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मौजूदा ट्रैक पर, लैंगिक समानता 300 साल दूर होने का अनुमान

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शोभा शुक्ला – सीएनएस (सिटीज़न न्यूज़ सर्विस)

“एक जज का बेटा वकील है, और इस वकील का पिता एक इंस्पेक्टर है। फिर जज कौन है?” एक प्रशिक्षण कार्यशाला में जब यह सवाल पूछा गया तो कई प्रतिभागी जवाब देने में असमर्थ रहे। हमारे पित्रात्मक समाज में गहरी जड़ें जमा चुके जेंडर आधारित पूर्वाग्रह और रूढ़िवादिता के चलते शायद बहुतों ने यह सोचा तक नहीं कि एक महिला माँ के साथ-साथ जज भी हो सकती है!

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 14 अपने सभी नागरिकों को समानता के अधिकार की गारंटी देता है, चाहे उनका लिंग कुछ भी हो। संविधान पुरुषों और महिलाओं को समान अवसर और अधिकार प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त भारत में महिला अधिकारों से संबंधित कई सकारात्मक क़ानून हैं। जैसे:

– शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009, जो 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों (लड़कियों सहित) को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार की गारंटी देता है। परंतु फिर भी विश्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, 2022 में देश की कुल महिला साक्षरता दर 69% है।

– समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976 यह सुनिश्चित करता है कि पुरुषों और महिलाओं को समान काम के लिए समान वेतन मिले। हालाँकि, विश्व असमानता रिपोर्ट 2022 के अनुसार, भारत में पुरुष श्रम आय का 82% कमाते हैं, जबकि महिलाएँ 18% कमाती हैं। जुलाई 2022 और जून 2023 के बीच, एक औसत वेतन भोगी भारतीय पुरुष ने एक महीने में ₹20,666 कमाए। जबकि एक महिला ने ₹15,722 कमाए।

– घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 2005, महिलाओं को उनके पति या रिश्तेदारों द्वारा शारीरिक, भावनात्मक और मौखिक दुर्व्यवहार से कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है। लेकिन राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, 2022 में दर्ज महिलाओं के खिलाफ अपराध के 4,45,256 मामलों (जो 2021 की तुलना में 4% अधिक थे) में से पति अथवा रिश्तेदारों द्वारा घरेलू दुर्व्यवहार या क्रूरता के अपराध सबसे अधिक (31.4%) थे। इसके बाद महिलाओं का अपहरण (19.2%), महिलाओं पर यौन हमला (18.7%), और बलात्कार (7.1%) है।

और ये तो वो आंकड़े हैं जो दर्ज किये गये थे। ऐसे बहुत से मामले तो सामने नहीं आते और अनसुने रह जाते हैं।

हमें अक्सर बताया जाता है कि समय बदल रहा है और महिलाएं तथा लड़कियां अधिक संख्या में समाज में अपना उचित स्थान पाने की मांग कर रही हैं और हानिकारक सामाजिक बंधनों को तोड़ रही हैं। इस कथन में थोड़ी बहुत सच्चाई हो सकती है। लेकिन जिस धीमी गति से यह परिवर्तन हो रहा है, उसने संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस को भी हमें चेतावनी देने के लिए मजबूर किया है कि “मौजूदा ट्रैक पर, लैंगिक समानता 300 साल दूर होने का अनुमान है।”

उन्होंने यह भी कहा कि, “दुनिया भर में महिलाओं के अधिकारों का हनन और उल्लंघन किया जा रहा है।”

लैंगिक समानता का तात्पर्य यह है कि सभी वर्गों की महिलाओं, पुरुषों, लड़कों और लड़कियों को समान अधिकारों, संसाधनों और अवसरों तक समान पहुंच प्राप्त है। इसके विपरीत, पितृसत्ता एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था है जिसमें सत्ता, प्रभुत्व और विशेषाधिकार के पद मुख्य रूप से पुरुषों के पास होते हैं। इसलिए पितृसत्तात्मक समाजों में (जैसे भारत में) पुरुषों और महिलाओं के लिए सामाजिक मानदंड अक्सर बहुत भिन्न होते हैं और लैंगिक असमानताओं को जन्म देते हैं – ऐसे पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों को महिलाओं की तुलना में अधिक महत्व दिया जाता है, और उनके पास महिलाओं की तुलना में कहीं अधिक शक्ति, संसाधन, अवसर, अधिकार, विशेषाधिकार होते हैं।

