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परवरिश : माता-पिता होना जैविक, अभिभावकत्व दायित्वपूर्ण

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डॉ. प्रिया

       _’आत्मा अमर है’ ‘जीव नश्वर है’ ‘प्रेम ही परमात्मा है’  ‘सबका मालिक एक’ : हर मंदिर, गिरजा, गुरुद्वारा, मुक्तिधाम की दीवारों पर  यही सब लिखा रहता है. हम इसे रोज पढ़ते हैं.. मगर हमारे जीवन में कोई फर्क नहीं पड़ता. पानी में तेल की तरह सब बातें ऊपर ही ऊपर रह जाती हैं._

        इसी तरह अभिभावक अपने बच्चों को जो उपदेश देते हैं वह भी ऊपर ही ऊपर रह जाता है; क्योंकि इन बातों का उन बच्चों के दैनंदिनी के जीवन से कोई संबंध नहीं बनता. यह उनके सत्य थे जिन्होंने इस सत्य को जिया. हमारे जीवन का सत्य भी वही है जिसे हम रोजाना जीते हैं.

बच्चा हमारे उपदेश को नहीं,  हमारे जीने के ढंग को पकड़ता है.  और जब वह हमारी कथनी-करनी में भेद देखता है तो हमारी हिदायतों और बोलने का उस पर कोई असर नहीं पड़ता. बच्चा देखता है कि हमारे मां-बाप कुंठाग्रस्त हैं, छोटी-छोटी बातों पर आपा खो देते हैं, अपने आवेग और आदतों पर उनका कोई नियंत्रण नहीं है…. तो उस पर, उसे दी जाने वाली आत्म संयम’ और ‘आत्मानुशासन’ जैसी बातों का कोई असर नहीं पड़ता.

       जरा से धन और पद के लालच के लिए सब नियम और नैतिकता ताक पर रख देने वाले, छोटी छोटी बातों से विचलित और अवसाद ग्रस्त हो जाने वाले अभिभावक, जब अपने बच्चों को ईमानदारी और मानसिक दृढ़ता का उपदेश देते हैं तो बच्चों को कोई फर्क नहीं पड़ता. बच्चा वही सीखता है जो वह देखता है.

       अच्छा अभिभावक होना कोई हंसी खेल नहीं है. बच्चे को इस दुनिया में ‘उत्तरजीविता’ लायक बना देना बड़े से बड़ा यज्ञ है. मनुष्य जैव-श्रंखला से गुजर कर उन्नत अवश्य हुआ है मगर,

आखिरकार वह एक जानवर ही है. बाहर की दुनिया, जंगल की दुनिया की तरह ही, हर पल सर्वाइवल की चुनौती है.

       यहां साफ दिखने वाले पानी के नीचे खूंखार मगरमच्छ हैं. घने वृक्ष के नीचे वाइपर, क्रेत और कोबरा विचर रहे हैं. पग पग खतरे की आहट है.सांस सांस सजगता की दरकार है. मां बाप बच्चों से 20-30 साल आगे चल रहे होते हैं, स्वाभाविक ही उन पर जीवन की क्रूरता पहले प्रकट होती है.

       यही वजह है कि वह बच्चे को हर तरह से प्रशिक्षित कर देना चाहते हैं कि वह सरवाइव कर सके. मगर सर्वाइवल का संघर्ष, कोई सुनिर्दिष्ट पद्धति नहीं है.  हर मां-बाप को जीवन का एक जैसा अनुभव नहीं होता. हर बच्चे को एक सी समझाईशें नहीं दी जा सकतीं.

        प्रकृति में हर जीव के पास उसकी अनोखी शक्ति और इंद्रिय होती है, जो उसे सजग, चौकन्ना और आने वाले खतरे का पूर्वाभास कराती है. हर जीव का डिफेंस मेकैनिज्म, अन्य जीवों से जुदा होता है. साही के पास नुकीले तीर होते हैं, बंदर के पास हाथ, सियार के पास विलक्षण फुर्ती और बुद्धि की चपलता होती है.

        बेशक उत्तरजीविता की श्रृंखला में मनुष्य बहुत आगे निकल गया है मगर वस्तुतः  तो वह एक जीव ही है. उसमें एनिमल इंस्टिंक्ट्स अब भी मौज़ूद हैं. नाखून का बढ़ना, केनाइन दांत,  अपेंडिक्स  जैसे चिन्ह इस बात की सूचना देते हैं.

