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 ग़ज़ल …

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/  आदित्य कमल

झुक के आया , सलाम करके गया
सावधान , वह अपना काम करके गया !

सरे बाज़ार खड़ा , बेच रहा था सपने
आप खोए रहे , वो सब नीलाम करके गया !

जो सब समेट चुका बाँध के झोला-झक्कड़
उठा , हँसा , और राम-राम करके गया ।

उसे आज़ादी थी ,सिल दी ज़ुबान शायर की
और अपनी ज़ुबाँ वो बेलगाम कर के गया ।

वो बोलता गया और तुम यकीन करते गए
यूँ , तेरे क़त्ल का सब इंतज़ाम करके गया !

ग़ज़ब की आग लगा दी समूची बस्ती में
खेल ही खेल में , जीना हराम करके गया ।

ये किस मदारी का है हाथसफाई का हुनर
कि एक जमूरा कारनामे तमाम करके गया ।

                    ----  आदित्य कमल
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