एक लड़की जन्म लेने के बाद, जैसे-जैसे बड़ी होती है, हर कदम पर हानिकारक और लैंगिक सामाजिक धारणाएँ उसमें गहराई से भर दी जाती हैं (बशर्ते वह इतनी भाग्यशाली हो कि उसे जन्म से पहले या तुरंत बाद ‘मारा’ न जाए)। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व भर में कुल 14.26 करोड़ लापता महिलाओं में से लगभग एक तिहाई (4.58 करोड़) अकेले भारत में हैं, जिसका मुख्य कारण बेटे को प्राथमिकता देने के चलते जन्म से पहले और बाद में लिंग चयन की प्रथा है।

छोटी बच्चियों को खेलने के लिये गुडियाँ दी जाती है (चाहे वह साधारण रबड़ या कपड़े की गुड़िया हो अथवा आधुनिक बार्बी डॉल) ताकि वे भविष्य में उनके लिए पहले से निर्धारित देखभालकर्ता (केयर गिवर) की भूमिका के लिए तैयार हो सकें। लड़कों को आक्रामक बनाने के लिये खिलौने वाली कार/ बंदूक, और अन्य खेल उपकरण दिए जाते हैं। यहाँ तक कि जन्मदिन के तोहफे भी लिंग आधारित होते हैं – लड़कियों के लिए ‘लिप ग्लॉस’ ‘नेल पेंट’, चूड़ियाँ, तथा लड़कों के लिए बल्ला और गेंद आदि। यह सब तथाकथित प्रगतिशील और शिक्षित परिवारों (भारत के साथ-साथ पश्चिम में भी) में भी भरपूर होता है।

मैंने एक बार अपनी 17-18 वर्षीय छात्राओं से पूछा था कि क्या जिनके कोई भाई है, उन्हें कभी महसूस हुआ है कि उनके माता-पिता उनके साथ समान व्यवहार नहीं करते हैं। सभी ने कहा कि उनके परिवार में लड़का और लड़की के बीच कोई भेद भाव नहीं किया जाता, सिवाय इसके कि भाई देर शाम तक बाहर रह सकते हैं जबकि उन्हें जल्दी घर वापस आना पड़ता है। उन्होंने यह भी कहा ऐसा उनके माता-पिता उनकी सुरक्षा के के लिए ही करते है (उन्हें यह कभी नहीं लगा कि देर शाम तक घर से बाहर घूमने वाले पुरुषों के कारण ही वे असुरक्षित हैं)।

चर्चा को थोड़ा आगे बढ़ाते हुए मैंने उनसे पूछा कि अगर किसी दिन उनकी काम-वाली नहीं आती तो क्या वे घर के कामों में मदद करतीं है? इस बार जवाब सबका जवाब हाँ में था। मैंने फिर पूछा कि क्या उनके भाई भी मदद करते हैं? क्लास में सन्नाटा छा गया। एक भी लड़की ने ‘हाँ’ नहीं कहा। उन्हें इस बात का पहली बार अहसास हुआ था कि पुरुष के रूप में जन्म लेने के कारण उनके भाइयों को अनेक अधिकार और हक़ प्राप्त थे जो उन्हें नहीं थे।

यह तो एक छोटा सा उदाहरण है। पुरुषों और महिलाओं के लिए समाज द्वारा निर्धारित मानदंड प्रायः बहुत भिन्न होते हैं, और लैंगिक असमानताओं को जन्म देते हैं। महिलाओं से नम्र, आज्ञाकारी, आज्ञाकारी और ‘अच्छी’ माँ और सुघड़ गृहणी बनने की अपेक्षा की जाती है।

पुरुषों से ‘साहसी’, ‘आक्रामक’, ‘वित्त प्रबंधक’ और ‘निर्णायक’ की भूमिका निभाने की अपेक्षा की जाती है। इस तरह पुरुषों को बच्चों के पालन-पोषण और घर के कामों से आसानी से मुक्ति मिल जाती है। धन-संबंधी मामलों और संपत्ति/ भूमि-अधिकारों पर कोई नियंत्रण न होने से महिलाएं और अधिक असुरक्षित हो जाती हैं तथा पुरुष उन पर पूर्ण-अधिकार और नियंत्रण हासिल कर लेते हैं।

यद्यपि शहरी और आर्थिक रूप से संपन्न परिवारों में माता-पिता लड़कियों और लड़कों को समान गुणवत्ता वाली शिक्षा दे रहे हैं, लड़कियों को खाना बनाना सीखने और गृह कार्य में मदद करने से छूट नहीं है। दूसरी ओर लड़कों को इन सभी कामों में भाग लेने से दूर रखा जाता है।

