~ पुष्पा गुप्ता
हम सब मिल कर अपने संस्थानों का गुड़ गोबर करने में लगे रहे, लगे रहे, तब जाकर फिसड्डियों में नंबर वन बने हैं। हमें किसी ने यूं ही गोबरपट्टी के निवासी नहीं कहा। कुछ लोगों ने सघन रिसर्च और चिंतन किया होगा तभी अपनी गंभीर और महान अर्थवत्ता समेटे इस शब्द का जन्म हुआ होगा।
दुनिया तो छोड़िए, भारत के टॉप 100 कॉलेजों में भी हिन्दी पट्टी के राज्यों का एक भी कॉलेज शामिल नहीं। लिस्ट में दक्षिण के राज्यों का ही बोलबाला है, जबकि, विश्व गुरु बनने के दंभ से हिन्दी पट्टी के लोग ही चूर हैं। बस बनने ही वाले हैं। फिर तो दुनिया वाले हमसे सीखेंगे कि कैसे पढ़ना चाहिए, कैसे पढ़ाना चाहिए। दक्षिण के राज्यों में विश्वगुरु के सपने का वैसा कोई क्रेज नहीं। यूं ही हमें गोबर पट्टी नहीं कहा गया है।
हमारे नेताओं और बुद्धिजीवियों ने अपने गौरवशाली संस्थानों का गुड़ गोबर करने में जैसी मेधा का परिचय दिया है, उतनी मेधा तो ऑक्सफोर्ड और हार्वर्ड वाले अपने रिसर्चों में भी नहीं लगाते होंगे। वो अपने मोदी जी ने कहा था न कि “उनको अपने हार्वर्ड पर गर्व है, हमको अपने हार्ड वर्क पर गर्व है।” सच में, कितना हार्ड वर्क लगता होगा किसी बड़े संस्थान को कतरा कतरा बर्बाद करने में। पहले नींव खोखली करो, फिर दीवारों के पलस्तर को खुरचो, फिर कंगूरों को बदरंग करो।
इतना आसान भी नहीं है फिसड्डियों में नंबर वन बन जाना। हमारे हिन्दी पट्टी के संस्थानों के कर्णधारों ने दशकों की मेहनत की है इसके लिए। सबसे पहले तो कैंपस की नैतिक आभा नष्ट की गई।
फिर, धीरे धीरे पदों की आभा को धूमिल करने का अभियान चला। इधर कुलपति नियुक्त हुए नहीं कि उधर गलियारों में फुसफुसाती हुई चर्चाएं…”इतना दे कर आए हैं।” पता नहीं क्या सच, पता नहीं क्या झूठ। अच्छे भले, विख्यात विद्वानों ने अगर योग्यता और मेधा से भी पद हासिल किया हो तो स्टाफ रूम से लेकर कैंपस के गलियारों तक, चाय दुकानों से लेकर चंडूखानों तक यही चर्चा, “कितने में डील हुई?”
