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महिलाओं को कार्य पर न रखने के बारे में फॉक्सकॉन की रिपोर्ट स्तब्ध करने वाली? 

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फॉक्सकॉन के कथित रूप से विवाहित महिलाओं को कार्य पर न रखने के बारे में हालिया रिपोर्ट स्तब्ध करने वाली हो सकती है, लेकिन आश्चर्यजनक नहीं है। महिलाएं हर कहीं जानती हैं कि उनके लिए नौकरी पाना एक ऊंची और फिसलन भरी चढ़ाई की तरह है, जो उन्हें हाई हील और परफेक्ट मेकअप के साथ साथ लगातार बढ़ रहे वज़न और नाज़ुकता के बोझ के साथ तय करनी है। हालांकि, यह एक महत्वपूर्ण सच को रेखांकित करता है और एक महत्वपूर्ण सवाल भी उठाता है। सच : पूंजीवाद महिलाओं को नहीं बचाएगा। सवाल : पुरुष कब आगे आएंगे? 

पति लोग कहाँ हैं? 

रायटर्स की तहकीकात के अनुसार, एपल आपूर्तिकर्ता विवाहित महिलाओं को कार्य पर नहीं रखते क्योंकि कार्यस्थल पर उनके प्रदर्शन को “पारिवारिक जिम्मेवारियाँ, गर्भाधान और अधिक अनुपस्थिति” प्रभावित करती है। 

यह कारण जितना आमफ़हम है उतना ही गलत भी। पिछले साल सामाजिक जमावड़े में मैंने दो पुरुषों की वार्ता सुनी जिसमें वह कह रहे थे कि कैसे उनकी महिला बॉस “प्रेरक नहीं हैं” क्योंकि वह “अपना सारा समय अपने बच्चों के बारे में बातचीत में गुजारती हैं”, “जितनी जल्दी हो सके अपने कंप्युटर बंद कर घर को भागना चाहती हैं” और “अपने क्षेत्र में नई हलचल को ट्रैक करने में दिलचस्पी नहीं लेतीं।” कुछ देर बाद ही एक और बातचीत में, पता चला कि एक पुरुष अपनी पत्नी से इसलिए नाराज था कि उन्होंने उस दिन कार्य से छुट्टी नहीं ली जिस दिन उसकी मां घर आने वाली थीं। उस कमरे में किसी भी पुरुष को इसमें कोई विडंबना नहीं दिखी। 

वर्षों से, ‘प्रगतिशील पुरुष” ‘महिलाओं को कार्य करने देने’ के लिए प्रशंसा पाते रहे हैं, जबकि हमेशा से यह महिलाएं ही हैं जिन्होंने बाकी हर चीज का खयाल रखते हुए पुरुषों को कार्य करने दिया है। 

महिलाएं छुट्टी लेती हैं जब परिजन घर आते हैं, बच्चे बीमार पड़ते हैं, अभिभावक-शिक्षकों की बैठकें होती  हैं, जब बेबीसिटर छुट्टी मार लेती हैं। पुरुषों को नियमित कार्य पर जाने को और प्रभाव जमाने का मौका मिलता है। महिलाएं ऑफिस से लौटते ही खाने की तैयारी और बच्चों व वृद्ध रिश्तेदारों की देखभाल में लग जाती हैं। पुरुष, आराम करने और अपने दिमाग को तरोताजा कर अधिक ताकत और पैसे के साथ अपनी भूमिकाओं का कौशल निखारते हैं। जहां महिलाओं को शारीरिक मशक्कत नहीं भी करनी पड़े, घरेलू कार्य के लिए दूसरी महिला रखी गई हो,   वहाँ भी उनके दिमागों में घर के किसी कोने की सफाई, स्कूल में बच्चों की कोई नई परेशानी, किराने का सामान मंगाने, रिश्तेदारी के फोन आदि बातें भरी रहती हैं। उस समय पुरुष अपने नए प्रेज़न्टैशन के लिए आइडिया सोचते हैं।

