Site icon अग्नि आलोक

*स्मृति के स्वरूप और निमित्त*

Share

           ~पुष्पा गुप्ता 

      वैदिक साहित्य में स्मृति को अन्तःकरण के अवयव ’चित्त’ का कार्य माना गया है, क्योंकि अन्तःकरण के सभी भाग एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं.

अंत:करण के चार भाग ये हैं :

   *मन :*

   संकल्प-विकल्प करने वाला अर्थात् बुद्धि से सन्देश ग्रहण कर उसको शरीर में क्रियान्वित करना अथवा इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान को बुद्धि तक पहुंचाना।

      बुद्धि – निश्चय करने वाला अर्थात् मन से प्राप्त ज्ञान क्या है, उसे स्मृति के आधार पर निश्चित करना; और उसके अनुसार क्या चेष्टा करनी चाहिए, यह सन्देश मन को भेजना।

   *चित्त :*

    स्मरण करने वाला अर्थात् अनुभवों को स्मृति में सुरक्षित करने वाला और आवश्यकता पड़ने पर उनको स्मृति से बाहर निकालने वाला – स्मरण कराने वाला।

  *अहंकार :*

     अभिमान करने वाला अर्थात् आत्मा का यह सोचना कि प्रकृति का यह शरीररूपी अंश मैं हूं।

कभी-कभी ’मन’ शब्द से इन चारों विभागों का ग्रहण किया जाता है।

    कहीं-कहीं मन को एक समय में केवल एक ज्ञान रखने वाला बताया गया है : युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्॥~न्यायदर्शन (१।१।१६॥)

  लेकिन यदि ऐसा होता तो हम कभी भी किसी को पहचान नहीं पाते, न किसी श्लोक के अर्थ कर पाते, न ज्ञान को आगे बढ़ा पाते, क्योंकि इन सभी में एक से अधिक ज्ञानों को मिलाकर निष्कर्ष निकलता है।

    तो पहले हमें यह सोच ठीक कर लेनी चाहिए – केवल उपर्युक्त मन ही एक काल में एक कार्य/ज्ञान करता है। 

*चित्त और स्मृति :*

  स्मृति का अधिक विभाजन नहीं किया गया है। वैदिक साहित्य में उसके निमित्तों का तो विशद वर्णन उपलब्ध होता है, परन्तु स्मृति के प्रकार नहीं कहे गए हैं।

   पाश्चात्य अन्वेषण से स्मृति के तीन विभाग ज्ञात होते हैं :

    *तात्कालिक स्मृति (सैन्सरी  रजिस्टर) :*

    यह स्मृति का प्रथम पड़ाव होता है। इसमें किसी भी क्षण में इन्द्रियों से प्राप्त होने वाले सभी संकेत उपलब्ध होते हैं।

     इसलिए हमें इसे मन से पूर्व की स्थिति मानना पड़ेगा। यह केवल चौथाई सैकण्ड के लिए उपलब्ध होती है, परन्तु श्रवण किया शब्द कुछ देर और – ४ सैकण्ड तक रह सकता है। इसलिए यदि आप पूर्व क्षण की किसी भी अनुभूति को तुरन्त याद करें तो आप को सब याद आ जाएगा. रूप-रंग, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द कुछ अधिक समय तक ।

इसके बाद मन केवल एक अनुभूति है, जिसपर हम ध्यान दे रहे हों, या जो हमारी सुरक्षा के लिए आवश्यक हो, या अधिक तीव्र हो – उसको बुद्धि तक पहुंचा देता है । भारतीय सोच में इसे इन्द्रिय से अर्थ-ग्रहण की श्रेणी में ही रखा गया है।

*अल्पकालिक स्मृति (शौर्ट-टर्म मैमोरी) :*

    तात्कालिक स्मृति के समान, यह स्मृति अपने आप बन जाती है, इसे याद रखने के लिए श्रम नहीं करना पड़ता । जिस भी वस्तु पर हमारा ध्यान होता है, वह इसमें करीब आधे मिनट के लिए रिकार्ड हो जाती है।

