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जी. एन. साईंबाबा : मोदी-शाह राज्य पर कोई नियम लागू नहीं होता !

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कृपा शंकर

आखिरकार सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस एम. आर. शाह और जस्टिस बेला त्रिवेदी की बेंच ने संप्रभु राज्य को कोई भी गलती की छूट दे दी. सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री ने ही दोहरा मापदंड अपनाते हुए त्रुटिपूर्ण आवेदन के आधार पर तुषार मेहता को लिस्टिंग दे दिया. इसके बावजूद कि जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ ने हाई कोर्ट के आदेश पर रोक लगाने से मना कर दिया था.

कल जब आज के लिए लिस्टिंग हुई तभी लगा कि निर्णय सरकार की मंशा की आएगी, पर कहीं मन में थोड़ी-सी उम्मीद या भ्रम बचा था कि इतनी इमरजेंसी स्थिति तो नहीं आई है. कम से कम 56 इंची मजबूत सरकार जो नक्सल आंदोलन के खात्मे का दावा करती रहती है, वह एक 90% शारीरिक अक्षमता वाले व्यक्ति के दिमाग से इतनी डरी हुई तो नहीं हो सकती और सुप्रीम कोर्ट को तो कम से कम इंटरनेशनल स्तर के न्यायिक जगत की लाज होगी ही.

पर जब आज बहस शुरू हुई और जजों का कॉमेंट आना शुरू हुआ तो निराशा होने लगी. सवाल यह है कि हाई कोर्ट ने सिर्फ सैंक्शन के आधार पर पूरी विचारण कार्रवाई को शून्य घोषित करते हुए दोषमुक्त क्यों किया ? वह मेरिट पर क्यों नहीं गया ?

हाई कोर्ट ने यूएपीए कानून में 2008 में संशोधन के तहत धारा 45(2) जोड़ने की प्रक्रिया को डिटेल में रखा है. टाडा, पोटा और जितने भी ऐसे कानून रहे उनका दुरुपयोग खूब हुआ, मौलिक अधिकारों की सुरक्षा का मामला भी उठता रहा. इन सब सवालों और सावधानियों के लिए यह संशोधन जोड़ा गया था, जिससे किसी निर्दोष या असहमति रखने वाले या राजनीतिक विरोधी को फंसाया न जा सके.

इसलिए एक बात साफ है कि यूएपीए में सैंक्शन का प्रावधान अनिवार्य और अभियुक्त के पक्ष के लिए है, न कि अभियोजन के लिए. इसे अभियोजन द्वारा पालन करना अनिवार्य है. इसके बिना अभियोजन नहीं चल सकता. इसलिए जब हाई कोर्ट ने सैंक्शन की वैधानिकता पर डिटेल बहस सुनकर यह पाया की यह अवैधानिक था तो मुकदमे के संज्ञान लेने से लेकर संपूर्ण कार्यवाही अवैधानिक होने के कारण शून्य हो गई. ऐसे में मेरिट में जाने का कोई मतलब ही नहीं रह जाता.

मुझे लगता है कि आज सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष बचाव पक्ष के विद्वान अधिवक्ता द्वारा हाई कोर्ट के मेरिट पर न जाने का बचाव करना चाहिए था कि जब संपूर्ण विचारण की कार्यवाही शून्य हो गई है तो फिर उस विचारण के दौरान आए मुद्दों पर जाने से क्या फायदा होता ? यहां वैधानिक गलती अभियोजन की तरफ से हुई थी जिसका फायदा अभियुक्त को मिलता है.

यह न्यायिक विधिशास्त्र का सिद्धांत है कि अभियोजन को सन्देह से परे अभियुक्त को दोषी ठहराना होता है. थोड़ी भी चूक या संदेह अभियुक्त को फायदा पहुंचाती है. इसलिए मुंबई हाई कोर्ट के विद्वान न्यायाधीशों ने वैधानिक रूप से शून्य विचारण की मेरिट पर कोई जिक्र नहीं किया है क्योंकि इसका कोई औचित्य नहीं था. हालांकि बचाव पक्ष के विद्वान अधिवक्ता के अनुसार हाई कोर्ट में मेरिट पर भी बचाव पक्ष ने मजबूत पक्ष रखा था और मेरिट में भी किसी अभियुक्त पर कोई आरोप नहीं बनता है.

आज सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीशों की टिप्पणी देखें –

  1. जहां तक ​​आतंकवादी या माओवादी गतिविधियों का संबंध है, मस्तिष्क अधिक खतरनाक है, प्रत्यक्ष भागीदारी आवश्यक नहीं है.
  2. गंभीर मामलों को प्रक्रियात्मक त्रुटि की बेदी पर नहीं चढ़ाया जा सकता.
  3. शुरू में त्रुटि को अभियुक्त ने क्यों नहीं उठाया जबकि उसके पास बयान के समय मौका था.

