शशिकांत गुप्ते
प्रकृति ने हरएक प्राणी को वाणी दी है। वाणी आवाज से समझी जाती है।
श्वान भोंकता है, गधा रेंकता है, बंदर गुर्राता है,हाथी चिंघाड़ता है, अश्व हिनहीनता है,और गाय रंभाती है। पक्षी चहचाहतें है। पक्षियों के कोलाहल को कलरव कहतें हैं। कलरव की ध्वनि कर्णप्रिय होती है।
मानव में एक महत्वपूर्ण गुण है। मानव स्वयं की आवाज के साथ पशु,पक्षियों की आवाज भी निकाल लेता है। बहुत से मानव दूसरें मानवों की हूबहू आवाज निकाल लेतें है। इसे Mimicry मतलब नकल उतारना कहतें हैं।
मानव में जब कुंठा (Frustration) जागृत होती है,तब वह अपराध बोध (Guilty feeling) से ग्रस्त हो जाता है।
अपनी अपराध बोध की मानसिकता को छिपाने के लिए मानव दूसरों पर दोषारोपण करने लगता है। दोषारोपण करते समय मानव की आवाज बढ़ जाती है।इसतरह बढ़ी हुआ आवाज को चीखना कहतें हैं।
क्रोध करते समय जोर से बोलना और चीखने में अंतर है। क्रोध में मानव तमतमा जाता है। इतना ही लिख पाया था और आगे क्या लिखूं,लेख का विस्तार कैसे करूँ सोच रहा था। उसी समय मेरे मित्र सीतारामजी का आगमन हुआ।
सीतारामजी ने मेरा लिखा हुआ पढा। सीतारामजी की विधा व्यंग की है।
सीतारामजी ने कहा अपनी स्मृति को जागृत करों और याद करों सन 1959 में प्रदर्शित फ़िल्म
लव मैरिज का ये गीत जिसे लिखा है गीतकार शैलेंद्रजी ने।
इस गीत में जो भाव प्रकट किए हैं। वे भाव आपके लेख को मुकम्मल करने में सार्थक होंगे।
टीन-कनस्तर पीट-पीटकर, गला फाड़कर चिल्लाना
यार मेरे, मत बुरा मान, ये गाना है न बजाना है
नाच के बदले कमर नचाना, उछलके सर्कस दिखलाना
भूल है तेरी, तू समझा है दुनिया पागलख़ाना है
उधर से लेकर इधर जमाकर, कब तक काम चलाओगे
किसका रहा ज़माना, एक दिन महफ़िल से उठ जाओगे
नक़ल का धँधा चल नहीं सकता, एक दिन तो पछताना है
भूल गया तू, तानसेन की तान यहींपर गूँजी थी
सुर के जादूगर बैजू की शान यहींपर गूँजी थी
मरके अमर है सहगल, उसका हर कोई दीवाना है
इस गीत के दूसरे बन्द में उधर से इधर की जगह हॉर्स ट्रेडिंग लिख देना।
गीत के आखरी बन्द में गायकों के नाम की जगह शहीदों के नाम लिख देना।
प्रबुद्ध पाठक समझ जाएंगे। कोई कितनी भी संस्कार,संस्कृति की दुहाई दे। संस्कारो को आचरण में उतारना बहुत कठिन है।
चीखना मतलब आपे से बाहर होना यह लक्षण संस्कारित व्यक्ति में कभी नहीं मिलेंगे।
राष्ट्रकवि दिनकरजी निम्न पंक्तिया प्रासंगिक हैं।
जब नाश मनुज पर छाता है,विवेक पहले ही मर जाता है।
मैने सीतारामजी से कहा मुझे भी कुछ कहना है।
मुझे शायरा डॉ नसीम निकहतजी का यह शेर मौजु लगता है।
वफादारों पे शक करना तो फिर अंजाम से डरना
वफादारी का जज़्बा बगवग छीन लेता है
शशिकांत गुप्ते इंदौर