     अर्थात् मन से छनकर जो ग्रहण होता है, वह इस स्मृति में आ जाता है। यही नहीं, इसमें एक से अधिक ज्ञान रहते हैं। इनकी संख्या ५ से ९ पाई गई है। इसलिए किसी सूची को तुरन्त याद करने को कहा जाए, तो व्यक्ति ५-९ पदार्थ ही बता पायेगा।

     यही वह स्मृति भी है, जिसमें दीर्घकालिक स्मृति (आगे वर्णित) से भी ज्ञान निकाल के लाए जाते हैं – निश्चय अर्थात् पूर्व ज्ञान के आधार पर इस समय प्राप्त होने वाले सिग्नल को समझने के लिए । तभी ज्ञान का अर्थ निकलता है।

     जैसे – हमने सामने खड़े व्यक्ति को देखा। जल्दी से हमने उसके चेहरे के कुछ अंश नोट कर लिए। ये इस अ०स्मृ० में स्थित हो गए।

    अब इनके आधार पर दी०स्मृ० से खोज करके, हम उस व्यक्ति का सारा ज्ञान निकालते हैं। इससे हमें व्यक्ति की पहचान हो जाती है – उसका नाम, सम्बन्ध आदि भी अ०स्मृ० में आ जाता है और हम उस व्यक्ति का नाम से अभिवादन करते हैं।

    फिर भी, निश्चय करने के लिए, ऐसा प्रतीत होता है २-३ वस्तुएं ही एक बार में उपस्थित होती हैं, अन्यों को इस अ०स्मृ० में भी खोजने में हल्का-सा समय जाता है, जैसे कि ७ वस्तुओं की सूची में से चौथी  याद करने के लिए हम पहली, दूसरी, तीसरी याद करके ही चौथी पर पहुंचेंगे।

     इसी प्रकार किसी भी वस्तु को समझने में सर्वत्र समझें। यह संगणक की RAM के तुल्य होती है। हमारे दर्शनों में इस स्मृति को निश्चयात्मक बुद्धि का अंश माना गया है।

       बार-बार अभ्यास करने से या कृत्रिम सम्बन्ध जोड़ने से, इस स्मृति को थोड़ा लम्बा किया जा सकता है, और दीर्घकालिक भी बनाया जा सकता है, जैसा कि हम क्रमशः रटने और कविता (छन्दोबद्ध शब्दों) में देखते हैं ।

*दीर्घकालिक स्मृति (लौंग-टर्म मैमोरी):*

    इस स्मृति में जितना चाहो उतना समा जाता है, और जीवन-भर के लिए – कठिनाई है तो केवल उसको याद करने में.

      ऐसा पाया गया है, जो भी विस्मरित होता है, वह केवल स्मृति से निकाल न पाने के कारण होता है, और कई अवस्थाओं में विस्मृत बातें भी याद दिलाई जा सकती हैं।  इस स्मृति का कोश इतना बड़ा होता है, इसलिए इसको खोजने के लिए चित्त कई उपायों का प्रयोग करता है।

    ये स्मृति तीन प्रकार की पाई गई है :

   1. प्रक्रियात्मक :

इसमें हम किसी क्रिया को करने के प्रकार को याद रखते हैं, जैसे चलने में पैरों  कैसे ऊपर नीचे और आगे रखा जाएं, साइकिल चलाने का तरीका, आदि, आदि।

     जितना हम उस क्रिया का प्रयोग करेंगे, उतना यह स्मृति कठिनाई से विस्मृत होगी और बहुत वर्षों के अन्तराल भी हम पुनः क्रिया पहले के समान कर लेते हैं, जैसे कि साइकिल चलाने के बारे में प्रसिद्ध है कि एक बार सीख लिया तो फिर जीवन-भर कोई नहीं भूलता।

2. शब्दार्थक :

    शब्दों, मुहावरों, आदि के अर्थ हम चित्त के एक और स्थान में रखते हैं। किसी शब्द के प्रयोग होने पर या बोलने में, हम इस भाग से अर्थ को निकालकर ग्रहण करते हैं।

3. अनुभवात्मक :

 इसमें जीवन के अनुभव स्थान, समय और सुख-दुःख आदि मानसिक विकारों से जुड़े होते हैं।

    जैसे – कोई गाना सुनकर हमें उस गीत से जुड़ा हमारा कोई प्रिय अनुभव, चलचित्र के समान, हमारी आंखों के सामने आ जाता है। 