स्पष्ट कानून रहते भी वर्षों से दशकों तक कॉलेजों में प्रिंसिपल नियुक्ति की प्रक्रिया पर ताला मार कर रहना। फिर, प्रभारी प्रिंसिपल बनने-बनवाने का अजूबा मैकेनिज्म। नियम नाली में, परंपरा खंदक में। फिर, अधिकतर मामलों में पूरे मनोयोग से अपने संस्थान की शैक्षणिक नींव को कुतरते, नैतिक माहौल को नष्ट करते धंधेबाजों के गिरोह। प्राध्यापकों में सुभान अल्लाह टाइप के लोगों की पौ बारह। प्रदक्षिणा में माहिर, दक्षिणा में दक्ष लोगों की चांदी ही चांदी। युनिवर्सिटी में कोई कुछ बन जा रहा है कोई कुछ। समझ में ही नहीं आता कि युनिवर्सिटी में पदाधिकारी बनाने के लिए एक्ट और कानून में क्या निर्देश हैं और बनाए कैसे जा रहे हैं।
कुछ बन जाने के बाद बाकियों को तुच्छ समझने का प्रबल आत्मविश्वास कई पदाधिकारियों को औरों से अलग करता है। चाल में ऐंठन और चेहरे पर ओढ़ी हुई गंभीरता जर्रे जर्रे को अहसास दिलाती है कि ये अब महज गुरु जी नहीं रहे, ये तो अब साहब हैं। ये सब मिल कर सेमिनार करते हैं। बड़ी बड़ी बातें होती हैं। भारत की ज्ञान परंपरा, चिंतन की शास्त्रीय परंपरा, शिक्षा के नैतिक मूल्य आदि आदि पर अति गंभीर चर्चाएं, परिचर्चाएं, व्याख्यान आदि होते हैं। भारी भोज होता है। सुनने वाले गदगद, सुनाने वाले प्रसन्न, हासिल सिफर।
हम गोबर पट्टी हैं। हमने अपने संस्थानों का गुड़ गोबर करने में अपने देश के राज्यों को ही नहीं, दुनिया के तमाम मुल्कों को पीछे छोड़ दिया है। कांगो, बुरुंडी, मेडागास्कर जैसे विकास के मानकों पर गए गुजरे देशों में भी शिक्षा और शिक्षण की आत्मा से शायद ही ऐसा खिलवाड़ होता हो। दस दस, बारह, बारह वर्षों तक शिक्षकों की कोई बहाली नहीं। विभाग के विभाग शिक्षक विहीन। भटकते, फिर निरुत्साहित हो ट्रैक से उतरते छात्र।
वह तो भला हो हमारे संस्थानों में अनुकंपा पर नियुक्ति के नियम का, कि हर संस्थान में कुछेक वर्षों के अंतराल पर स्थायी नियुक्ति पा कर कोई एक क्लर्क, कोई एक पियून आ जाता है। वरना तीन चार दशकों से कोई स्थायी बहाली नहीं। तमाम कॉलेज आउटसोर्सिंग के भरोसे चल रहे हैं। हमारे गोबरपट्टी के संस्थानों में आउटसोर्सिंग का बड़ा बोलबाला है। दुबलाते कर्मचारी, कंपनी के पौ बारह। बेरोजगारों के शोषण की अंतहीन त्रासदी का अनैतिक आख्यान है आउटसोर्सिंग पर बहाली।
सारे ग्रह नक्षत्रों का अदभुत मिलन जब होता है, तब पढ़ने वाले साधन हीन छात्रों के करियर के सामूहिक सत्यानाश का सफल आयोजन होता है। मसलन, अधिकतर कॉलेजों में कोई छात्र विज्ञान विषय में दाखिला लेता है और अपने पूरे सत्र में बिना प्रयोगशाला सहायक का चेहरा देखे, बिना प्रयोगशाला में एक बार भी झांके साइंस का आनर्स ग्रेजुएट हो जाता है, क्योंकि तीस चालीस वर्षों से प्रयोग करवाने वालों की नियुक्तियां ही नहीं हुई। फिर, उनमें से अधिकतर ग्रेजुएट किसी काम के नहीं रह जाते हैं। कोई लाल पट्टी सिर पर बांध कर लाल सलाम करता है, कोई भगवा लपेटे जय श्री राम चिल्लाता है, कोई कोई कहीं कहीं जय भीम का जोर जोर से उच्चारण करता भी मिल जाता है।
