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ग्लोबल वार्मिंग अमीरीजनित और असर ग़रीब आबादी पर 

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 पुष्पा गुप्ता 

दशकों पहले लोग यह कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि सर्दी,गर्मी और बरसात का मौसम उनकी रोज़ी-रोटी पर संकट खड़ा कर सकता है! साँस लेने की हवा उनके फेफड़ों में ज़हर घोल सकती है और पीने का पानी उनकी जान ले सकता है! लेकिन यह हो रहा है और बहुत तेज़ गति से हो रहा है! जिसे हम आज ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन या पर्यावरणीय विनाश के रूप में देख रहे हैं, वह इसी प्रक्रिया का नाम है।

      1850 के बाद से पिछला वर्ष (2023) सबसे गर्म वर्ष घोषित हुआ था! तो वहीं इस साल गर्मियों में लू का शिकार हज़ारों की आबादी हुई। गर्मी और हीटवेव यानी लू से लाखों दिहाड़ी मज़दूरों से लेकर रेहड़ी-ठेला लगाने वाले, रिक्शा चलाने वाले, डिलिवरी (सप्लाई) का काम करने वाले हज़ारों लोगों के सामने रोज़ी-रोटी का संकट खड़ा कर दिया था!

      कुछ राज्यों में जहाँ एक तरफ लू ने लोगों की ज़िन्दगी को मुश्किल में डाल रखा था तो वहीं दूसरी तरफ पूर्वोत्तर के असम से लेकर दक्षिण के केरल में बारिश,बाढ़,अतिवृष्टि और भूस्खलन से लाखों लोगों को मौत, तबाही और  विस्थापन आदि झेलना पड़ा है। बरसात का मौसम भी पहाड़ी राज्यों से लेकर मैदानी इलाक़ों तक में कहर की तरह बरसा है। उत्तराखण्ड, हिमाचल से लेकर जम्मू-कश्मीर ,लेह-लद्दाख तक भारी बारिश भूस्खलन से सैकड़ों लोग मारे गये! लोगों के घर, खेत, फसलें, व्यवसाय आदि तबाह हो गए!

      इन प्राकृतिक आपदाओं के जो शिकार हुए हैं वह आम मेहनतकश अवाम हैं। इन आपदाओं में उन्हीं की रोज़ी-रोटी छिनी! उन्हीं का घर तबाह हुआ! वही भूस्खलन में दबे-कुचले और वही बाढ़ से विस्थापित हुए!

       कहने को तो यह प्राकृतिक आपदाएँ हैं लेकिन ये आपदाएँ प्रकृति ने नहीं बल्कि पूँजीपति वर्ग, उसके मुनाफे की अन्धी हवस और पूँजीवादी व्यवस्था की देन हैं। 

पूँजीवादी-साम्राज्यवादी मीडिया, उसके भोंपू, बहुराष्ट्रीय कम्पनियों और निगमों के टुकड़ों पर पल रहे तमाम चाटुकार बुद्धिजीवियों तक ने अपने तमाम उपाय लगाकर, ग़लत-सलत तथ्यों और उनके आधारहीन विश्लेषणों के द्वारा इस बात को भरसक छिपाने का प्रयास करते हैं कि इन आपदाओं के मूल कारक पूँजीवादी व्यवस्था पर पर्दा डालकर इसकी तोहमत या तो स्वयं प्रकृति पर या आम जनता (जिसे मानव जनित आपदा के नाम पर प्रचारित किया जाता है) पर मढ़ दिया जाये! 

     लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी आज ग्लोबल वार्मिंग और उससे पैदा हुई  पर्यावरणीय तबाही के वास्तविक कारणों को छिपा पाना बिल्कुल असम्भव हो गया है। यहाँ तक कि बहुत सारी पूँजीवादी संस्थाओं को दबी जुबान से ही सही लेकिन यह स्वीकार करना पड़ा है कि जलवायु परिवर्तन के कारण घटित होने वाली आपदाएँ पूँजीवादी व्यवस्था की अराजकता और पूँजीपतियों के मुनाफे की अन्धी हवस के कारण हो रही हैं!