इन रक्षण-प्रकारों से सम्बन्धित ही इनको स्मृति से बाहर निकालने का प्रकार होता है। ऐसा पाया गया कि जहां पूर्व की दो स्मृतियां इन्द्रिय से प्राप्त ज्ञान का चित्र-सा बना के रखता है, दी०स्मृ० में मानसिक विकार के साथ चित्र होता है।

    इन विकारों के आधार पर ये स्मृति में निबद्ध होती हैं, और इन्हीं सम्बन्धों के द्वारा ये निकाली जाती हैं और इसी कारण से कुछ सम्बद्ध बातें हमें गलत भी याद हो सकती हैं। जितना हम किसी स्मृति का प्रयोग करेंगे, वह उतनी शीघ्र निकल आयेगी, जैसे भाषा का प्रयोग; और जितना कम प्रयोग करेंगे, उतना वह कठिनता से याद आयेगी, जैसे बचपन की यादें।

     न प्रयोग करते-करते, एक ऐसा समय आ जायेगा, जब हम उसे ’भूल’ जायेंगे। फिर उसे याद करने के लिए विशेष तरीकों का प्रयोग करना पड़ता है, जिनमें से कोई उत्तेजनात्मक घटना, हिप्नोसिस्, विद्युत्, आदि कुछ हैं।

जहां पाश्चात्य पद्धति में याद करने के प्रकार – स्मरण के निमित्त – और अधिक नहीं खोजे गए हैं.

    प्राचीन भारतीय दर्शन ‘न्याय’ में इनको २७ भागों में विभक्त किया गया है :

प्रणिधाननिबन्धाभ्यासलिङ्गलक्षणसादृश्यपरिग्रहाश्रयाश्रितसम्बन्धानन्तर्यवियोगैककार्यविरोधातिशयप्राप्तिव्यवधानसुखदुःखेच्छाद्वेषभयार्थित्वक्रियारागधर्माधर्मनिमित्तेभ्यः॥

   ~न्यायदर्शन (३।२।४३)

 स्मरण का निमित्त स्मृति में कैसे कोई ज्ञान डाला गया है, उससे सम्बद्ध है. इसलिए इस सूची में दोनों ही लक्षित हैं।

 प्रणिधान :

 स्मरण करने की इच्छा से स्मृति को खोजना, जैसे कि परीक्षा देते हुए विद्यार्थी करता है, या किसी का नाम याद करने के लिए हम सभी करते हैं।

निबन्ध :

  सम्बन्धित वस्तु द्वारा याद करना, जैसे ऋग्वेद को याद करते ही, यजु, साम और अथर्व भी अनायास याद आ जाते हैं।

    इसके लिए कृत्रिम सम्बन्ध भी स्थापित किया जा सकता है, जैसे कहानी में गूंथ लेना या श्लोक में गढ़ देना। हमारे पूर्वज इस दूसरे उपाय को भली प्रकार जानते थे, इसीलिए संस्कृत में प्रायः सभी सूचियों के लिए श्लोक बने हुए हैं। छन्दोबद्ध शब्द या कहानियां हम अधिक सरलता से स्मृति में रख लेते हैं।

अभ्यास :

 जैसे हमने ऊपर भी देखा, बार-बार स्मरण करने से, तथ्य स्मृति में बैठ जाता है और आसानी से याद आता है। जिसे प्राचीन ऋषियों ने ’दृढ़ संस्कार’ कहा है, वह आज की भाषा में ’reinforced neural connection’ कहा जायेगा, अर्थात् मस्तिष्क की ज्ञान-कोषिकाओं के आपसी सम्बन्धों को प्रगाढ़ करना।

     यथा पुनः पुनः विज्ञापन सुनने से उसकी एक पंक्ति सुनकर बाकी पंक्तियां अथवा विज्ञापित वस्तु का याद आ जाना।

लिङ्ग :

 वस्तु के केवल चिह्न को देखकर उस वस्तु का स्मरण हो जाना, जैसे किसी के बालों या फोटो को देखकर उसको पहचानना।

लक्षण :

किसी कृत्रिम चिह्न से परिलक्षित होना, जैसे वस्त्रों से किसी को पहचानना।

सादृश्य :

