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गौतम अडानी कमा रहे हैं. प्रति घंटा 45 करोड़…..!

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हेमन्त कुमार झा,

एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

खबर पढ़ रहा हूं कि उद्योगपति, या कहें बिजनेसमैन, गौतम अडानी की संपत्ति पिछले एक साल में लगभग दोगुनी हो गई है. एक साल पहले अडानी महाशय की नेटवर्थ जहां 58.2 अरब डॉलर थी, अब यह बढ़ कर 106 अरब डॉलर हो गई है. वे आजकल एक घंटा में 45 करोड़ रुपए कमा रहे हैं. प्रति घंटा 45 करोड़ !!!

गौतम अडानी की इस बेमिसाल आर्थिक सफलता और आमदनी का आलम तब है जब पिछले साल आई हिंडनबर्ग की रिपोर्ट ने उनके बिजनेस को चौतरफा झटका दिया था और उनके शेयरों के भाव बहुत नीचे आ गए थे. उस रिपोर्ट के बाद वे जितनी तेजी से गिरे थे उससे बहुत अधिक तेजी के साथ फिर खड़े हो गए और पहले से अधिक, खूब खूब अधिक ऊंचे भी हो गए. ऊंचाई मतलब आर्थिक साम्राज्य की ऊंचाई.

आम लोगों के दिमाग में यह रहस्य खुल ही नहीं पा रहा कि आखिर किसी खास बिजनेसमैन के बिजनेस में ऐसे कौन से सुरखाब के पर लगे हैं कि उसका साम्राज्य इतनी तेजी से बढ़ता जा रहा है. यह पहली बार नहीं है कि महज एक साल में उनके आर्थिक साम्राज्य में लगभग 82 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. सुधीजनों को स्मरण होगा कि दो साल पहले भी ऐसी सुर्खियां थी कि अडानी की पूंजी में एक साल में दोगुनी बढ़ोतरी हुई है.

आम आदमी भले ही इस बेमिसाल, बेहिंसाब आर्थिक सफलता का तकनीकी पहलू नहीं समझ सके, लेकिन मैनेजमेंट कॉलेजों के प्रोफेसर्स और शोधार्थियों के लिए तो यह दिलचस्प केस स्टडी है. उन्हें इस पर शोध करना चाहिए कि इस आर्थिक चमत्कार के पीछे के तकनीकी पहलू आखिर क्या हैं.

दिलजले तो झट से आरोप लगा देंगे मोदी जी पर कि यह सब उनके राज के सुराखों का परिणाम है, कि अडानी जी उनके मित्र हैं इसलिए सत्ता के समर्थन से दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की किए जा रहे हैं, किए ही जा रहे हैं. लेकिन, यही तो रिसर्च का टॉपिक होगा. आखिर कैसे ? आखिर कैसे किसी बिजनेसमैन की समृद्धि में इतनी तीव्रता से बढ़ोतरी हो सकती है ? हुई है, यह तो स्पष्ट है, लेकिन कैसे ?

कहा जाता है कि नवउदारवादी राजनीतिक और आर्थिक संस्कृति में ‘क्रोनी कैपिटलिज्म’ व्यवस्था की स्वाभाविक परिणति है. लेकिन, यहां तो मामला उससे भी बहुत आगे का लगता है. कनाडा के एक पत्रकार ने इसके लिए एक नायाब शब्द दिया था, ‘गैंगस्टर कैपिटलिज्म.’ क्रोनी पूंजीवाद…यानी…बोलचाल के शब्दों में कहें तो ‘याराना पूंजीवाद. लेकिन जब हम गैंगस्टर पूंजीवाद की बात करते हैं तो मामला ‘यारी’ से बहुत आगे निकलता महसूस होता है.

गैंगस्टर का सामान्य अर्थ तो सुधीजन समझते ही होंगे. अगर अडानी ब्रांड पूंजीवाद को गैंगस्टर पूंजीवाद कहा गया तो क्यों कहा गया होगा ? हमारी कंपनी को तमाम बड़े बंदरगाह चाहिए तो चाहिए, हमें तमाम हवाई अड्डे चाहिए तो चाहिए, हमें फलां क्षेत्र के खनन का स्वामित्व चाहिए तो चाहिए, हमें रेलवे स्टेशनों के स्वामित्व के पट्टे हमारी इन शर्तों पर चाहिए तो चाहिए, हमें कॉर्पोरेट टैक्सेशन में ऐसी पॉलिसी चाहिए तो चाहिए, हमें आर्थिक नीतियों में ऐसे प्रावधान चाहिए तो चाहिए, हमें श्रम कानूनों में ऐसे बदलाव चाहिए तो चाहिए…

‘चाहिए तो चाहिए’ की मुद्रा में खड़े पूंजीवाद को ही तो गैंगस्टर पूंजीवाद कहेंगे न ? फिर, साल भर में पूंजी दोहरे आकार में क्यों न बढ़े ? यहां सवाल प्रासंगिक है कि –

  1. इस एक वर्ष में मोदी राज का जयकारा लगाते मिडिल क्लास, खास कर लोअर मिडिल क्लास की आमदनी में कितनी बढ़ोतरी हुई ?
  2. उससे भी अधिक प्रासंगिक सवाल यह कि बरसों से मोदी झोला में पांच किलो फ्री अनाज पाने की लाइन में खड़े 80-85 करोड़ निर्धनों की आमदनी में कितनी बढ़ोतरी हुई.?
  3. सबसे अधिक मौजूं सवाल…कपार पर ‘जयश्री राम’ लिखी भगवा पट्टी पहने, हाथों में तलवार, डंडे आदि लिए मोटरसाइकिलों पर नारे लगाते, आम राहगीरों को भयाक्रांत करते उन लुंपेन युवाओं की आमदनी में कितनी बढ़ोतरी हुई इस दौरान ?

सटीक रिसर्च तो होने से रहा कि आखिर कैसे पूंजीपतियों का एक छोटा सा समूह महज कुछ वर्षों में अपने आर्थिक साम्राज्य को इतनी ऊंचाइयों पर ले गया. क्योंकि, अगर रिसर्च के फाइंडिंग्स सामने आए तो न जाने कितने चेहरों पर कालिख पुत जाएगी.

गहराई से विचार करें तो गैंगस्टर कैपिटलिज्म और कॉर्पोरेट नेशनलिज्म एक ही नाव पर सवार नजर आएंगे. यहां आकर महसूस होता है कि नेशन फर्स्ट, राष्ट्रप्रेम, राष्ट्र के लिए बलिदान आदि शब्द कितने घिस दिए गए कि उन पर फिसलते हुए भारतीय राजनीति आज पतन के इस मुहाने पर आ खड़ी हुई है. देश के विकास दर की चंद लोगों द्वारा ऐसी लूट क्या किसी सक्षम और सजग लोकतंत्र में संभव है ?

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