       यह सच है कि मनुष्य अपने बुद्धि बल की ताक़त से जीव जगत का विजेता है और उसका संघर्ष अब अन्य प्रजाति के जीवों से नहीं है. मगर उत्तरजीविता की लड़ाई अभी ख़त्म नहीं हुई है. अब हर इंसान की चुनौती, दूसरा इंसान है. और यह चुनौती वन्य जीवन से कम नहीं है.

         वन में दूसरे जीव की पहचान आसान थी क्योंकि वह रंग, आकार और प्रकृति में दूसरे से पृथक थे. हिरण के लिए शेर को पहचानना आसान था,  खरगोश के लिए सियार को. हर पक्षी यह जानता था कि अजगर उसके अंडे लील जाता है.

      मगर मनुष्य की चुनौती महाविकट है. वह तो एक ही ख़ाल पहनकर, हजार जीवो का स्वभाव धरे विचर रहा है. कहीं चाचा,मामा का रूप धरे कोई लकड़बग्घा, पांच साल की बच्ची को दबोच कर उसकी हत्या कर देता है,

कहीं कोई भेड़िया, बॉस का भेष धरकर, अपनी महिला सहकर्मी पर घात लगाए बैठा है. कहीं कोई ठेकेदार अजगर बनकर, कामगार स्त्रियों की अस्मत निगल रहा है.

इस सदी के मनुष्य का संघर्ष, शरीर की रक्षा और आहार का प्रबंध मात्र नहीं रह गया है. उसने भाव, बुद्धि और चेतना की उच्चता के अनेक तल विकसित कर लिए हैं.

     अब भावनात्मक मजबूती भी उतनी ही जरूरी है, जितनी कि तर्क, विचारणा और निर्णय लेने की क्षमता. क्योंकि अब दूसरे जीव या समूह का आक्रमण सिर्फ देह पर नहीं होता, बल्कि भावना और बुद्धि पर भी होता है. भावनात्मक रूप से टूट जाने पर मनुष्य आत्महत्या भी कर लेता है.

         बुद्धि चातुर्य न होने से वह आत्मविनाश कर सकता है,  दूसरे का गुलाम भी हो सकता है. अब शक्ति का आधार नाखून, पंजे और शरीर का बल नहीं रह गया है बल्कि इनकी जगह, पैसा, सत्ता और अधिकार ने ले ली है.

       .. लिहाजा पेरेंट्स का दायित्व अब सिर्फ इतना नहीं रह गया है कि बच्चे को अच्छा खिलाएं-पिलाएं, स्वस्थ रखें और शिक्षा दें.. बल्कि यह भी अभिभावक का दायित्व है कि,

 बच्चे को भावनात्मक रूप से मजबूत बनाएं, उसमें तर्क और विचार की क्षमता विकसित करें, उसमें मनुष्य की खाल में छुपे, भांति भांति के पशुओं, की प्रवृत्ति भाँप पाने की इंद्रिय विकसित करें.

        दुनिया प्रतिदिन बदल रही है. ताकत और अधिकार के क्षेत्र बदल रहे हैं.  इस बदलाव को हमारे बच्चे, हम-आप से अधिक जानते हैं.  लेकिन जो वह नहीं जानते हैं वह है… मनुष्य में छिपा जानवर, उसकी आदिम प्रकृति, शिकार और प्रभुत्व स्थापित करने की उसकी मूल वृत्ति.

     .. और यह वृत्ति, कभी शराफत का चोला ओढ़ कर आती है, कभी रूप की कौध बनकर, तो कभी धन की चकाचौंध के रूप में.  कभी धर्म का जामा ओढ़ कर, कभी किसी वाम या दक्षिण विचारधारा बनकर. 

       शिकारी सब ओर मौजूद हैं, अपने बच्चों को सिखाएं कि वह बचकर भी रहे, अपना विकास भी करें,  अपना जीवन भी जिएं… और इस संसार को बेहतर बनाने में अपने हिस्से का क्रिएटिव कॉन्ट्रिब्यूशन भी दें. माता पिता बन जाना बहुत जैविक बात है, अभिभावक हो पाना बड़े दायित्व की बात है.

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