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वैश्विक भूख सूचकांक-नीति-निर्माताओं को गंभीरता से आकलन करने की जरूरत

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जीएचआई ने 5 वर्ष एवं उससे छोटे बच्चों के माध्यम से समूचे विश्व को आने वाले कल का आईना दिखाने की कोशिश की है, लेकिन इसके आईने में विश्वगुरु की जगह यदि भूख और कुपोषित आबादी की तस्वीर उभरेगी तो स्वाभाविक है यह किसी भी देश के कुलीन वर्ग की भावना को आहत कर सकता है

ग्लोबल हंगर इंडेक्स (वैश्विक भूख सूचकांक- जीएचआई) के आंकड़े भारत में आम लोगों तक पहुंचे नहीं, लेकिन भारत सरकार की ओर से खंडन जरूर सभी समाचारपत्रों और न्यूज़ मीडिया में छाया हुआ है। इसके पीछे की वजह कोई बेहद गुप्त बात नहीं है, क्योंकि इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि भारत की बड़ी आबादी किस हाल में रहा रही है। मुख्य वजह यह है कि पड़ोसी देश पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, भूटान और श्रीलंका कैसे भारत से बेहतर भूख से निपट सकते हैं?

विशेषकर पाकिस्तान, जिसको लेकर भारतीय उग्र-राष्ट्रवादी सोच किसी भी सूरत में भारत से आगे बढ़ी हुई स्थिति में नहीं देख सकता। वो चाहे क्रिकेट हो या भाला फेंक प्रतियोगिता। लेकिन यह तो हद हो गई कि जिस पाकिस्तान को हमारे न्यूज़ मीडिया वाले आटे की बोरी के लिए लूटमार करता आये दिन दिखाते रहते हैं, जीएचआई के ताजे सूचकांक में वह भी भारत से बेहतर स्थिति में दर्शाया गया है? निश्चित रूप से इसमें कोई बहुत बड़ी गड़बड़ी हुई है, क्योंकि धारणा का ही तो सारा खेल है।

इसलिए भारतीय समाचार पत्रों में जीएचआई की रिपोर्ट के विश्लेषण करने की नौबत ही नहीं आई। भारतीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की खबर सभी न्यूज़ पोर्टल पर प्रमुखता से प्रकाशित की गई है, जिसमें कहा गया है कि जीएचआई द्वारा जिस प्रक्रिया को अपनाया गया है, उसमें त्रुटियां हैं और बदनीयती नजर आती है।

रिपोर्ट पर टिप्पणी करते हुए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय का कहना है, “ग्लोबल हंगर इंडेक्स लगातार भूख के त्रुटिपूर्ण उपायों को अपना रहा है, और भारत की वास्तविक स्थिति इसमें परिलिक्षित नहीं होती है।” जीएचआई की रिपोर्ट में चाइल्ड वेस्टिंग के मामले में भारत की स्थिति दुनिया में 18.7% के साथ सबसे बदतर बताई गई है, जिसमें 5 वर्ष या उससे छोटे बच्चों में कद के अनुरूप वजन में कमी का आकलन किया जाता है।

भारत सरकार इसके विपरीत अपने पोषण ट्रैकर को ज्यादा सटीक मानती है, जिसके बारे में उसका दावा है कि इसमें वेस्टिंग दर 7.2% है, और पोषण ट्रैकर पर सितंबर 2023 तक 7.24 करोड़ बच्चों की प्रगति को ट्रैक किया जा रहा है, जिसे विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संगठनों द्वारा प्रशंसित किया जा चुका है।

सरकार का यह भी कहना है कि सूचकांक के लिए अपनाये गये चार में से तीन आधार बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर हैं, और इसके आधार पर समूची आबादी के स्वास्थ्य का आकलन नहीं किया जा सकता है। और चौथा एवं सबसे महत्वपूर्ण सूचक ‘आबादी के कुपोषित हिस्से’ का आधार 3,000 की संख्या वाले बेहद छोटे सैंपल साइज़ को बनाकर किया गया है।

लेकिन सवाल यह भी उठता है कि जीएचआई के पास भारत के लिए अलग और शेष विश्व के लिए अलग कार्यपद्धति नहीं है। अपने वेबसाइट में उसके द्वारा स्पष्ट घोषणा की गई है कि, ये चार संकेतक संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) की दिशा में प्रगति को मापने के लिए उपयोग किए जाने वाले संकेतक सेट का हिस्सा हैं। इसलिए समाचार पत्रों की खबर के बजाय हम सीधे आंकड़ों की पड़ताल करते हैं, और ये भी जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर किन मानदंडों पर इसे आधार बनाया गया है, और भारत का तर्क कहां तक उचित है?