गरीब घरों में लड़कों की शिक्षा को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि उन्हें भविष्य में रोटी कमाने के लिए तैयार किया जाता है, जबकि लड़कियों से अपेक्षा की जाती है कि वे ‘अच्छी’ पत्नी और माँ बनने के लिए शिक्षा के बजाय घर के काम को प्राथमिकता दें।

इस प्रकार बचपन से ही बेटों को बेटियों की तुलना में अधिक महत्व दिया जाता है, और उन्हें अधिक अधिकार, संसाधन और अवसर दिए जाते हैं, जो बाद में महिलाओं पर प्रभुत्व और नियंत्रण के रूप में प्रकट होते हैं। एक पति अपनी इच्छा से सेक्स की माँग कर सकता है और पत्नी से अपेक्षा की जाती है कि वह उसे संतुष्ट करे। यह भी बलात्कार है – क्योंकि विवाह या रिश्ते की स्थिति की परवाह किए बिना बिना सहमति के यौन संबंध बलात्कार है। शारीरिक स्वायत्तता का अभाव महिला को बहुत कमज़ोर बना देता है।

शादी करनी (या नहीं करनी) है, और कब करनी है, या बच्चे पैदा करने (या नहीं करने) हैं- इन अहम मुद्दों पर अपना स्वयं का निर्णय लेने के अधिकार से वंचित महिलाओं की शिक्षा और कैरियर पीछे छूट जाता है। और पुरुषों को अपनी शिक्षा और व्यवसाय को प्राथमिकता देने और घरेलू काम और बच्चे के पालन-पोषण में हिस्सा न लेने का सामाजिक लाइसेंस मिल जाता है।

नारीत्व और मातृत्व को महिमा-मंडित किया जाता है। हमने उनके लिए विशेष दिन भी निर्धारित किये हैं। लेकिन यह ज़ुबानी जमाखर्च कर के उसके निस्वार्थ प्रेम और बलिदानों की दिखावटी प्रशंसा करने के पाखंड के अलावा और कुछ भी नहीं है। उसके कार्यभार को साझा करने और उसे समान अधिकार देने के प्रयास नाम मात्र के ही हैं। जबकि सच्चा तोहफ़ा तो माँ, बहन, पत्नी के काम में भागीदारी और साझेदारी करना ही है – और वह भी किसी एक विशेष दिन या कभी-कभी नहीं, परंतु निरंतर।

परंपरागत रूप से भारत के कई राज्यों में लड़कियाँ एक ‘अच्छा’ पति पाने के लिए हर साल लगातार 16 सोमवार का व्रत रखती हैं; एक विवाहित महिला से- उसकी शैक्षिक और सामाजिक हैसियत जैसी भी हो- अपने पति की दीर्घ-आयु के लिए वर्ष में कम से कम एक दिन उपवास रखने की अपेक्षा की जाती है। समाज में पुरुषों के लिए ऐसा कोई पारस्परिक व्रत अनिवार्य नहीं है। इस व्रत से जुड़े मिथकों को खारिज करने और इसके पीछे के तर्क पर सवाल उठाने के बजाय, इस व्रत (जिसे ‘करवा चौथ’ कहा जाता है) को सुहागिनें बहुत धूमधाम से मनाती हैं। आज के समय में तो ‘शो बिजनेस’ उद्योग द्वारा भी इस ग्लैमराइज किया जा रहा है। मैं व्यक्तिगत रूप से ऐसी कई महिलाओं को जानती हूँ जो शैक्षिक और व्यावसायिक रूप से अपने पति के समकक्ष (या उनसे बढ़कर) होने पर भी, या घरेलू हिंसा का शिकार होने पर भी, यह व्रत रखती हैं।

कुछ विशेष व्रत हैं जो एक माँ से, अपने बेटे / बेटों की भलाई के लिए रखे जाने अपेक्षित होते हैं।लेकिन लड़की की सलामती के लिए कोई व्रत नहीं।

श्रम का लिंग आधारित विभाजन लड़कियों और महिलाओं को शिक्षा, ‘वर्कफोर्स’ में भागीदारी, तथा आर्थिक गतिविधियों के साथ-साथ अवकाश गतिविधियों के समान अवसरों से वंचित करता है। हम महिलाओं को ‘कामकाजी’ महिला अथवा ‘होम मेकर’ (ग्रहिणी) के वर्गों में विभाजित करते हैं। यह तो आग में घी डालने जैसा है। जो महिलाएँ अपने घरों से बाहर भी काम करती हैं वे क्या ‘होम ब्रेकर’ (घर तोड़ने वाली) हैं, और क्या जो महिलाएँ घर से बाहर जाकर वेतन कमा कर नहीं लातीं वे क्या कोई काम नहीं करती हैं?