समानता से पहचानना, जैसे किसी के समान डील-डौल से किसी अन्य की याद आना।

परिग्रह :

 किसी सिद्धान्त आदि को मान लेने पर, उसका स्मरण होना, जैसे वस्तु को छूने पर अणु का स्मरण होना।

आश्रय :

 आश्रय/स्वामी से आश्रित का स्मरण, जैसे नेता से राष्ट्र का।

आश्रित : आश्रित से आश्रय/स्वामी का, जैसे मधुमक्खी से छत्ते का।

सम्बन्ध – वैसे तो अधिकतर स्मृति के निमित्त स्मृति से सम्बन्धित ही होते हैं, परन्तु उनकी गणना करके, अब शेष सभी सम्बन्ध यहां गिने जा सकते हैं, जैसे पिता-पुत्र का सम्बन्ध, मित्र से विद्यालय का सम्बन्ध, आदि।

आनन्तर्य :

 किसी नियत क्रम से वस्तुओं को याद रखना, जैसे पूर्व से पश्चिम का स्मरण होना। 

वियोग :

 किसी से वियोग होने पर उसका स्मरण होना, जैसे किसी बन्धु का।

एककार्य – समान कार्य करने से कुछ याद आना, जैसे कलक्टर से मिलने पर किसी कलक्टर मित्र की याद आना।

विरोध :

 विरोधी वस्तु की याद आना, जैसे ट्रम्प को देखकर किम की याद आना। 

 अतिशय :

 अधिकता से कोई गुण होने के कारण कुछ याद आना, जैसे मीठे से मधु याद आना अथवा दौड़ने से उसेन बोल्ट।

प्राप्ति :

किसी से कुछ प्राप्त होने से, वस्तु से उस व्यक्ति अथवा व्यक्ति से वस्तु का याद आना, जैसे उपहार से देने वाले की याद आना।

व्यवधान :

 किसी अवरोध से अवरुद्ध वस्तु की याद आना या उसका उल्टा, जैसे नदी से बांध की याद आना।

सुख :

 वस्तु से सुख या सुख से वस्तु का याद आना, जैसे छोटी पुत्री के सुख से बड़ी पुत्री की याद आना।

दुःख : सुख के समान, दुःख से सम्बद्ध।

इच्छा :

 यह सुख से ही सम्बद्ध है – इच्छित पदार्थ को याद करना।

द्वेष :

यह दुःख से सम्बद्ध है – अनिच्छित पदार्थ को याद करना।

भय :

 वस्तु को देखकर भय याद आना अथवा भय से वस्तु को याद करना। भय दुःख का ही एक रूप है।

अर्थित्व :

 किसी वस्तु की आवश्यकता से उसे याद करना, यथा ठण्ड में ऊनी कपड़े को याद करना। यह सुख से सम्बद्ध है। 

इससे शब्दों का अर्थ स्मरण करना ग्रहण होना चाहिए, अर्थात् अर्थ से शब्द और शब्द से अर्थ की स्मृति, ऐसा मेरी मान्यता है, क्योंकि यह अन्यत्र कहीं नहीं आया है और ’आवश्यकता’ का परम्परागत अर्थ जो मैंने ऊपर ग्रहण है, वह ’इच्छा’ के अतिशय निकट होने से पुनरुक्ति की श्रेणी में आ जाएगा। 

क्रिया :

 किसी क्रिया से अन्य क्रिया अथवा करने वाले की याद आना या इसका उल्टा । यथा चलते समय पैर कैसे आगे बढ़ाने हैं, वह याद रहना।

राग :

 अतिशय इच्छित पदार्थ का चिन्तन/स्मरण। यह सुख से सम्बद्ध है।

धर्म :

 कुछ करते हुए, उस विषय में धर्म याद आना, अर्थात् संस्कार। यथा – कुछ बताते हुए याद रखना कि सत्य बोलना है।

अधर्म :