ग्लोबल हंगर इंडेक्स की वेबसाइट से पता चलता है कि जर्मनी के ‘वेल्थ हंगर लाइफ’ (Welthungerhilfe) नामक एक प्रमुख निजी सहायता संगठन, जो खुद को राजनीति और धर्म से पूरी तरह से स्वतंत्र करार देता है, और 1962 से अपनी स्थापना के साथ इसने “भूख से मुक्ति अभियान” चला रखा है। एक दूसरा संगठन कंसर्न वर्ल्डवाइड है जो दुनिया के सबसे गरीब लोगों के जीवन में बदलाव लाने के लिए काम करने वाला एक अंतरराष्ट्रीय मानवतावादी संगठन है, और इन दोनों संगठनों के द्वारा संयुक्त रूप से वार्षिक ग्लोबल हंगर इंडेक्स को जारी किया जाता है।

जीएचआई को आंकने के लिए जिन चार आधार को विश्व के सभी देशों के लिए आधार बनाया जाता है, उसमें है: जरूरत से कम भोजन प्राप्त होना (undernourishment), चाइल्ड स्टंटिंग (बाल विकास की वृद्धि में रोक), चाइल्ड वेस्टिंग (बच्चे में कम वजन) और चौथा है चाइल्ड मोर्टेलिटी (बाल मृत्युदर)।

इसमें 5 वर्ष या उससे कम आयु-वर्ग के बच्चों के बीच कुपोषण और बाल मृत्यु को दो तिहाई और चाइल्ड स्टंटिंग को मिलाकर एक तिहाई स्कोर के तहत रखा गया है। इस लिहाज से जीएचआई ने 100 अंक में यदि 10 से कम अंक किसी देश के हैं तो उसे निम्न कुपोषण, 10 से 20 अंक को मध्यम और 20-35 अंक को गंभीर एवं 35-50 अंक वाले देशों को खतरनाक श्रेणी के तहत रखा है। 50 से ऊपर की भी श्रेणी है, जिसे बेहद खतरनाक श्रेणी में वर्गीकृत किया गया है।

सन 2000 से 2023 के बीच किन देशों ने भूख की चुनौती से निपटने के लिए अपने देशों में क्या प्रगति की है, को समझने के लिये ये आंकड़े बेहद जरूरी हैं। इसके साथ ही विश्व में वे कौन से क्षेत्र हैं, जहां पर कुपोषण एव भूख से जंग आज भी पहली चुनौती बनी हुई है और इसके लिए कैसे उन देशों को इसे अपनी पहली प्राथमिकता में रखने की जिम्मेदारी भी है, को यह रिपोर्ट प्रमुखता से रेखांकित करती है।

इस रिपोर्ट में अच्छी बात यह है कि 2000 में जहां कई देश रेड ज़ोन में वर्गीकृत होकर बेहद खतरनाक श्रेणी में बने हुए थे, आज 2023 में दुनिया में एक भी देश इस श्रेणी में नहीं है। उदाहरण के लिए 2000 में अफ्रीकी देश अंगोला की रैंकिंग 64.9 के साथ दुनिया में सबसे बदतर थी, लेकिन वर्ष 2015 और 2023 में 25.9 अंक के साथ आज (99) उसकी स्थिति भारत से भी बेहतर है। ऐसे कई बेहद गरीब देश हैं, जिन्होंने कुपोषण को दूर करने की दिशा में बेहद शानदार प्रगति की है, वहीं कुछ ऐसे भी देश हैं जो 2000 में बेहतर स्थिति में थे, लेकिन हाल के वर्षों में वे खराब स्थिति में चले गये हैं।

इस सूची में 127 देशों को सूचीबद्ध किया गया है। 2000 तक विकसित देशों को इसमें शामिल नहीं किया गया है, हालांकि विकासशील देशों में संभवतः आज कई देश गरीबी एवं कुपोषण के मापदंडों में इन विकसित देशों से भी अपने देश को बेहतर स्थिति में ले गये हैं। लेकिन चूंकि जीएचआई के लिये दुनिया में कुपोषण के पूर्ण खात्मे पर जोर है, इसलिए इस पर फोकस नहीं किया गया है।

