पलाश सुरजन
पिछले दिनों सावरकर के माफ़ीनामे को लेकर छिड़ी बहस के बीच किन्हीं राकेश कृष्णन सिम्हा का एक ट्वीट आया – ” व्हाट अ ब्रिलियंट ऑब्ज़र्वेशन : 54 कॉमनवेल्थ देशों में से 53 बिना किसी गांधी – नेहरु के 1946 -1956 के बीच अंग्रेज़ों से आज़ाद हो गए थे और वो भी बिना किसी बंटवारे के “। श्री सिम्हा का जो संक्षिप्त परिचय इंडिया फैक्ट्स डॉट ओ आर जी और स्वराज्य मार्ग डॉट कॉम पर मिलता है, उसके मुताबिक “वे न्यूज़ीलैंड में निवासरत पत्रकार हैं जो रक्षा और विदेश मामलों पर लिखते हैं। अनेक राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख प्रकाशित हुए हैं और अनेक राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय संगठनों- संस्थाओं में उनके काम सराहा गया है, उनके शोध पत्रों में श्री सिम्हा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है”I हालांकि बहुत ढूँढने पर भी विकिपीडिया या ऐसी ही किसी और जगह पर सिम्हा जी का परिचय नहीं मिलता, न ही भारत की नामचीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित उनके लेख के नेट पर कोई लिंक मिलते हैं। इसके पीछे के कारण सिम्हा जी ही बेहतर बता सकते हैं।
फिलहाल को मान लेते हैं कि राकेश कृष्णन सिम्हा एक विद्वान व्यक्ति हैं। उनके लेखों और ट्वीट से उनकी विचारधारा स्पष्ट हो जाती है और इसलिए यह बेहिचक कहा जा सकता है कि उनका कथन न केवल आज़ादी की लड़ाई में गांधी – नेहरु की भूमिका को, बल्कि उस पूरे दौर के इतिहास को ही नकारने की कुचेष्टा है। महात्मा गांधी हों, जवाहर लाल नेहरु हों या स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाली सारी हस्तियां – वे तमाम लोग हाड़-मांस के इंसान थे, रामायण-महाभारत जैसे किसी टीवी धारवाहिक के पात्र नहीं जो पलक झपकते उन सब जगहों पर पहुँच पाते जहाँ अंग्रेज़ों का राज था और जिसकी बिना पर यह कहा जाता था कि बरतानी साम्राज्य में सूरज कभी नहीं डूबता। भारत दो सौ सालों तक ब्रिटेन के अधीन रहा। इस दौरान असंख्य भारतीय अपने-अपने तरीके से अंग्रेज़ों से लोहा लेते रहे और बेड़ियाँ तोड़ने की कोशिश करते रहे लेकिन उनके संघर्ष को दिशा तो तभी मिली जब महात्मा गांधी भारत आए और आन्दोलन का नेतृत्व उन्होंने अपने हाथों में लिया।
सिम्हा जी एक पूरा आलेख इसी विषय पर लिखते कि आज़ादी की लड़ाई में गांधी – नेहरू की ज़रुरत क्यों नहीं थी या उनके बिना भी देश कैसे आज़ाद हो सकता था, तो बेहतर होता। वे अपनी प्रतिष्ठा के साथ न्याय करते यदि बताते कि उन देशों की परिस्थितियां क्या थीं और वे कितने समय तक गुलाम रहे। क्या ब्रिटेन ने किसी स्व प्रेरणा से उन देशों को मुक्त कर दिया था या वहां भी कोई आन्दोलन चला था और वह आन्दोलन भारत के संघर्ष से प्रेरित था या नहीं। क्या उन देशों में भी वैसी विविधता थी जैसी भारत में अभी तक है और क्या उनका आकार-प्रकार भी वैसा था जैसा हमारे देश का है। अगर गांधी – नेहरू वहां नहीं थे तो जिन्ना और सावरकर भी वहां थे या नहीं। और कुछ नहीं तो वे उन देशों की फेहरिस्त ही दे देते जिनकी बात वे अपने ट्वीट में करते हैं। लेकिन सिम्हा जी तो आईटी सेल के कारिंदे की तरह व्यवहार करके खामोश बैठ गए। उन्हें पता है कि ऐसी बेसिर-पैर की बातों पर लोग आँख मूँदकर भरोसा कर लेते हैं, उन्हें हक़ीकत से कोई वास्ता नहीं होता।
बहरहाल, सिम्हा जी और उनके अनुचरों को जान लेना चाहिए कि भले ही गांधी – नेहरू उन 53 देशों में नहीं थे, लेकिन उनके अथक संघर्ष ने पूरी दुनिया को प्रेरणा दी। दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला तो गांधी से इस कदर प्रभावित थे कि उन्हें उनके देश में महात्मा गांधी कहा जाता था। गांधी जी की तर्ज पर जूलियस न्येरेरे ने तंज़ानिया की मुक्ति के लिए अहिंसक आन्दोलन चलाया और अपने देश के राष्ट्रपिता कहलाए। अमेरिका में रंगभेद के ख़िलाफ़ लड़ाई का नेतृत्व करने वाले महान नेता मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने गांधी जी से ही प्रेरणा प्राप्त की थी। म्यांमार में लोकतंत्र की प्रबल समर्थक रहीं आंग सान सू की गांधी के विचारों से प्रभावित रहीं।अमेरिका में पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा का भी गांधी के विचारों में दृढ़ विश्वास है, जिसे वे बार-बार व्यक्त कर चुके हैं। साइप्रस के निकोसिया म्युनिसिपल पार्क में गांधी जी की मूर्ति है और वहां के संसद भवन का नाम, नेहरू जी के नाम पर रखा गया है। ऐसे अनेकानेक उदाहरण हैं, उन पर बात फिर कभी।
दरअसल, गांधी जी को भारतीय जनमानस से हटाने की शुरुआत उस दिन से हो गई थी जिस दिन उन्हें स्वच्छ भारत अभियान तक सीमित कर दिया गया था। स्वच्छता के अलावा भी गांधी जी के जो सबक थे, उन सबको किनारे कर दिया गया। नेहरू जी की छवि को तरह-तरह से धूमिल करने की कोशिशें की गईं। इसके बावज़ूद अनचाहे ही सही, गांधी जी को जब – तब सर नवाना ही पड़ता है और 15 अगस्त के भाषणों में नेहरु जी को याद करना ही पड़ता है। दुनिया में शायद ही कोई लोकतांत्रिक देश ऐसा होगा जिसका रवैया आज़ादी दिलाने और देश को सबल-सशक्त बनाने वाले अपने पुरखों के प्रति ऐसे पाखण्ड और घृणा से भरा होगा। ऐसा न हो कि आने वाले समय में इस कृतघ्नता के दुष्परिणाम हमें भुगतान पड़ें। बकौल अल्लामा इकबाल –
न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्ताँ वालोंतुम्हारी दास्ताँ तक भी न होगी दास्तानों में