नामचीन विश्वविद्यालयों में एक से एक मेधावी लड़के लड़कियां भी छात्र-संघ के चुनावों में भाग लेते हैं, छात्र नेता बनते हैं। हमारे गोबरपट्टी में छात्र नेता बनने की पहली शर्त्त है पढ़ने लिखने से कोई मतलब नहीं रखना, रंगबाज होना, किसी जातीय लंपट नेता का हाथ माथे पर होना आदि आदि।
जो प्राध्यापक शिक्षा परिसरों की बहती गंगा में तैरते नहीं, स्नान और आचमन आदि नहीं करते, वे धकियाए से, सकुचाए से, निरीह मुद्रा में अपनी ड्यूटी बजाते, अपनी नौकरी करते टाइम काटते हैं। प्रतिरोध और विवाद के किसी भी “लफड़े” से खुद को बचाते, कि कहीं इधर, उधर उठा कर फेंक न दिए जाएं। उनका घोर आत्म संकेंद्रण, घनघोर परहेजीपन उन्हें नपुंसक तटस्थता की लिजलिजी चादर से ढक देता है। उनके व्यक्तित्व से आत्मबल और आत्मविश्वास धीरे धीरे विदा लेने लगता है। उनके साथी, सहकर्मी उनका परिचय सहानुभूति भरे शब्दों में देते हैं,…”बेचारे अच्छे आदमी हैं, लाई लपट से दूर बेचारे पढ़ने लिखने वाले आदमी हैं।”
हमारे गोबर पट्टी में अपने आत्मसम्मान के लिए उठ खड़े होने को “लाई लपट में पड़ना” माना जाता है। इस “लाई लपट” में पड़े नहीं कि संस्थानिक प्रताड़नाओं का कोहरा कभी भी घेर सकता है। फिर तो मित्र, साथी लोग अलग कोसेंगे कि आत्मसम्मान लेकर चाटोगे क्या, मन और माथा समेट कर जीना सीखो। घर में पिता, भाई अलग डांटेंगे, पत्नी की झाड़ पड़ेगी सो अलग। तो, गोबरपट्टी के अधिकांश शिक्षक आत्मबल हीन, आत्मविश्वास से हीन, “बेचारे अच्छे आदमी” टाइप बन कर रह जाते हैं।
हमारे गोबरपट्टी में लोग मुखिया, वार्ड सदस्य आदि के चुनाव में प्रबल जागरूकता का परिचय देते हैं, राजनीति को इतनी गंभीरता से लेते हैं कि दक्षिण भारत तो क्या, महान लोकतंत्र ब्रिटेन और अमेरिका के लोग भी हमारे सामने पानी भरें। लेकिन जब बात शिक्षण संस्थानों से आम लोगों के मानस के जुड़ाव की आती है तो,…”सब मस्टरवन काहिल है, सब प्रोफेसरवन भागल रहता है, सब अफसरवन चोर है” जैसे सुभाषित वाक्यों के अलावा किसी को कोई मतलब नहीं। उनके माइंडसेट में ऐसे भ्रामक अर्द्धसत्य सेट हैं। उनके बच्चों को नकल की छूट दो तो जिंदाबाद, नकल न करने दो तो रोड़ा पत्थर। प्रैक्टिकल, वाइवा आदि में विधायक, सांसद तक की पैरवी ले आएंगे। बड़े जागरूक लोग हैं। बेटा गोबर बन गया यह चिंता नहीं, बस प्रैक्टिकल में नंबर चाहिए।
हम गोबरपट्टी के लोग हैं। देश की राजनीति की दशा और दिशा तय करने वाले। बड़ी बड़ी चिंताएं हैं हमारी। हममें से कुछ लोगों को सामाजिक न्याय ऐसा हासिल करना है कि अस्सी प्रतिशत आरक्षण ले कर ही मानना है, कुछ को ऐसा हिंदू राष्ट्र बनाना है जहां वंदे मातरम बोलना मस्ट हो जाएगा, वरना पाकिस्तान का टिकट काट दिया जाएगा, कुछ अपने को मूल निवासी माने बैठे हैं और अक्सर उन पर खब्त सवार हो जाता है कि बाकी बाहरियों को मध्य एशिया में भेज देना है जहां से तीन हजार साल पहले उनके आने की बात कुछ इतिहासकार करते हैं। बड़ी बड़ी चुनौतियां, बड़ी बड़ी चिंताएं। कॉलेजों, स्कूलों की कौन सोचे!