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अनावश्यक और अर्थहीन बहस है समलैंगिक विवाह

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सुधा सिंह

    हमारे सर्वोच्च न्यायालय में समलैंगिक विवाह के विषय पर प्राथमिकता के स्तर पर बहस चल रही है. नागरिकों में इस पर विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही है. कुछ बड़ी रूचि लेकर, उत्सुकता के साथ इस प्रकार के वैधता को जानना चाहते हैं. कुछ इस विषय से बिलकुल अनभिज्ञ होने के नाते पूरी तरह से उदासीन हैं. परन्तु अधिकतर लोग आश्चर्य प्रकट करते हुए यह पूछ रहे हैं कि यह क्या हो रहा है ?

      भारत जैसे देश में ऐसे निरर्थक विषय पर चर्चा, वह भी सर्वोच्च न्यायालय में जहाँ देश को दिशा देने वाले बहुत से महत्वपूर्ण विषयों पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय की प्रतीक्षा में लोग अभी तक बैठे हैं.

        अनुच्छेद 370 पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय, जो कश्मीर और भारत के भविष्य के बारे में अनिश्चितिता को समाप्त कर देगी. सिटीजन अमेंडमेंट एक्ट-2019, इलेक्टोरल बांड्स स्कीम 2018 को चुनौती देने वाली याचिका, आदि आदि के अतिरिक्त जो सबसे महत्वपूर्ण विषय है कि  सैकड़ों उन लोगो के जीवन और मृत्यु के विषय में लेने वाले मुकदमें जिसमे, उन लोगों को, जिन्हें मृत्यु दंड की सजा सुनाई जा चुकी है और वह सर्वोच्च न्यायालय के सुनवाई और निर्णय की प्रतीक्षा में, जेलों में, अपने मृत्यु कक्ष में बैठ कर अपने भविष्य की प्रतीक्षा कर रहे हैं कि वह जीवित रहे या फिर फांसी पर लटक कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर लें.

       “डेथ पेनल्टी इन इंडिया : एनुअल स्टेटिसटिक रिपोर्ट 2022 के अनुसार सन 2022 के अंत तक भारत में 539 सजायाफ्ता कैदी मौत की पंक्ति में खड़े थे. इनमें से बहुत से ऐसे कैदी थे जिनके मामले सर्वोच्च न्यायालय में लंबित हैं और वह अपने निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे हैं. सर्वोच्च न्यायलय में, भारत सरकार की ओर से समलैंगिकता के मामले की सुनवाई रोकने के लिए कई आपत्तियां की गयी जैसे कि यह न्यायालय के विषय क्षेत्र के बाहर है कि वह समलैंगिक विवाह को वैध ठहराए; यह विषय विधायिका के अधिकार सीमा के अंतर्गत आता है और वह ही इस पर निर्णय ले सकती है; इस विषय पर सभी राज्यों को भी नोटिस जारी कर उनकी भी राय लेनी चाहिए आदि आदि. परन्तु भारत के मुख्य न्यायाधीश ने इन सभी आपत्तियों को यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि केंद्र सरकार के अधिवक्ता यह नहीं कह सकते कि सर्वोच्च न्यायालय इस केस को किस तरह से सुनेगी ? ‘मैंने अपने कैरियर में यह कभी भी परमिट नहीं किया है.’

पांच जजेज के बेंच में इस मुकदमें की सुनवाई शुरू हुयी और चल रही है, जिसमें देश के नामी गिरामी अधिवक्ता अपनी अपनी बहस कर रहे हैं, जिसका सीधा प्रसारण भी किया जा रहा है. उल्लेखनीय है कि भारतीय दंड संहिता 1860 में धारा 377 एक दंडनीय अपराध है. इसकी परिभाषा अनुसार, “जो कोई किसी पुरुष, स्त्री या जीव जंतु के साथ प्रकृति की व्यवस्था के विरुद्ध  स्वेच्छया इन्द्रिय भोग करेगा, वह आजीवन कारावास से या दोनों में से किसी भांति के कारावास से, जिसकी अवधि दस वर्ष तक की हो सकती सकेगी, दण्डित किया जायेगा और जुर्माने से भी दंडनीय होगा.”

        इस अपराध को भी सर्वोच्च न्यायालय के पांच जजेज की बेंच ने 6 सितम्बर 2018 के फैसले से ‘irrational, indefensible and manifestly arbitrary’ अर्थात ‘तर्कहीन, असमर्थनीय और प्रकट रूप से मनमाना’ कह कर, अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया.