हमारे मित्र और वरिष्ठ पत्रकार नासिरुद्दीन जी ने, काम के जेंडर आधारित बँटवारे पर एक बहुत ही दिलचस्प लेख लिखा है। अधिकांश व्यक्ति यही मानते हैं कि काम करने वाली महिलाएँ वही हैं जो घर से बाहर अपना श्रम लगा कर पैसे कमाती हैं। बच्चों के लालन-पालन समेत सभी प्रकार के घरेलू कार्य को काम नहीं माना जाता क्योंकि यह तो अवैतनिक श्रम है।

हाई प्रोफाइल नौकरियों के लिए आवेदन करने वाली महिलाओं से अक्सर पूछा जाता है कि ‘क्या उनकी शादी करने की कोई योजना है’; ‘क्या उनके बच्चे हैं’; ‘वे कार्यालय और बच्चों की देखभाल/ घर का काम कैसे प्रबंधित कर पायेंगी’; इत्यादि। क्या कभी किसी पुरुष से ये सवाल पूछे गए हैं?

ये सामाजिक रूप से स्वीकृत हानिकारक लिंग मानदंडों और सांस्कृतिक प्रथाओं के कुछ उदाहरण हैं जो गलत ढंग से लिंग असमानता को सामान्य बनाते हैं और उचित ठहराते हैं। जेंडर असमानता महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा का कारण बनती है। सामाजिक मानदंडों के अनुरूप काम करने या उनके अनुरूप बनने की कोशिश करते समय महिलाओं को भावनात्मक हिंसा का भी सामना करना पड़ता है।

हां, कुछ तथाकथित आधुनिक परिवार (पुरुष) हैं जो अपनी महिलाओं को आधुनिक कपड़े पहनने, वेतनभोगी नौकरियां लेने और कभी-कभार कुछ फुर्सत का आनंद लेने की “अनुमति” देते हैं। ऐसी महिलाओं को भाग्यशाली माना जाता है और उनसे ऐसे प्रगतिशील पति द्वारा दान में मिली इन अनुमतियों के लिए आभारी होने की उम्मीद की जाती है।

लेकिन किसी भी पुरुष को अपनी पत्नी, माँ या बहन के लिये निर्णय लेने का अधिकार कौन देता है? उन्हें किसी पुरुष द्वारा स्थापित सीमाओं के भीतर स्वतंत्र रूप से घूमने की अनुमति देने के लिए आभारी क्यों होना चाहिए? उन्हें तो अपने निर्णय स्वयं लेने का अधिकार चाहिए, ज़िम्मेदारी और समझदारी के साथ निर्बाध उड़ान भरने की स्वतंत्रता चाहिए- जिसका नियंत्रण और नकेल पुरुष के हाथ में हो ऐसी अनुमति की डोर नहीं चाहिए।

अब समय आ गया है पित्रात्मक सत्ता को प्रश्चय देने वालों से ऐसे असंख्य सवालों के जवाब माँगने का – चाहे वे हमारे- आपके पिता, भाई, बेटा और पति ही क्यों ना हों।

भारतीय महिलाओं के जीवन को उजागर करती हुई एलिसाबेथ बुमिल्लर की बहुचर्चित-विचारोत्तेजक पुस्तक ‘May you be the mother of a hundred sons’- की अगली कड़ी के रूप में, मैं कामना करती हूँ कि ‘May you be the woman you want to be in a man’s world’ (इस पुरुष प्रधान समाज में आप वह महिला बनें जो आप बनना चाहती हैं)।

शोभा शुक्ला – सीएनएस (सिटीज़न न्यूज़ सर्विस)

(शोभा शुक्ला, सीएनएस (सिटीज़न न्यूज़ सर्विस) की संस्थापिका-संपादिका हैं और लोरेटो कॉन्वेंट कॉलेज की भौतिक विज्ञान की सेवानिवृत्त शिक्षिका भी रही हैं। उनको ट्विटर पर पढ़ें: @shobha1shukla)

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