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बच्चियों के विकास में बाधक लैंगिक पूर्वाग्रह

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निमिषा सिंह

24 जनवरी यानि राष्ट्रीय बालिका दिवस। राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाने की शुरुआत भारत सरकार द्वारा 2009 में की गई जिसके लिए 24 जनवरी का दिन चुना गया। यकीनन इसके पीछे एक खास वजह रही थी। यही वह दिन था जब 1966 में इंदिरा गांधी ने भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली थी। समाज में बालिकाओं को उनके अधिकारों के प्रति जागरुक बनाने के लिए इस दिन को बालिका दिवस के रूप में मनाया जाता है। राष्ट्रीय बालिका दिवस का मुख्य उद्देश्य लड़कियों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना और समाज में ऐसा माहौल बनाना है जहां लड़कियां सुरक्षित रह सकें साथ ही लड़कियों और लोगों को कन्या भ्रूण हत्या और लैंगिक असमानता से लेकर यौन शोषण तक के मुद्दों के बारे में जागरूक करना है।


आमतौर पर हम भारत को एक ऐसे देश के तौर पर देखते हैं जहां लंबे समय से कन्या भ्रूण हत्याओं की वजह से लैंगिक असमानता देखने को मिलती रही है जहां प्रति 1000 पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या काफी कम है लेकिन नेशनल फैमिली एंड हेल्थ सर्वे यानी एन एफ एच एस ने जो नए आंकड़े दिखाए गए हैं वह हमारी इस सोच को पूरी तरह से बदल कर रख सकते हैं।

जी हां आज भारत में प्रति 1000 पुरुषों के मुकाबले 1020 महिलाएं हैं। हालांकि हमारे देश में महिला साक्षरता दर अभी भी 53.87% है और एक तिहाई युवा लड़कियाँ कुपोषित हैं। समाज में लैंगिक भेदभाव और स्वास्थ्य सेवाओं तक सीमित पहुंच के कारण ही प्रजनन आयु वर्ग की महिलाएं एनीमिया समेत अन्य बीमारियों से पीड़ित हैं। हालांकि महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा कई योजनाओं के माध्यम से बालिकाओं की स्थिति में सुधार के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर कई कदम उठाए गए हैं। भारत सरकार ने बालिकाओं की स्थिति को बेहतर बनाने के लिए विभिन्न योजनाओं के तहत कई कदम उठाए हैं। गर्भावस्था के दौरान लिंग परीक्षण पर पूर्णतया रोक लगा दी गई है। एक तरफ जहां लड़कियों के बाल विवाह पर भी सख्ती से रोक लगा दी गई है वहीं बेटियों को बचाने के लिए सरकार द्वारा बेटी बचाओ योजना शुरू की गई है।

भारत में 14 वर्ष की आयु तक मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक विद्यालय शिक्षा के माध्यम से बालिका शिक्षा की स्थिति में सुधार हुआ है। पिछड़े क्षेत्रों की लड़कियों की सुविधा के लिए ओपन लर्निंग सिस्टम की स्थापना भी की गई है साथ ही बालिकाओं के लिए यह घोषणा की गई है कि लड़कियों को शुरू से ही समान व्यवहार और अवसर दिए जाने चाहिए ताकि उनके लिए अवसरों का विस्तार किया जा सके। ग्रामीण क्षेत्रों की लड़कियों की आजीविका को बेहतर बनाने के लिए स्वयं सहायता समूहों को सरकार द्वारा मुख्य नीति के रूप में पेश किया गया है। यकीनन सरकार साथ ही विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं के प्रयास से बालिकाओं की शैक्षणिक और स्वास्थ्य संबंधी स्थिति में पहले से काफी सुधार आया है किंतु एक कड़वी सच्चाई यह भी है कि जनसंख्या अनुसंधान संस्थान के अनुसार, साल 1990 और साल 2018 के बीच जन्म से पहले लिंग चयन के कारण भारत में लगभग 15.8 मिलियन लड़कियां मां के गर्भ में ही मार डाली गई। हम इस बात को स्वीकार करें या नहीं, पर यह सच हैं कि हमारे समाज में आज भी लड़के के जन्म को उत्सव की तरह देखा जाता है। मैंने कम ही सुना है कि बेटी की चाह में परिवार या मां-बाप ने मंदिर-मंदिर जा कर मांगी मन्नत। आज भी हमारे परिवारों में यदि पहला बच्चा लड़का होता है तो परिवारों की ख़ुशी अलग दिखाई देती है। पहला बच्चा यदि लड़की होती है तो अधिकतर जोड़े दूसरा बच्चा ‘बेटे की चाह’ में ही करते हैं। बेटे की चाह में महिला दोबारा मां बनना चाहती है या नहीं? महिला का स्वास्थ्य और आने वाले बच्चे की देख-रेख, परवरिश और परिवार की आर्थिक स्थिति जैसी बातों को दरकिनार कर दिया जाता है।