        कुछ बाते ऐसी होती है जिनकी चर्चा कम से कम की जाय या उनकी उपेक्षा की जाय तो ही समाज, देश, परिवार सभी के लिए अच्छा होता है. वैसे प्राचीन भारतीय दार्शनिक ‘वात्स्यानन’ ने अपनी विश्व प्रसिद्द पुस्तक ‘काम सूत्र’ में मनुष्य के अनियमित समलैंगिक व्यवहार ‘erratic homosexual behaviour’ पर पूरा एक भाग लिखा है. परन्तु पूर्वी सभ्यता में इस तरह के व्यवहार को कभी भी मानव इतिहास में मान्यता नहीं दी गयी है.

भारत के संविधान को लिखने के लिए पूरे देश के प्रत्येक क्षेत्र के, सभी धर्मों, सभी जातियों, सभी भाषा, सभी व्यवसाय और सभी तबकों के लोगो को जोड़ा गया था जिन्होंने कितनी मेहनत, विचार विमर्श और तर्क के उपरांत ही भारत के संविधान को लिखा. कई भागों में लिखे गए संविधान में मौलिक अधिकार जो तुरंत ही लागू होना था, उसके लिए एक अध्याय लिखा और भविष्य की योजनाओं के लिए राज्यों के निति निर्देशक सिद्धांत की भी व्याख्या की, परन्तु उनके सपने में यह भी नहीं आया होगा कि इस देश में ऐसी भी परिस्थितियां , उनके लिखे संविधान की व्याख्या कर उत्पन्न हो सकती हैं जहाँ समलैंगिकता जैसे  विषयों को कानूनी मान्यता दी जाएगी, उस पर भी बहस हो सकती है.

      समलैंगिकता एक सामाजिक कुरीति है जो शायद मानव के उत्पत्ति से ही चली आ रही है. एक आंकड़े के अनुसार 2012 में अकेले भारत में पचीस लाख व्यक्ति समलैंगिक थे जिन्होंने अपने आप  यह स्वीकार किया था. किसी भी समस्या का सामाजिक सोच अलग हो सकता है और कानूनी सोच अलग होती है.

यदि एक अच्छे खासे संख्या के लोगों में कोई अप्राकृतिक सोच पैदा हो जाय या हो तो क्या उनके सोच के आधार पर उसे कानूनी मान्यता दे दी जाय, यह एक विचार का विषय है जिस पर संसद में विचार कर कानून तो बनाया जा सकता है परन्तु एक न्यायिक निर्णय से उसे मान्यता दे दी जाय, यह भी एक गंभीर विचार का विषय है.

       पश्चिमी देशों की सभ्यता और सोच तथा भारत की सभ्यता और सोच में ज़मीन आसमान का असर है. संसार के लगभग 30 देशों में समलैंगिक विवाह को मान्यता दे दी गयी है, परन्तु वह सभी देश या तो यूरोप के हैं या अमेरिकंस हैं. मक्सिको में कहीं मान्यता है और कहीं नहीं.

       पश्चिमी सभ्यता के वो लोग, जो चार्ल्स शोभराज जैसे लोगों के साथ एशियाई देशों में मौज मस्ती के लिए आते हैं, वह यहाँ के लोगों के थोड़े अंश को प्रभावित करते हैं, और नतीजा यह होता है कि उनके प्रभाव में आये हुए नगण्य संख्या के लोग वही सोच पैदा कर लेते हैं जो उन पश्चिमी सभ्यता से आये हुए लोगों की होती है.

     क्या उन नगण्य संख्या के लोगों के बातों पर, जो बहुसंख्यक को बिलकुल भी स्वीकार नहीं है, उस पर विचार होना चाहिए ?

        महात्मा बुद्ध के ‘धम्म’ या सदाचरण की परिभाषा को क्या हम भूल सकते हैं . किसी भी व्यक्ति को किसी के पीटने की सज़ा वही होती है जो उसके द्वारा अपने माता या पिता को पीटने की होती है, परन्तु माता पिता को पीटने वाले अपराधी को अत्यंत ही हेय दृष्टि से देखा जाता है, जो अन्य व्यक्ति को पीटने के अपराध से भिन्न होता है.

      क्या आगे चल कर इस बात पर भी बहस हो सकती है कि किसी भी व्यक्ति को अपनी सगी बहन से विवाह का अधिकार हो सकता है और इसे कानूनी मायता दे दी जाय ? ऐसी कभी नौबत न आये तो ही अच्छा है.

मेरी समझ में समलैंगिकता एशियाई सभ्यता और संस्कारों के विपरीत है और पूर्वी देशों के लिए यह समय है कि ऐसे विचारों और सभ्यता, दोनों से अपने आप को दूर कर, अपने पुराने संस्कारों से जुड़े.

     सर्वोच्च न्यायालय को भी इस देश और इस देश के नागरिकों सम्बन्धी हजारो गंभीर समस्याएं हैं, उन पर ध्यान देना चाहिए. एकेडेमिक बहस के लिए न्यायालय छोड़ कर और भी बहुत से मंच हैं.

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