दूसरे नंबर की टिप्पणी का मतलब है कि विधायिका द्वारा अभियोजन मंजूरी के प्रावधान का कोई अर्थ नहीं जबकि हाई कोर्ट ने माना है कि इसी प्रावधान के कारण यूएपीए, पोटा और टाडा की तरह draconian (कठोर) कानून नहीं है. केरल हाई कोर्ट ने रूपेश के मामले में इस सैंक्शन के प्रावधान के पीछे की पूरी न्यायशास्त्र को बताया है कि यह मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए है. यह अभियुक्त के हित में है. इसका लाभ अभियोजन को नहीं मिल सकता, परंतु यहां सुप्रीम कोर्ट ने सैंक्शन की वैचारिक आधारभूमि को ही नष्ट कर दिया है. यदि यह बात सही है तो सैंक्शन का प्रावधान शून्य महत्व रखेगा. यह किसी डेमोक्रेटिक देश में नहीं हो सकता !

तीसरी टिप्पणी या सवाल का मामला यह है कि अभी तक देश भर में यूएपीए के जो मामले ट्रायल में छूटे हैं, उनमें ज्यादातर अभियोजन मंजूरी की वैधानिकता का मामला ही रहा है. जो अंतिम बहस और निर्णय के समय ही देखा जाता रहा है. हाई कोर्ट ने इस सवाल का जवाब दिया है कि साईंबाबा ने जमानत याचिका में यह सवाल उठाया था. व्यवहारिक प्रैक्टिस यही है कि हम अभियोजन को सतर्क न करें.

कोबाड घैंडी के मामले में यह सवाल चार्ज के समय उठा था. कोर्ट ने डिस्चार्ज कर दिया था परंतु पुनः सैंक्शन लाकर उन पर अभियोजन चलाया गया. 6 वर्षों बाद विचारण न्यायालय ने पुनः दोषमुक्त किया परंतु वे जेल में ही रहे. सुप्रीम कोर्ट यह कहना चाहता है कि सरकार तो गलती कर सकती है, आपका काम है कि उसकी गलती को बता बता कर सुधार करवाएं. इस प्रकार तो हर झूठा आरोप सही ही साबित होगा.

टिप्पणी 3 के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने गढ़चिरौली के जज और अमित शाह की सोच पर ही मुहर लगाया है. नागपुर हाई कोर्ट ने इस प्रकार के टिप्पणी की – ‘साईं बाबा का दिमाग शातिर है, विकास को अवरुद्ध किया है, मेरे हाथ कानून से बंधे हैं कि अधिकतम सजा उम्रकैद है, वरना उससे अधिक कठोर सजा देता,’ अर्थात मौत.

सो सरकार, कोर्ट सुप्रीम कोर्ट तक इतना डरा हुआ है एक 90% शारीरिक तौर पर अक्षम आदमी के दिमाग से कि उसकी मौत चाहता है. बचाव अधिवक्ता के इस सवाल के जवाब में जस्टिस शाह ने उक्त टिप्पणी की है कि ‘उनके दिमाग ने क्या कृत्य किया है ? यह अभियोजन बताने में विफल रहा है.’ इस पूरी स्थिति से यह साफ है कि भारत एक ऐसा राजतंत्र है जहां कानून सिर्फ आम लोगों के लिए है. राज्य अपने ही बनाए कानून को नहीं मानेगा और इस तरह की अवैधानिक कृत्य का लाभ भी उसे मिलेगा.

दूसरी बात यह है कि मोदी शाह की सरकार पूरे देश को झूठ बताती है कि माओवादी-नक्सलवादी आंदोलन को कुचल दिया गया है और वह कमजोर पड़ गया है. जबकि सच्चाई यह है कि माओवादी नक्सलवादी विचारधारा बहुत मजबूत है, इतना कि सरकार और उसके सभी अंग घबराए हुए हैं.

इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि इस विचार के दिमाग ने जो एक 90% अक्षम शरीर में वास करता है, वह एक आईआईटीयन बड़े अंग्रेजी पत्रकार प्रशांत राही, जेएनयू के स्कॉलर हेम मिश्रा, महेश किरकी, विजय तिर्की और पांडू नरोटे को अपना ‘फुटसोलजर’ बनाया है ! इस दिमाग वाले साईंबाबा और उनके सभी सह अभियुक्तों को लाल सलाम ! आपका मामला भारतीय न्यायिक इतिहास में दूसरा एडीएम जबलपुर मामला बन चुका है.

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