मथुरा से 21 किमी और वृंदावन से 23 किमी की दूरी पर गोवर्धन पर्वत मौजूद है। यहां दीपावली के 3 दिन पहले से ही भक्तों की भीड़ उमड़ने लगती है। भंडारे लगने लगते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि दीपावली के अगले ही दिन यानी आज यहां गिरिराज की खास पूजा की जाती है।
गोवर्धन पूजा का त्यौहार पूरे देश में मनाया जाता है। लोग अपने घरों के बाहर गाय के गोबर से गोवर्धन की आकृति बना कर सांकेतिक रूप से गोवर्धन पूजा करते हैं। लेकिन गोवर्धन पर्वत की पूजा में क्या अलग है? यहां की परिक्रमा का इतना महत्व क्यों है? इंद्र ने इसकी दंडवत यानी लेट कर परिक्रमा क्यों की थी? 102 किमी में फैला गोवर्धन 8 किमी में कैसे सिमट गया?
ब्रज में भी बनते हैं गोबर के गिरिराज, आकार बड़ा होता है
ब्रज मंडल यानी मथुरा जिले में गोवर्धन पर्वत पर गोवर्धन गांव बसा हुआ है। सड़कें बनी हुई हैं, गाड़ी-वाहन चलते हैं। यहां से 20 किमी आगे जाएंगे तो बरसाना और फिर नंद गांव मिलेगा। गोवर्धन पूजा के दिन सुबह-सुबह यहां के लोग घरों के बाहर गाय के गोबर से गोवर्धन पर्वत की एक बड़ी आकृति बनाते हैं। विशेष पूजा के बाद उन्हें अन्नकूट यानी नए अनाज से बने 56 व्यंजनों का भोग लगाते हैं।
पूरा दिन उत्साह में बीतता है। फिर शाम के वक्त सभी लोग असल गोवर्धन पर्वत की पूजा में हिस्सा लेने पहुंचते हैं। गोवर्धन पर्वत पर मौजूद दान घाटी मंदिर के महंत पवन जी ने बताया, “गोवर्धन पर्वत 7 कोस यानी 21 किमी में फैला है इसलिए लोग गोवर्धन परिक्रमा में मौजूद 3 प्रमुख मंदिरों में होती है। इन मंदिरों में भगवान श्रीकृष्ण को शिला रूप में पूजा जाता है।”
- आइए, उन 3 प्रमुख मंदिरों से जुड़ी कहानी जानते हैं…
1. दान घाटी:
आधिकारिक तौर पर परिक्रमा शुरुआत यहीं से होती है। द्वापर युग में बरसाने की गोपियां माखन लेकर मथुरा जाया करती थीं। ये माखन कंस के लिए जाता था। श्रीकृष्ण को ये पसंद नहीं था। वो पर्वत की इसी जगह पर गोपियों की मटकियां तोड़ा करते थे और उनका माखन खा जाया करते थे। तब से इस जगह का नाम दान घाटी पड़ा दान घाटी मंदिर के अंदर मुख्य तौर पर गोवर्धन शिला की पूजा होती है।
2. जतीपुरा मुखारबिंद: ये मंदिर दान घाटी मंदिर से 9 किमि दूर पर्वत के बीच वाले हिस्से में मौजूद है। द्वापर में ब्रज के लोग अच्छी खेती के लिए इंद्र की पूजा किया करते थे। अनाज का चढ़ावा चढ़ाते थे। कृष्ण ने ब्रज वासियों से कहा- इंद्र भगवान नहीं, उसकी पूजा का कोई फल नहीं। आपको उसकी जगह भगवान विष्णु के हृदय से जन्मे गोवर्धन पर्वत की पूजा करनी चाहिए।