जहां तक भारत का सवाल है, तो 2023 में जीएचआई की रैंकिंग में उसे 111 वां स्थान हासिल हुआ है, जो 2015 में 109वें स्थान पर था। इसका अर्थ यह नहीं है कि भारत ने कुपोषण बढ़ा है, क्योंकि 2015 में 29.2 अंक में सुधार करते हुए 2023 में 0.5 से सुधार करते हुए अब भारत कुपोषण में 28.7 अंक के साथ गंभीर श्रेणी में बना हुआ है।

लेकिन शर्मनाक स्थिति तब पता चलती है, जब सारी दुनिया के आंकड़े आपके सामने हों और फिर आप शीशे में अपने मुंह को देख सकें।

उदाहरण के लिए अंकतालिका में भारत से एक स्थान ऊपर काबिज हो चुके जांबिया की प्रगति को देखने पर पता चलता है कि 2000 में 53.2 अंक के साथ जांबिया बेहद खतरनाक श्रेणी में था, लेकिन 2008 (44.9), 2015 (33.2) और 2023 में (28.5) अंक के साथ साफ़ पता चलता है कि इस देश में कुपोषण एवं गरीबी पर शानदार काम किया गया है।

इसकी तुलना में यदि भारत के आंकड़ों पर नजर डालें तो 2000 (38.4), 2008 (35.5), 2015 (29.2) तक तो ठीक-ठाक गति से देश गरीबी और कुपोषण से लड़ रहा है, लेकिन 2023 में 28.7 अंक पिछले 8 वर्षों में मात्र 0.5 अंक की प्रगति उसे विश्व सूचकांक में पहले की अपनी स्थिति से पीछे धकेल रही है।

यही नहीं, दक्षिण एशियाई देशों में अफगानिस्तान को छोड़ बाकी सभी देश भारत से आगे हैं। इनमें श्रीलंका 13.3 अंक के साथ 60 वें स्थान पर रहते हुए खुद को 2005 से ही सामान्य वाली श्रेणी में शामिल कर चुका है। नेपाल 2005 में 37.2 अंक के साथ भारत के (38.4 अंक) के साथ-साथ चल रहा था, लेकिन 2023 तक आते-आते उसने भी 15 अंक के साथ बड़ी छलांग लगाते हुए खुद को 69वें स्थान पर ला खड़ा कर दिया है।

और तो और म्यांमार (2000 में 40.2 अंक के साथ) गंभीर श्रेणी वाले देश ने भी 72वें पायदान पर खुद को स्थापित कर सामान्य श्रेणी में बनाये रखा है। हालांकि 2015 में म्यांमार की रैंकिंग 69वें पायदान पर थी, और उसे 1.2 अंक का नुकसान उठाना पड़ा है।

बांग्लादेश ने 2000 के 33.8 अंक में गुणात्मक सुधार लाते हुए लंबी छलांग लगाते हुए 19 अंक के साथ 2023 में खुद को सामान्य की श्रेणी में ला दिया है। 2015 में 96वें स्थान से आज बांग्लादेश भी 81वें स्थान पर पहुंच चुका है। 2015 की तुलना में 7.2 अंकों के सुधार से उसने 15 पायदान की चढ़ाई चढ़ी है। लेकिन पाकिस्तान का किस्सा भारत के लिए हतप्रभ करने वाला है।

2000 में 36.7 वाले पाकिस्तान ने 2023 में कुपोषण में 26.6 अंक हासिल कर 102वां मुकाम हासिल कर लिया है। 2015 के 108वें रैंक से 102वीं रैंक के साथ पाकिस्तान में कुपोषण की दर भारत से बेहतर हो गई है। 2015 से 2023 के बीच में पाकिस्तान ने 2.2 अंक से कुपोषण को काबू करने में सफलता हासिल की है, जबकि भारत ने इस अवधि के दौरान मात्र 0.5 अंक का सुधार लाकर दक्षिण एशिया में खुद को पीछे की पांत में डाल दिया है।