ऐसा ही एक अजीबोगरीब मामला उत्तर प्रदेश के बदायूं जिले में देखने को मिला था जहां पांच बेटियों के एक पिता ने अपनी गर्भवती पत्नी का पेट काट दिया था। दरअसल, वह यह पता करना चाहता था कि उसकी पत्नी के गर्भ में पल रहा बच्चा बेटा है या बेटी। जो लोग कहते हैं कि अब समाज में बेटा और बेटी में कोई अंतर नहीं है। वे खुद जानते हैं कि हमारे परिवारों और समाज ने इस अंतर को, इस लैंगिक भेदभाव को कभी कम होने ही नहीं दिया। बेटे की चाह में किया गया यह अपराध लिंग भेद के साथ लड़कियों के ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा को भी साफ़ दर्शाता है। साल 2018 में भारत सरकार की रिपोर्ट में कहा गया है कि बेटा पाने की इच्छा ने 21 मिलियन लड़कियों को “अवांछित” बताया है। इस रिपोर्ट में यह भी पाया गया है कि कई जोड़े तब तक बच्चे पैदा करते रहते हैं, जब तक कि उन्हें एक लड़का नहीं पैदा होता।

लिंग आधारित भेदभाव के उदाहरण हमे अपने परिवार में ही देखने को मिल जाते हैं। अक्सर मैं खुद अपने आस-पास सुनती हूं जैसे “फलां व्यक्ति की दो बेटियां हैं, अब उसको समझ में आएगा।” क्या समझ में आएगा। दो बेटियां हैं तो अब उस ‘फलां व्यक्ति’ के लिए लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो गई है। क्योंकी बेटी होने का पहला मतलब है कि बेटी की सुरक्षा करना, समाज से उसको बचाना। साथ ही बेटी की शादी के लिए पैसे इक्कठा करना क्योंकी बेटी की पढ़ाई-लिखाई हो ना हो लेकिन उसकी शादी और दहेज़ उसके पैदा होने के वक्त से ही तय हो जाते हैं। बेटी का जन्म होते ही बेटी की शादी, दहेज़ और उसका मां बनना तय हो जाता है। बेटी खुद क्या करना चाहती है –‘शादी करना चाहती है कि नहीं, मां बनना चाहती है कि नहीं’ ये तो कोई विकल्प ही नहीं रह जाता है। बेटी होने का पहला मतलब है कि बेटी की सुरक्षा करना, समाज से उसको बचाना। साथ ही बेटी की शादी के लिए पैसे इक्कठा करना क्योंकी बेटी की पढ़ाई-लिखाई हो ना हो लेकिन उसकी शादी और दहेज़ उसके पैदा होने के वक्त से ही तय हो जाते हैं। समाज के लिए आज भी बेटी और बेटे का अंतर एक सामान्य बात है और यह दर्शाती है की पितृसत्ता में बेटे की चाह ने इंसान को क्रूर और निर्दयी बना दिया है।

पितृसत्ता के तहत बनाया गया बेटे की चाह का ढांचा और लड़कियों पर की जाने वाली हिंसा हमारे समाज में लड़कियों की स्थिति की सच्चाई को दर्शाती हैं। बेटे की चाह में लड़कियों पर होने वाली यह हिंसा इतनी व्यापक है कि अक्सर इस प्रकार की हिंसा की रिपोर्ट या आंकड़े भी मौजूद नहीं होते। आज भी कई परिवार यह मानते हैं कि बेटा ही उनकी देखभाल करेगा, सम्पत्ति की देखभाल करेगा। बेटा होना जरूरी है, बेटे को पढ़ाओ-लिखाओ, बेटा कमाएगा और जीवनभर साथ रहेगा। बेटा पराया नहीं है और बेटा कहीं नहीं जाएगा आदि। बेटियां तब तक ही माता-पिता की देखभाल करेंगी जब तक उनकी शादी नहीं हुई हो, वे अगर संपत्ति में अपना हक मांगेंगी भी तो संपत्ति लेकर अलग हो जाएंगी। बेटियों का जीवनभर साथ होना ज़रूरी नहीं हैं।

