परिवार के लिए आदर्श बन सकते हैं।

     इस गीत की प्रत्येक पंक्ति ही नहीं, प्रत्येक शब्द भावों से परिपूर्ण है। सास बहू से उसके तन पर शोभित आभूषणों का उद्देश्य पूछती है, उत्तर में बहू कहती है- हे सासूजी. शरीर पर जो आभूषण सुशोभित है वे तो भौतिक सम्पदा है, मेरी आत्मिक सम्पदा मेरे आभूषण, तो मेरा सम्मिलित परिवार और परिजन हैं। 

    यदि परिवार के संबंधों में आपने भारत को नहीं पाया तो क्या समाज और क्या राष्ट्र ? क्या विश्व , क्या मानवता ?

     परिवारों के परिवार का ही नाम समाज है और कुटुंबों के कुटुंब का नाम राष्ट्र. यदि परिवार में ही आपने मानवता और समाज को नहीं पहचाना तो उन किताबी रटंन्त का अर्थ भाप के इंजन के भप-भप से अधिक नहीं है।वसुधैव कुटुंबकम्‌ और विश्वमानवता की बात केवल और केवल  ढोंग तथा पाखंड है।

    परिवार संस्था जीवित है तो इसका रहस्य नारी के भाव में है. यह भारतीय नारी की गौरव गाथा हैं.

      करवाचौथ अथवा अन्य कोई भी पर्व वैज्ञानिक-अनुसंधान  में आज तक बाधक नहीं बना और आगे भी बाधक बनने की तिल भर भी आशंका नहीं है. मेरे साथ भौतिकी की प्रोफेसर थीं. हम से आपसे अधिक जानती थी, किन्तु करवाचौथ का व्रत बड़ी निष्ठा से करती थीं।

     आपको अपने ही रूढिवाद और अंधविश्वास को परिभाषित करना होगा और विश्वास और अंधविश्वास के बीच अन्तर स्पष्ट करना होगा. महिमा तो लोकजीवन की है. समस्त ज्ञान- विज्ञान का केन्द्र ,उदगम और प्रयोजन लोकजीवन ही है. प्रमाण भी लोकजीवन ही है. उस निश्छल प्यार  को किसके प्रमाणपत्र की जरूरत है?

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