हालांकि सांत्वना के लिए अफगानिस्तान है, जो आज भी भारत से पीछे है, लेकिन सभी जानते हैं कि इसके लिए उसे कोसने के बजाय हमें उन महाशक्तियों को अपराधी ठहराना चाहिए, जिन्होंने पिछले 50 वर्षों से अपनी भूराजनैतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अफगानिस्तान की धरती और वहां के लोगों को अपना बंधक बना रखा था। यही वजह है कि अफगानिस्तान भूख और कुपोषण के मामले में निचले कतार में शामिल है, और 2015 में 112 वीं रैंकिंग से गिरकर 2023 में उसे 114वें स्थान पर संतोष करना पड़ रहा है।

इस प्रकार हम पाते हैं कि भारत से भी निचले दर्जे पर जो देश रह गये हैं, उसमें अफगानिस्तान को छोड़ बाकी सभी देश अफ्रीका से हैं, जिसमें तिमुर, मोजाम्बिक, हैती, सिएरा-लियोन, लाइबेरिया, गुईना बिसाऊ, चाड, नाइजर, लेसोथो, कांगो, यमन, माडागास्कर, सोमालिया, बुरुंडी और दक्षिणी सूडान देश हैं।

भारत की तुलना में चीन किस मुकाम पर है?

वास्तव में देखें तो हमें अपनी तुलना अन्य दक्षिणी एशियाई देशों से नहीं करनी चाहिए। हाल के दिनों को छोड़ दें तो हमारे यहां ऐसा किया भी नहीं जाता था, क्योंकि क्षेत्रफल, आबादी या प्राकृतिक संसाधनों सहित हर लिहाज से बाकी के अन्य देश भारत के सामने कहीं भी नहीं ठहरते थे। पड़ोसी देशों में एकमात्र चीन ही था, जिसे सही मायने में टक्कर वाला देश कहा जाना चाहिए। दोनों देशों को स्वतंत्रता भी साथ-साथ मिली और आबादी के लिहाज से भी दोनों देश समान थे।

हालांकि भारत की तुलना में चीन की आबादी 2022 से पहले हमेशा अधिक रही है। 80 के दशक में एक बार तो भारत की जीडीपी चीन से ऊपर हो गई थी, लेकिन उसके बाद चीन ने जो रफ्तार पकड़ी है, उसने जीवन के हर क्षेत्र में भारत को मीलों पीछे दूर छोड़ दिया है और आज वह स्वयं में एक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। 2020 में चीन ने दावा किया था कि उसने अपने देश में एक्सट्रीम पावर्टी का समूल नाश कर दिया है, और अब 2035 तक उसका लक्ष्य समाज में असमानता को दूर कर एक संपन्न राष्ट्र बनाने का है।

ग्लोबल हंगर इंडेक्स में चीन को चोटी के 15 देशों की श्रेणी में रखा गया है। सन 2000 में 13.4 अंक के साथ वह पहले ही सामान्य सूची में आ चुका था, 2008 में 7.1 अंक के साथ वह निम्न कुपोषण वाले चुनिंदा देशों में खुद को शुमार कर चुका था। 2015 से 5 से भी कम अंक के साथ वह चोटी के 15 देशों में शामिल हो चुका था, और अब तो अपने नागरिकों को बुनियादी सुविधाओं के मामले में उसे कई विशेषज्ञों द्वारा अमेरिका से भी बेहतर देश माना जाने लगा है।

अफ्रीका के सहारा मरुस्थली क्षेत्र और दक्षिण एशिया में समानता

अभी तक दक्षिण एशिआई मुल्कों में यही मानकर चला जाता था कि हमसे भी खराब हालात में अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के कई मुल्क हैं। लेकिन जीएचआई की रिपोर्ट कुपोषण एवं बाल मृत्यु दर के मामले में साफ़-साफ़ दर्शा रही है कि 2000 के बाद अफ्रीका के सहारा क्षेत्र में अपेक्षाकृत तेज सुधार हुआ है, और 2023 की रिपोर्ट में दोनों क्षेत्रों का जीएचआई स्कोर 27.0 अर्थात भोजन अभी भी एक गंभीर मुद्दा बना हुआ है।

हालांकि सहारा के दक्षिण अफ़्रीका में विश्व के किसी भी क्षेत्र की तुलना में अल्पपोषण का स्तर सबसे अधिक है, जो 2010-12 में 16.8% था लेकिन वर्तमान में 21.7% तक पहुंच गया है। इस क्षेत्र में 7.4% की शिशु मृत्यु दर भी किसी भी क्षेत्र की तुलना में सर्वाधिक है।