अब तक तो कम्पनियों को यह पता लग जाना चाहिए था कि जो दो समान महत्वपूर्ण जिम्मेवारियाँ निभा सकती हैं वह ज्यादा  कुशल और सक्षम हैं उनके मुकाबले जिन्हें एक ही जिम्मेवारी पर फोकस करने की सुविधा हासिल हो? तो फिर, क्यों महिलाओं को बेहतर वेतन, लचीले कार्य घंटे और क्रेच जैसी सुविधाएं नहीं दी जातीं? इसीलिए क्योंकि अधिकांश निर्णयकर्ता पुरुष हैं। 

महिलाओं के लिए उचित कार्य माहौल के लिए हमें पुरुषों के लिए बड़े प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने होंगे। बच्चों और अभिभावकों की देखभाल सीखना, यह सीखना कि घर अपने आप नहीं चलते और सबसे बढ़कर यह सीखना कि यह उनका भी कार्य है। 

जब भी मैं छोटे बच्चों के पिता को कार्यालय में अतिरिक्त घंटे काम करते देखती हूँ, मैं उससे पूछना चाहती हूँ: आपको यह करने देने के लिए आपकी पत्नी ने क्या-क्या त्याग किए? 

बड़े कारोबार मेरे मसीहा नहीं 

सामाजिक बदलाव, जब भी आए, कामकाजी महिलाओं के लिए सबसे बड़ा गेम चेंजर होगा। लेकिन जब तक हम उस सुनहरी सुबह का इंतजार करें, नीति-निर्णायकों को आगे आना होगा। 

लंबे समय से, निजी कारोबारियों के कारखाने खोलने, अधिक नौकरियां पैदा करने को महिलाओं के लिए लाभकारी माना गया है। अधिक नौकरियां, बड़े कारोबारियों का यह महसूस करना कि “विविधता” एक अच्छा शब्द है, अधिक महिलाओं को कार्य मिल रहा है और “सुरक्षित आवास” और “सुरक्षित यात्रा” के लाभ मिल रहे हैं। लेकिन एक व्यवस्था जो अधिक से अधिक मुनाफा कमाने के लिए बनाई गई है इतना ही कर पाएगी और ऐसे ढांचे में, बच्चे पैदा करने और उन्हें पालने की क्षमता को कमी ही माना जाएगा। यहाँ, सरकारों, सबका कल्याण जिनकी जिम्मेवारी है, को आगे आना होगा और भेदभाव रोकने के लिए कड़े कानून बनाने होंगे। फॉक्सकॉन प्रसंग के बाद केंद्र ने महिला व पुरुषों के बीच भेदभाव प्रतिबंधित करने वाले समान वेतन अधिनियम 1976 की धारा 5 का हवाला देते हुए तमिल नाडु सरकार से रिपोर्ट मांगी है। 

कानून, जो हैं, उन्हें कमियों से मुक्त बनाना होगा और उन पर अमल को बेहतर तरीके से ट्रैक करना होगा। नए कानून कल्पनाशील होने चाहिए। एक खास उम्र की महिलाओं को कार्य नहीं दिया जाता इस डर से कि वह गर्भ धरण कर लेंगी और मातृ अवकाश पर चली जाएंगी। क्यों नहीं कानूनी, बाध्यकारी प्रावधान जोड़ा जाए समान अवधि के पितृ अवकाश के लिए? पुरुषों को घर पर रहकर मां बनी पत्नियों की मदद के लिए ताकि जब वह कार्य पर लौटें तो कम थकी हुई हों। 

महिलाओं की कार्यस्थल समस्या का समाधान अक्सर आँखों के सामने होता है, उन पर अमल करने की इच्छा ही नहीं होती। और उसके अभाव में उत्पादकता “कॉन’ (ठगी) चलती रहती है। 

तस्वीर और लेख इंडियन एक्सप्रेस से साभार।

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