कृष्ण की बात मानकर सभी ने मिलकर गोवर्धन पूजा की। जब ये बात इंद्र को पता चली तो उसने सबसे खतरनाक बादल सांवर्तक को ब्रज पर बरसने के लिए कहा। ये बादल प्रलय के वक्त बरसता है। सांवर्तक ने काम शुरू कर दिया। ब्रज में उथल-पुथल मच गई। लोग भागते हुए कृष्ण के पिता नंद बाबा के पास गए। बिना देरी किए कृष्ण गोवर्धन पर्वत पर पहुंच गए।जतीपुरा मुखारबिंद मंदिर में शिला को गाय के दूध से नहलाया जाता है। फिर इसका श्रंगार किया जाता है।
7 साल के कृष्ण ने गोवर्धन को अपने दाएं हाथ की छोटी उंगली पर उठा लिया। सभी बृज वासी इस पर्वत के नीचे आ गए। शेषनाग पर्वत के चारों तरफ मेड़ बनकर बैठ गए। कृष्ण का सुदर्शन चारों तरफ का पानी सोकने लगा। हफ्ते भर बाद इंद्र ने अपना वज्र चलाने की कोशिश की लेकिन कृष्ण ने वज्र सहित उसका पूरा हाथ लकवा ग्रस्थ कर दिया। बारिश बंद हुई फिर सभी सुरक्षित बाहर आए। जतीपुरा वाला मंदिर वही जगह है जहां कृष्ण ने ये लीला की थी।
3. मानसी गंगा: ये कुंड और मंदिर परिक्रमा समाप्ति से 2 किमी पहले मौजूद है। जब इंद्र को पता चला कि श्रीकृष्ण भगवान विष्णु का अवतार हैं। तब इंद्र उनसे क्षमा मांगने आए। अपने साथ सुरभी गाय, ऐरावत हाथी और आकाशगंगा से मानसी गंगा लेकर आए। कृष्ण से क्षमा मांगी। ऐरावत हाथी ने गंगा और गाय का दूध अपनी सूंड में भर कर भगवान का अभिषेक किया। तभी इंद्र ने गोवर्धन की दंडवत परिक्रमा भी की थी। मानसी गंगा और हरिहर मंदिर तब से ही यहां मौजूद हैं।
मानसी गंगा पर हरिहर मंदिर बना हुआ है। मान्यता है कि जब तक यहां के दर्शन ना करो परिक्रमा पूरी नहीं मानी जाती।
पर्वत पर मौजूद दान घाटी मंदिर के महंत पवन जी ने बताया, “दीपावली के अगले दिन इन मंदिरों में सुबह-सुबह ठाकुर जी को जगाया जाता है। फिर पंचामृत यानी दूध, दही, घी, शहद और शक्कर से उनको स्नान कराया जाता है। इत्र से मालिश की जाती है। फूल,माला और हार चढ़ाया जाता है। शाम को विशेष तौर पर शिला रूपी भगवान को अन्नकूट का भोग लगाया जाता है।
पहली परिक्रमा कृष्ण ने की, अब हर दिन 2 हजार लोग करते हैं
द्वापर में यदुवंशियों के गुरू महामुनि गर्ग ने अपनी संहिता में लिखा है, “जब पहली बार गोवर्धन पूजा हुई थी तब इसकी पहली परिक्रमा श्री कृष्ण ने की थी। उनके पीछे पूरा ब्रज था। गोवर्धन श्री कृष्ण का ही रूप हैं। गोवर्धन की परिक्रमा करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इसकी एक शिला के दर्शन करने से व्यक्ति का दोबारा धरती पर जन्म नहीं होता। उसे मोक्ष मिल जाता है।”
कृष्ण के समय से लेकर आज तक भक्त लगातार गोवर्धन की परिक्रमा करते आ रहे हैं। महंत पवन जी ने बताया, “पूर्णमासी के दिन गोवर्धन की परिक्रमा का विशेष महत्व है। उस दिन 20 हजार से ज्यादा भक्त परिक्रमा करते हैं। आम दिनों में करीब 2 हजार लोग हर दिन गोवर्धन परिक्रमा करते हैं। इन लोगों में बड़े नेता, अधिकारी-कर्मचारी, जर्मनी, यूक्रेन और जापान तक के भक्त शामिल होते हैं। बहुत से भक्त दंडवत होकर यानी पूरी परिक्रमा लेट कर करते है।”
