तो लीजिए। गांधी की शेंविग टूल बराबर कीमत के उस नेता को गांधी के बरअक्स खड़ा करने की जीतोड़ कोशिश हो रही है। उसकी औकात, उसका वजन …60 रूपया !! 60 रूपया !! 60 रूपया !!
सुधा सिंह
जहां भीड़ भाड़, पब्लिक का हुजूम पाते, वही झोली फैलाकर दरिद्रनारायण के नाम पर चंदा मांगने से न चूकते। तो गांधी आंदोलनजीवी ही नही, परले दर्जे के चंदाखोर भी थे।
बैरिस्टर गांधी ने वकालत तो पहले ही छोड़ दी थी। दक्षिण अफ्रीका गए थे, एक मुकदमे के सिलसिले मे। क्लाइंट एक धनी मुसलमान था, उसी के घर ठहरे। आगे आने वाले दौर सार्वजनिक जीवन रमते गए, तो कमाना धमाना छूट गया।
इस दौर मे वे तमिल, पारसी, चाइनीज, इंडोनेशियन, अरब आप्रवासियों के मुद्दे उठाने लगे। तमाम धर्म, रंग, जाति के संपर्क मे आए, अनेक हृदयस्पर्शी रिश्ते बने। ये लोग गांधी को, उनके आश्रम को चंदा देने मे गर्व महसूस करते।
गांधी मांग भी लेते। इस चंदे का पूरा डिटेल हिसाब होता, यह गांधी की खासियत थी। दरिद्रनारायण के नाम पर मिला पैसा गांधी बेहद किफायत से खर्च करते। इतनी किफायत से, कि बेटे की पढाई के लिए इंग्लैण्ड जाने की जिद ठुकरा दी।
जनता का पैसा आश्रम के लिए था, गांधी के बेटे के लिए नही।
उस बेटे ने तमाम जिंदगी बाप के लिए नफरत पाले रखी।
पैसे का इस्तेमाल, यात्राओं, स्टेशनरी, पत्र संचार, आश्रम मे रहने वालो के भोजन, बेसिक नीड्स और प्राकृतिक चिकित्सा के उनके आश्रम स्थित हस्पताल मे होता।
गांधी को मिलने के लिए वाइसराय ने स्पेशल ट्रेन भेजी, तो उस तीसरे दर्जे की सारी सीटों का सरकार को पेमेंट किया। एकमात्र लग्जरी, टेलीफोन था, जो जरूरी था।और तब जियो इन्फोकाम के मोबाइल नही थे, सरकार ही टेलीफोन कनेक्शन देती थी।
कुछ दिनों से सोसल मिडिया घूम रहा है, कि गांधी को गवर्नमेण्ट ने टेलीफोन लगवा कर दिया था। आश्रम के चंदे से उसका भी बिल पटता था। यह सावरकर के पेंशन के मुकाबले खड़ा किया जा रहा है। खैर…
भारत मे, गुजरात मे आश्रम खोले। गुजराती, अपने जाति-समाज के इस महान संत को खूब चंदा देते। फिर गांधी को अस्पृश्यता मिटाने की सनक चढी, ले आए दलित परीवार … आश्रम मे रख लिया।
छिछिछि …
सेठों ने चंदा देना बंद कर दिया।
लेकिन गांधी अपनी जिद पर अड़े रहे। अंततः सेठों को बात समझ आई। धीरे धीरे लौटने लगे। लेकिन गांधी ने आने वाले समय मे फण्ड इकट्ठा करने के और तरीके निकाल लिए।
किसी भाषण मे अस्पृष्यता निवारण, महिला अधिकार, धार्मिक भाईचारे की बात करते। और सलाह देते कि इस विषय पर फलां फलां कार्यक्रम किया जाना है, आप सभी सहयोग करें।
महिलाऐं, अपने गहने दे दें, पुरूष पर्स खाली कर दें। और लोग कर भी देते।
जब पापुलर हो गए, तो नया तरीका ईजाद किया। अपनी दस्तखतशुदा तस्वीर निकालते – पूछते कितना दोगे??? पांच रूपये, दस रूपये, पचास रूपये ….
तस्वीर बेच लेते।
पर हर जगह तो गांधी लोकप्रिय हो, जरूरी नही। कही जवाहर का जलवा होता, कहीं आजाद का, कहीं सरदार पटेल का, कहीं सुभाष बोस का। जनाब उनकी भी तस्वीरें दस्तखत करके जबरन रखवा लेते, बेच देते।
और सबसे मजेदार किस्सा।
एक मौके पर गांधी ने एक शेविंग टूल उठाया, सबको दिखाया। और बोले – इस शेविंग टूल से आज सुबह मैने दाढ़ी बनाई है, बोलों कितना दोगे।
उस शेविंग टूल को 60 रूपये मिले।
तब सोने की कीमत 20 रूपये तोला थी।
इतने ही रूपये के लिए किसी और क्रांतिकारी नेता ने अपनी अस्मिता, आजादी, जुबान और जिंदगी बेच दी थी। आपका सामान्य ज्ञान जांचने के लिए पूछता हूं – उस नेता का नाम बताइये ?
क्लू चाहिए??
तो लीजिए। गांधी की शेंविग टूल बराबर कीमत के उस नेता को गांधी के बरअक्स खड़ा करने की जीतोड़ कोशिश हो रही है। उसकी औकात, उसका वजन …60 रूपया !! 60 रूपया !! 60 रूपया !!