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*स्वयं के प्रति भी जरूरी है सद्व्यवहार*

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     ~ राजेंद्र शुक्ला

       दुर्व्यवहार किसी के साथ भी क्यों न हो, वह बुरा होता है और उसके बुरे परिणाम भुगतने पड़ते हैं। बुरा व्यवहार करने वाला व्यक्ति लोगों की दृष्टि में गिरता है, अपमान का भागी बनता है और जन-सहयोग से वंचित रह जाता है।

       दूसरों के प्रति दुर्व्यवहार की हानियांँ प्रत्यक्ष दिखाई देती है इसलिए लोग स्वार्थवश ही सही यथासंभव दूसरों के साथ अच्छा व्यवहार करने की चेष्टा करते हैं और उस चेष्टा में यथासंभव सफल भी होते हैं।

       इस सन्दर्भ में अपने प्रति कैसा व्यवहार किया जा रहा है? यह शायद ही कभी सोचा जाता है, जबकि तथ्य है कि मनुष्य सबसे ज्यादा निष्ठुर और सबसे अधिक दुष्टतापूर्ण व्यवहार करता है तो स्वयं अपने से ही। अपने प्रति दुर्व्यवहार के ऐसे अनेकों उदाहरण देखने में आते हैं, जिन पर गंभीरतापूर्वक विचार किया जाय, तो प्रतीत होता कि हम अपने प्रति ही सबसे अधिक निष्ठुर या क्रूर हैं। 

      जाने-अनजाने लोग अपने आप के प्रति ऐसा व्यवहार करते हैं, कि उनके प्रयत्न आत्मघाती सिद्ध होते हैं। उदाहरण के लिए आहार ग्रहण और शक्ति संचय की प्रवृत्ति को ही लिया जाय। भोजन इसलिए किया जाता है कि प्रतिदिन के कार्यों में खर्च होने वाली शक्ति के पुनः उत्पादन का क्रम चलता रहे।

       इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए आहार की व्यवस्था की जाती है और उसे इसलिए स्वादिष्ट बनाया जाता है, कि भोजन करना एक अरुचिपूर्ण कार्य न रहे। उसे ग्रहण करने में भी रस मिलता रहे। यहांँ तक तो बात समझ में आती है, किन्तु स्वादों का इतना दीवाना हो जाता है कि भोजन करते समय उसे अपनी पाचन शक्ति, शरीर की आवश्यकता और पौष्टिकता का ध्यान ही नहीं रहता। यहाँ तक कि वह केवल स्वाद के लिए ही भोजन करता है।

       आहार में इस असंयम अस्त-व्यस्तता का ही परिणाम यह होता है कि मनुष्य रोगी बनता है। सामान्यतः 80% रोग इसलिए होते हैं कि आहार ग्रहण संबंधी आवश्यक बातों का ध्यान नहीं रखा जाता ।स्वाद लिप्सा के वशीभूत होकर भोजन इतना अधिक कर लिया जाता है कि पेट और पाचन तन्त्र पर अनावश्यक अतिरिक्त भार उत्पन्न कर देता है।

       वह शक्ति जो शरीर संचालन और पोषण में लगानी चाहिए थी, उस भोजन को पचाने में खपती है। फलत: अनेकानेक विकृतियांँ उत्पन्न होती है। स्वास्थ्य लक्षण के लिए दूसरों को आहार संयम के उपदेश तो बहुत दिए जाते हैं, पर यह सत्परामर्श अपने संबंध में कितना लागू किया जाता है या लागू होता है, यह कहने बताने की आवश्यकता नहीं है।

       ऐसी न जाने कितनी मूढ़ताएँ हैं जो स्वयं के साथ की जाती है। मूढ़ता कहना भी तो तब उचित होगा, जब उन बातों का ज्ञान न हो लेकिन उन सावधानियों, आवश्यक बातों को जानने-बूझते भी लोग उनका ध्यान नहीं रखते, पालन नहीं करते, तो उसे क्या कहा जाएगा?

       यदि कहा जाए कि अधिकांँश व्यक्ति रोगी, दुःखी और शोकग्रस्त इसलिए रहते हैं और वे ऐसा ही रहना चाहते हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगा।  जान-बूझकर की गई अनियमितता दुर्व्यवहार की श्रेणी में ही रखी जाएगी।

       दुर्व्यवहार तो दुर्व्यवहार ही है। वह किसके प्रति किया गया, इससे भी ज्यादा प्रमुख है, उसका किया जाना। उसके दुष्परिणाम तो भुगतने ही पड़ेंगे। जबकि व्यक्ति दूसरों के साथ दुर्व्यवहार करता है, तो वह समाज की दृष्टि में अपराध कहलाता है और अपने प्रति किया गया तो ईश्वर की दृष्टि से भी गंभीरतम अपराध बन जाता है।

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