दन तिवारी
पूर्वांचल की चर्चित लोक गायिका
छठ के बारे में यह कहा जाता है और सिर्फ कहा ही नहीं जाता, स्पष्ट नजर भी आता है कि यही एक मात्र त्योहार है, जिस पर आधुनिकता हावी नहीं हो पा रही या कि आधुनिक बाजार इसे अपने तरीके से, अपने सांचे में ढाल नहीं पा रहा।
पुरबिया इलाके की पहचान का छठ पर्व जिस इलाके से उभरा, उस इलाके में जात-पात का भेद गहरा रहा है। छठ पर्व ने हमेशा से सामाजिक विषमताओं को तोडऩे का काम किया है। इस पर्व के दौरान गीतों का महत्त्व भी कम नहीं है। इसके गीत शास्त्र और मंत्र, दोनों भूमिका निभाते हैं। जब छठ के गीतों को पर्व के शास्त्र और मंत्र दोनों कह रही हूं तो यह आजकल यूट्यूब पर भारी संख्या में मौजूद या हर साल सैकड़ों बन रहे गीतों से पता नहीं चलेगा, बल्कि इसके लिए छठ व्रतियों द्वारा घाट पर गाए जाने वाले गीतों को सुनना होगा। या फिर शारदा सिन्हा, बिंध्यवासिनी देवी जैसी सिरमौर कलाकारों के गाए गीतों को, जिन्होंने छठ के मूल गीतों में नवाचार कर देश-दुनिया में फैलाया। इन गीतों को जब गौर से सुनिएगा तो मालूम होगा कि हर गीत में स्त्री की ही इच्छा-आकांक्षा और स्वर हैं। चाहे गीतों में इष्टदेव सूर्य या छठी मइया से कुछ मांगने वाला गीत हो, दो तरफा संवाद वाला गीत हो या महिमा गान वाला गीत हो, पारम्परिक छठ गीतों में से अधिकांश गीत इन्हीं भावों पर आधारित हैं।
छठ के त्योहार में गीतों की भूमिका अहम होती है, इसलिए गीतों के जरिए जब छठ को समझने की कोशिश करेंगे तो लगेगा कि छठ तो एक ऐसा पर्व है, जिसे कहा तो जाता है परम्परागत लोक पर्व लेकिन यह तेजी से जड़ परंपराओं को तोडऩे वाला पर्व भी है। छठ के गीत बताते हैं कि यह त्योहार स्त्रियों का ही रहा है। अब भी स्त्रियां ही बहुतायत में इस त्योहार पर व्रत करती हैं लेकिन तेजी से पुरुष व्रतियों की संख्या भी बढ़ रही है। पुरुष भी उसी तरह से नियम का पालन करते हैं, उपवास रखते हैं, पूरा पर्व करते हैं। इस तरह से देखें तो छठ संभवत: इकलौता पर्व ही सामने आएगा, जो स्त्रियों का पर्व होते हुए भी पुरुषों को आकर्षित कर रहा है। इतना कठिन पर्व होने के बावजूद पुरुष, स्त्रियों की परम्परा का अनुसरण कर रहे हैं। बहरहाल, बात गीतों पर। यह समझने की कोशिश हमेशा रही कि आखिर जिस पर्व में गीत ही उसके मंत्र होते हैं, गीत ही शास्त्र तो उन गीतों को जिस लोकमानस ने रचा होगा, उसमें क्या-क्या खास तत्व हैं? सबमें समानता क्या हैं? छठ में उसके गीत ही शास्त्र और मंत्र होते हैं, यह तो एक बात होती है, गीतों में ही यह तलाशने की कोशिश भी कर रही थी कि आखिर मूल रूप से स्त्रियों और सामूहिकता के इस लोकपर्व के गीतों में सामूहिकता और स्त्री कितनी है? रुनुकी-झुनुकी के बेटी मांगिला… या पांच पुतर अन-धन-लछमी, लछमी मंगबई जरूर… जैसे पारंपरिक गीतों में छठ पर्व के जरिए संतान के रूप में भी बेटी पाने की कामना पीढिय़ों से रही है।
छठ के गीतों से इस पर्व को समझें तो व्रती स्त्रियां सिर्फ एक संतान की मांग को छोड़ दें तो अपने लिए कुछ नहीं मांगती। उनकी हर मांग में पूरा घर शामिल रहता है। पति के निरोगी रहने की मांग करती हैं, संतानों की समृद्धि की कामना करती हैं लेकिन अपने लिए कुछ कामना नहीं। छठ के गीतों से बारीकी से गुजरने पर यह भी साफ-साफ दिखा कि यह किसी एक नजरिए से ही पूरी तरह से लोक का त्योहार नहीं है, बल्कि हर तरीके से विशुद्ध रूप से लोक का ही त्योहार है।
छठ के गीतों में एक और आश्चर्यजनक बात है कि कहीं भी मोक्ष की कामना किसी गीत का हिस्सा नहींं है। लोक की परम्परा में मोक्ष की कामना नहीं है। यह तो एक पक्ष हुआ। दूसरी कई ढेरों बातें भी छठ के गीत में हैं। इसकी एक और बड़ी खासियत यह है कि इसमें परस्पर संवाद की प्रक्रिया चलती है। पारम्परिक लोकगीत लोक और परलोक के इस सहज-सरल रिश्ते को खूबसूरती से दिखाते हैं। बाकी छठ गीतों का एक खूबसूरत पक्ष यह तो होता ही है कि इसमें प्रकृति के तत्व विराजमान रहते हैं। सूर्य, नदी, तालाब, कुआं, गन्ना, फल, सूप, दउरी, यही सब तो होता है छठ में और ये सभी चीजें या तो गांव-गिरांव की चीजें हैं, खेती-किसानी की चीजें हैं या प्रकृति की।
छठ के बारे में यह कहा जाता है और सिर्फ कहा ही नहीं जाता, स्पष्ट नजर भी आता है कि यही एक मात्र त्योहार है, जिस पर आधुनिकता हावी नहीं हो पा रही या कि आधुनिक बाजार इसे अपने तरीके से, अपने सांचे में ढाल नहीं पा रहा। ऐसा नहीं हो पा रहा तो यकीन मानिए कि इसमें सबसे बड़ी भूमिका पारम्परिक छठ गीतों की है, जो मंत्र और शास्त्र बनकर, लोकभाषा, गांव, किसान, खेती, प्रकृति को अपने में इस तरह से मजबूती से समाहित किए हुए हैं कि इसमें बनाव के नाम पर बिगाड़ की कहीं कोई गुंजाइश ही नहीं बचती।