2023 जीएचआई स्कोर के अनुसार इन दो क्षेत्रों के बाद हंगर इंडेक्स में तीसरा सबसे बड़ा क्षेत्र पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका है। 2023 जीएचआई स्कोर 11.9 के साथ, इस क्षेत्र में हंगर के स्तर को मध्यम आंका गया है।

2015 और 2023 के बीच लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई देशों का जीएचआई स्कोर घटने के बजाय बढ़ा है, जो विशेष रूप से चिंताजनक है। यह एकमात्र क्षेत्र है जिसका जीएचआई स्कोर इस अवधि में बढ़ा है।

सबसे कम जीएचआई स्कोर के मामले में यूरोप और मध्य एशिया के देश हैं, जिनका जीएचआई स्कोर 6.0 या उससे भी कम है। इस प्रकार यूरोप और चीन सहित पूर्वी और दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्र को रिपोर्ट ने सबसे बेहतर आंका है। रिपोर्ट में यहां तक कहा गया है कि जीएचआई द्वारा कवर नहीं किए गए क्षेत्रों, जैसे कि उत्तरी अमेरिका एवं यूरोप के कुछ हिस्सों में भी खाद्य असुरक्षा अभी भी एक चुनौती बनी हुई है।

रिपोर्ट में इन चारों आधार में से भारत का उल्लेख चाइल्ड वेस्टिंग में सबसे प्रमुखता से लिया गया है। बाकी मानदंडों में अफ्रीकी देशों में यह समस्या बनी हुई है। लेकिन 15-24 आयु वर्ष में महिलाओं के बीच में एनीमिया (रक्ताल्पता) की जांच में पता चलता है कि भारत में 58.1% महिलाएं आज भी एनीमिया की शिकार हैं, और यदि यही जब गर्भधारण करती हैं तो स्वाभाविक रूप से बच्चों में भी यह कमी जन्मजात होती है।

जीएचआई ने वर्ष 2030 तक विश्व में भुखमरी को पूर्ण खात्मे को लक्ष्य कर काम शुरू किया था, लेकिन अब उसका अनुमान चिंताजनक है। जीएचई के अनुसार 2030 तक 58 देश होंगे, जो चिंताजनक भूख के स्तर से low hunger वाली श्रेणी में नहीं आ सकेंगे। जीरो हंगर का लक्ष्य तो बेहद पीछे छूट चुका है। 1990 के दशक के बाद तीसरी दुनिया के देशों में भी नव-उदारवादी अर्थनीति ने समावेशी विकास की अवधारणा को पीछे छोड़ दिया है।

उसके स्थान पर अब देख रहे हैं कि कई देशों में कुछ लोग तेजी से अमीर होते जा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ बड़ी आबादी हाशिये पर डाल दी गई है। मुख्यधारा में स्थान पा चुके 10-20% के लिए ही देश की सारी नीतियां बनाई जा रही हैं, और क्रोनी कैपिटल एवं विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए लगभग सभी देशों में तेजी से श्रम कानूनों सहित वनों एवं पर्यावरण की भारी अनदेखी की जा रही है। यही वजह है कि भारत सहित अफीकी एवं लातिनी अमेरिकी देशों की स्थिति बद से बदतर होती जा रही है।

जीएचआई ने 5 वर्ष एवं उससे छोटे बच्चों के माध्यम से समूचे विश्व को आने वाले कल का आईना दिखाने की कोशिश की है, लेकिन इसके आईने में विश्वगुरु की जगह यदि भूख और कुपोषित आबादी की तस्वीर उभरेगी तो स्वाभाविक है यह किसी भी देश के कुलीन वर्ग की भावना को आहत कर सकता है।

लेकिन कल यदि हमारे पड़ोसी देश इससे सबक लेकर अपने देश के समग्र एवं समेकित विकास के लिए प्रयास करते हैं, तो निश्चित रूप से उन्हें अपने स्वस्थ्य एवं शिक्षित एवं कुशल नागरिकों की बदौलत बेहतर विकास और खुशहाली की फसल काटते देखकर हमारे लिए अफ़सोस करने के सिवाय कोई अन्य विकल्प नहीं बचेगा।

हमारे नीति-निर्माताओं को गंभीरता से आकलन करने की जरूरत है, क्योंकि हमारे पास आज भी संसाधन एवं दुनिया में सबसे बड़ी संख्या में युवा आबादी है, जिसका अधिकतम लाभ हम अगले 3-4 दशक के भीतर ही उठा सकते हैं।  

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