बेटियों को पढ़ाना ज़रूरी नहीं है क्योंकी बेटियों की कमाई नहीं खानी चाहिए और यदि वे कमाएंगी भी तो उनकी कमाई से माता-पिता को क्या लाभ। बेटी जीवन भर साथ नहीं रहेगी। बेटी परायी है और बेटी का दूसरे घर जाना तय है। निसंदेह जेंडर शब्द सामाजिक ढांचे में पैदा होता है। वहीं से जन्म लेता है ‘जेंडर रोल’। जेंडर रोल मतलब एक समाज की तय की गई लड़के और लड़कियों की परिभाषा और भूमिका। घर में पैसे लाने की अपेक्षा लड़कों से होती है। लड़कियों को घर के बाहर काम करने देने की आज़ादी सामान्य बात नहीं है। किसी क्लास में अगर यह आज़ादी दी जाती है तो वह बहुत सारी शर्तों के साथ आती है। लड़कों का नौकरीपेशा न होना समाज की नज़र में उसे कमतर मर्द बनाता है। जबकि लड़कियों को काम करने की इजाज़त देकर समाज का एक हिस्सा ख़ुद को प्रगतिशील मान इतराता है। भाषा के स्तर पर देखें तो जेंडर रोल बड़े व्यापक ढंग से मौजूद है। लड़कियों की तरह रोना, लडकियां चुगलखोर होती हैं, लड़कों को दर्द नहीं होता, मर्द बनो जैसे मुहावरे समाज की छोटी सोच का आईना हैं। छोटे लड़कों को शारीरिक मजबूती और हिंसक खेल ऑनलाइन या ऑफ़लाइन खेलने को प्रेरित किया जाता है। उसकी इच्छा न भी हो तो उससे मर्द बनने के परिभाषा की दुहाई देकर उस तरफ धकेलने की कोशिश होती है।

लड़कियों को गुड़िया, घर-घर खेलने की तरफ़ रूचि रखने को सिखाया जाता है और कई बार यह सब वे अपने आसपास देखकर ख़ुद उसी खांचे में ढलने की कोशिश करने लग जाती हैं। आए दिन लड़कियों के साथ हो रही अमानवीय व्यवहार की घटनाएं इस बात का सुबूत हैं कि हम भले चांद तक पहुंच चुके हैं लेकिन आज भी हम एक ऐसे समाज में रहते हैं जिसकी सोच का दायरा लड़कियों के लिए हैवानियत से भरा है। अपनी मां-बहन, बेटी, बहू को छोड़कर दूसरों की बेटी की खुली देह को बुरी नजर से घूरने और उन्हें ऊपर से नीचे तक निहारने की जैसे खुली छूट मिल चुकी हो कुछ हैवानों को।

निर्भया कांड कठुआ रेप कांड, सूरत कांड….गिनती कम होने का नाम ही नहीं ले रही। कुछ कांड तो हमें पता भी नहीं चल पाते क्योंकि वो मीडिया की खबरों में शामिल नहीं हो पाते, थाने में इनकी शिकायत तक दर्ज नहीं होती, वो जो गुमनाम लड़कियां अपना जीवन यूं ही खत्म कर देती हैं, उनका क्या? आज भी देश को आधी आबादी यानी हमारी क्षमताओं ,कड़ी मेहनत और उत्कृष्टता को पुरुषों से कमतर या सामान्यता के समान स्तर पर रखा जाता है, तो यकीनन इससे भेदभावपूर्ण जीवन वातावरण का निर्माण होता है। भेदभाव की शिकार होने वाली बच्चियों को लगातार समाज और परिवार में अयोग्य महसूस कराया जाता है जिसके परिणामस्वरूप उनमें आत्मविश्वास के स्तर का कम होना स्वाभाविक है। किशोर लड़कियां एक सबसे ‘असुरक्षित’ समूह हैं क्योंकि इस उम्र तक वे कमाना भी शुरू नहीं कर पातीं।

साथ ही, वे हमारे रूढ़िवादी भारतीय समाज के लैंगिक असमानता और बाहरी दुनिया में सामाजिक मानदंडों के साथ-साथ शारीरिक, मनोवैज्ञानिक और हार्मोनल परिवर्तनों का सामना भी कर रही होती हैं। लैंगिक असमानता और हिंसा को स्वीकार करने की प्रवृत्ति किशोर लड़कियों के खिलाफ हिंसा का मूल कारण बन जाती है। बहुत आवश्यक है समाज में मौजूद लैंगिक पूर्वाग्रहों की सोच को जड़ से उखाड़ फेका जाए ताकि हमारी बच्चियां एक सफल और स्वस्थ जीवन जी सकें और सामाजिक विकास में कदम से कदम मिलाकर चल सकें तभी उनके प्रति होने वाले भेदभाव, यौन हिंसा, घरेलू हिंसा जैसे सामाजिक अपराधों में कमी आएगी।

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