धर्म का उल्टा – झूठ बोलते हुए सत्य-धर्म याद कर के सकुचाना।

पाश्चात्य और भारतीय व्याख्याओं में पुनः सोच में भेद स्पष्ट दिखाई पड़ता है। तथापि उसमें समानताएं होना तो आवश्यक ही है ! सो, प्रक्रियात्मक ज्ञान ’क्रिया’ से स्मरण किया जाता है, शब्दात्मक ज्ञान सम्भवतः ’अर्थित्व’ से और अनुभवात्मक ज्ञान, ’प्रणिधान’, ’निबन्ध’,’अभ्यास’, ’लिङ्ग’, ’लक्षण’ और ’सादृश्य’ को छोड़कर, अन्य सभी से।

     ’प्रणिधान’ को रीकौल (recall) कहा जाता है और ’निबन्ध’ को chunking अथवा association और ’अभ्यास’ को repetition या learning by rote । सभी प्रकार की पहचान करने को recognition कहा जाता है, जो कि ऊपर मुख्यतया लिङ्ग, लक्षण और सादृश्य के अन्तर्गत आयेंगे।

     अनुभवात्मक ज्ञान में मुख्य रूप से वस्तुओं के बीच सम्बन्ध (association) स्थापित किया जाता है, जैसे परिग्रह,आश्रय-आश्रित, आनन्तर्य, आदि, और अनुभूतियां, जैसे, सुख-दुःख, राग-इच्छा-द्वेष, वियोग, आदि। 

गहराई से देखें तो प्रक्रियात्मक ज्ञान भी क्रियाओं का सम्बन्ध है और शब्दात्मक शब्द-अर्थ का सम्बन्ध। इसलिए हम कह सकते हैं कि स्मृति में रखने का मुख्य साधन सम्बन्ध है। इस साधन की स्वामिनी बुद्धि है।

    अनुभव करते समय, वह कुछ सम्बन्ध जोड़ देती है और स्मृति में डालते समय उन सम्बन्धों में से कुछ सम्बन्ध भी चले जाते हैं। उनके अनुसार ही वे स्मृति में व्यवस्थित किए जाते हैं, जैसे कि पुस्तकालय में पुस्तक विषय, लेखक, शीर्षक, आदि, कई सम्बन्धों के अनुसार व्यवस्थित की जाती हैं।

     पतञ्जलि के योगदर्शन में इन्हीं सम्बन्धों के तोड़ने को ’स्मृतिपरिशुद्धि’ और ’अर्थमात्रनिर्भासा’ (योगदर्शन १।४३) कहा गया है।

     उस शुद्धि के साथ-साथ सुख-दुःख-रूपी सारे संस्कार जो हम अनुभूति के अनुसार जोड़ देते हैं, वे भी जाते रहते हैं । इस प्रकार योगी सुख-दुःख के परे चला जाता है।

भारतीय अध्यात्म में सदा से अन्तःकरण को जानना आवश्यक माना गया है। योगदर्शन, न्यायदर्शन, सांख्य, आदि ग्रन्थों ने इस विषय का विवेचन भी प्रस्तुत किया है।

     आजकल हमारी सोच कुछ पाश्चात्य संशोधन से प्रभावित है । इसलिए हम भारतीय ज्ञान-विज्ञान को भूलते जा रहे है। मेरे अनुसार, दोनों पद्धतियों का समन्वय करने से हम अपने ज्ञान की निधि को बहुत बढ़ा सकते हैं।

    यह इसलिए भी आवश्यक है कि प्राचीन ग्रन्थ सूक्ष्मरूप में ही प्राप्त हैं। उनकी विस्तृत व्याख्याएं अधिकतर बहुत काल के बाद की उपलब्ध हैं। इस कारण से कई स्थानों पर वे लेखक के अभिप्राय को पूर्णतया समझने और व्यक्त करने में सक्षम नहीं हो पाई हैं। इसलिए वे सन्दिग्ध हैं।

   आधुनिक ज्ञान से समन्वय करके हम कुछ त्रुटियों को दूर कर सकते हैं और कुछ विषयों को विस्तृत रूप में समझ सकते हैं। दूसरी ओर, प्राचीन ज्ञान भी आधुनिक ज्ञान के दोष दूर कर सकता है, विषयों को नए प्रकार से समझने का प्रकार दे सकता है और विस्तृत ज्ञान उपलब्ध करा सकता है। इसलिए दोनों का समन्वय सर्वथा वाञ्छनीय है।

Exit mobile version