     आज ग्लोबल वार्मिंग हमारी ज़िन्दगी को अप्रत्यक्ष नहीं बल्कि प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित कर रहा है। इसके प्रभाव पर बात करने से पहले ये जान लेते हैं कि ये है क्या? सीधे और आसान शब्दों में बात की जाए तो जैसे हम ठण्ड से बचने के लिए कम्बल ओढ़ते हैं, कम्बल के अन्दर गर्मी बनी रहती है, वह गर्मी को बाहर नहीं निकलने देती है, ठीक उसी तरह से पृथ्वी के वायुमण्डल में कुछ गैसें कम्बल का काम करती हैं, जो सूर्य से आने वाली गर्मी को तो पृथ्वी पर रोक देती हैं लेकिन वायुमण्डल से गर्मी को निकलने नहीं देतीं! जैसे-जैसे इन गैसों की मात्रा बढ़ती जाती है, पृथ्वी का तापमान बढ़ता जाता है।

       इन गैसों में मुख्य है कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, क्लोरोफ्लोरो कार्बन, नाइट्रस ऑक्साइड आदि! यदि यही प्रक्रिया एक हद से ज़्यादा बढ़ जाये, तो इसका विनाशकारी असर पृथ्वी पर पड़ता है। इसका प्रभाव फिर ग्लेशियरों के तेज़ी से पिघलने, सूखा, बाढ़, अतिवृष्टि, कहीं अत्यधिक गर्मी और कहीं अत्यधिक ठण्ड के रूप में देखने को मिलती है। वास्तव में, यह हद आज पूँजीवादी मुनाफ़े की हवस और लूट के कारण ही पार हो रही है। 

      इन आपदाओं को और भी विनाशकारी बनाने के लिए पूँजीपति वर्ग द्वारा अन्धाधुन्ध जंगलों की कटान से लेकर खनिजों का उत्खनन और जैविक ईंधनों का बेहिसाब दोहन तक सब शामिल है जो इस जलवायु परिवर्तन की गति को और तेज़ कर देते हैं।

पिछले वर्ष ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट ने सबको चौंकाते हुए यह आँकड़ा पेश किया कि दुनिया की सबसे अमीर एक प्रतिशत आबादी ने 2019 में उतना ही कार्बन प्रदूषण पैदा किया जितना की 5 अरब लोगों ने किया, जो मानवता की सबसे ग़रीब दो-तिहाई आबादी का हिस्सा हैं। 

     इन अमीरों द्वारा उत्सर्जित किये गये कार्बन की मात्रा के कारण 13 लाख लोगों की गर्मी से सम्बन्धित अतिरिक्त मौतें हो सकती हैं! इनमें से ज़्यादातर मौतें 2020 से 2030 के बीच होंगी। ये मौतें केवल गर्मी से होने वाले प्रभाव के कारण होंगी। इस गर्मी से पृथ्वी पर जो प्राकृतिक आपदाएँ होंगी वह अलग है!

     अब एक नज़र इस पर डालते हैं कि गर्मी का मेहनतकशों-मज़दूरों के ऊपर क्या प्रभाव पड़ता है! 

     संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक़ हर साल भीषण गर्मी के चलते दुनिया भर में करीब 2 करोड़ 30 लाख मज़दूर काम के दौरान चोटिल होते हैं। इसकी वजह से सालाना 18970 लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। वहीं 21 लाख मज़दूर किसी न किसी विकलांगता के शिकार हो जाते हैं। गर्मी से दो करोड़ से ज़्यादा  लोग किडनी से जुड़ी बीमारियों के मरीज हो जाते हैं। एक करोड़ 60 लाख मज़दूर सूर्य से आने वाले अल्ट्रावॉयलेट रेडिएशन (यूवी) के सम्पर्क में आते हैं जो कहीं ना कहीं हर साल त्वचा सम्बन्धी कैन्सर के लिए ज़िम्मेदार है। 

     सिर्फ इतना ही नहीं पूँजीपतियों के मुनाफ़े के कारखाने, जो चौबीसों घण्टे धुँआ छोड़ते रहते हैं, उस वायु प्रदूषण से हर साल 8 लाख सत्तर हजार मेहनतकश अपनी जान से हाथ धो लेते हैं। पर्यावरणीय तबाही किसानों को भी तबाह कर रही है। दुनिया भर में 87 करोड़ से ज़्यादा  किसान और खेतिहर मज़दूर कीटनाशकों के सम्पर्क में आते हैं जो हर साल 3 लाख से ज़्यादा ज़िन्दगियों को निगल रहा है। करीब 2 लाख लोग स्वच्छ पानी न मिलने के चलते हर साल अपनी जान गवाँ देते हैं। 

      जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाली प्राकृतिक आपदाओं में 1991 से अब तक विकासशील देशों में बाढ़, सूखा, अतिवृष्टि, भूस्खलन आदि से औसतन 18 करोड़ 90 लाख लोग प्रतिवर्ष प्रभावित हुए हैं। हमारे देश में पिछले कुछ सालों में हर तरह के प्रदूषण के कारण प्रतिवर्ष 25 लाख से ऊपर लोगों की मौत होती गई है।

      इन प्रदूषणों की मार सबसे अधिक ग़रीब मेहनतकश आबादी पर ही पड़ी है। क्योंकि पूँजीपति वर्ग के पास तो पानी से लेकर हवा तक को साफ करने के प्यूरीफायर मौजूद हैं! रसायन मुक्त, कीटनाशक मुक्त ऑर्गेनिक महँगा भोजन तक आसानी से उपलब्ध है! लेकिन आम मेहनतकश आबादी के पास इस तरह के न तो कोई साधन मौजूद हैं और न ही आर्थिक क्षमता है। 

      उसे तो इसी जहरीले दमघोंटू हवा में साँस लेना है! प्रदूषित पानी पीना है! तमाम रसायन और कीटनाशकों से भरा हुआ मिलावटी भोजन लेना है! इसके अलावा ग्लोबल वार्मिंग के जो दूसरे ख़तरे प्राकृतिक आपदा के रूप में आ रहे हैं उसे भी झेलना है!

वैज्ञानिकों के अनुमान के मुताबिक अगर इस पृथ्वी पर बढ़ते तापमान को रोकना है तो कार्बन उत्सर्जन कम करने के साथ ही करीब 1.6 बिलियन हेक्टेयर में नए वनों की जरूरत होगी! यह 1.6 बिलियन हेक्टेयर भारत के आकार के पाँच गुना क्षेत्र के बराबर है! लेकिन इन वनों को लगाने की बात तो दूर यहाँ तो उल्टे उनकी अन्धाधुन्ध कटाई की जा रही है! सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में! इस मामले में भी जहाँ दक्षिणपन्थी और फ़ासीवादी ताक़तों की सरकार है वहाँ पर्यावरणीय विनाश की रफ़्तार और भी तेज़ है। 

     चाहे अमेरिका में ट्रम्प का कार्यकाल हो, ऑस्ट्रेलिया में स्कॉट मॉरीसन, ब्राज़ील का पूर्व राष्ट्रपति बोल्सेनारो हो या यहाँ पर मोदी सरकार! डोनाल्ड ट्रम्प ने जहाँ जलवायु परिवर्तन की खिल्ली उड़ाते हुए इसे झूठा करार दिया था, वहीं बोल्सेनारो के कार्यकाल में धरती का फेफड़ा कहे जाने वाले अमेज़न वर्षा वनों की कटाई 175 गुना तक बढ़ गई थी! 

     भारत में भी उत्तर के हिमालय से लेकर दक्षिण तक बेइन्तहा जंगलों को काटा गया है, जिसकी कीमत आम मेहनतकश आबादी चुका ही रही है!

       पृथ्वी पर सबसे ज़्यादा  प्रदूषण फैलाने वाले उद्योगों में से एक जीवाश्म ईंधन उद्योग ने पिछले 20 वर्षों में इतना अधिक मुनाफ़ा कमाया है कि उसे जलवायु के प्रति सर्वाधिक संवेदनशील 55 देशों में जलवायु के कारण होने वाले आर्थिक नुक़सान की लागत को लगभग 60 गुना से अधिक कवर किया जा सकता है! लेकिन यह मुनाफा पृथ्वी और पर्यावरण के विनाश की क्षतिपूर्ति के लिए नहीं है! क्योंकि इस विनाश से ना तो पूँजीपति वर्ग को कुछ नुकसान होने वाला है और ना ही उसके मुनाफ़े पर कुछ असर होने वाला है! 

       यह सारा विनाश तो आम मेहनतकश अवाम को ही झेलना है। जब तक यह पूँजीवादी व्यवस्था रहेगी तब तक देश और दुनिया के मज़दूरों-मेहनतकशों को पर्यावरणीय तबाही की मार झेलनी पड़ेगी! इस तबाही से बचने का केवल और केवल एक ही विकल्प है कि इस मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था को ध्वस्त करना!

      इसके रहते किसी भी प्रकार की पर्यावरणीय तबाही को न ही रोका जा सकता है और न ही प्रकृति की असीम संसाधनों का समग्र मानव के हित में प्रयोग किया जा सकता है।

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