हमने भी परिक्रमा कर रहे लोगों से बात की। दंडवत परिक्रमा लगा रहे राजस्थान के एक सरकारी शिक्षक ने कहा, “मैं 5वीं बार परिक्रमा लगा रहा हूं। मेरी कोई मनोकामना नहीं।” रेलवे में नौकरी कर रहे उन्हीं के भतीजे ने कहा, “ये मेरी तीसरी परिक्रमा है। हमारा पूरा परिवार कृष्ण भक्त है।” परिक्रमा लगा रहे मथुरा के कन्हैया ने कहा, “कृष्ण की कृपा से मैने 16 लाख का प्लाट ले लिया।” हमने और भी कई लोगों से बात की देखने के लिए ऊपर लगे वीडियो पर जाएं।
- अब गर्ग संहिता शास्त्र और गोवर्धन मे रह रहे संतों की जुबानी गिरिराज की कहानी
राधा के कहने पर कृष्ण ने सीने से पैदा किया गोवर्धन
द्वापर युग। धरती पर जन्म लेने से पहले गौ लोक में राधा ने कृष्ण से कहा, “मुझे कोई ऐसी जगह चाहिए जहां शांति हो। हम एकांत में रास कर सकें। कृष्ण ने अपने सीने यानी हृदय की तरफ देखा। वहां से एक तेज पैदा हुआ और फिर उससे गोवर्धन पर्वत। प्रकृति की ऐसी कोई सुंदरता नहीं बची थी जो उस पर्वत पर मौजूद ना हो। राधा उस पर्वत को देख बेहद प्रसन्न हुईं।
5 किमी की छोटी परिक्रमा पूरी करने के बाद राधा कुंड मिलता है। राधा कुंड से जुड़ा हुआ पीछे श्याम कुंड बना हुआ है। मान्यता है कि राधा ने इसे अपना कंगन तोड़ कर बनाया था।
कुछ समय बीतने के बाद कृष्ण ने राधा से कहा, “हमें धरती पर जन्म लेना है, मेरे साथ चलो।” राधा ने कहा, “वृंदावन यमुना और गोवर्धन के बिना मैं कैसे रहूंगी।” कृष्ण ने 84 कोस में फैले ब्रज मंडल को धरती पर भेजा। कृष्ण के आदेश पर गोवर्धन पर्वत ने भारत से पश्चिम में शाल्मल द्वीप में द्रोणाचल गिरी के यहां जन्म लिया।
8 लंबा, 6 चौड़ा और 2 गज उंचा था गोवर्धन
एक बार पुलस्त्य मुनि धरती की परिक्रमा कर रहे थे। भारत के पश्चिम में मुनि ने हरे-भरे सुंदर गोवर्धन पर्वत को देखा। फिर उसके पिता द्रोणाचल गिरी से आग्रह किया कि मैं तुम्हारे बेटे को अपने साथ काशी ले जाना चाहता हूं। वहां सभी मुनि इस पर बैठ कर तपस्या करेंगे। श्राप के डर से द्रोणाचल मान गए और भारी मन से अपने बेटे को उनके साथ जाने को कहा।
गर्ग संहिता के दूसरे अध्याय में गोवर्धन पर्वत के शुरुआती आकार का जिक्र मिलता है।
गोवर्धन ने मुनि से कहा, “मैं 8 गज लंबा, 6 गज चौड़ा और 2 गज ऊंचा यानी 102 किमी लंबा, 76 किमी चौड़ा और 25 किमी ऊंचा हूं। आप मुझे कैसे ले जाएंगे? मुनि ने कहा- तपोबल से अपने हाथ पर रख कर ले जाउंगा। फिर गोवर्धन ने एक शर्त रखी और कहा- आप मुझे बीच में कहीं भी नहीं रखेंगे। एक बार जहां भी रख देंगे, मैं वहीं स्थापित हो जाउंगा। मुनि ने शर्त मान ली।”
पुलस्त्य के श्राप से तिल-तिल घट रहा पर्वत, 30 मीटर बची है ऊंचाई
गोवर्धन को हाथ में लिए पुलस्त्य मुनि ब्रज मंडल में पहुंचे। यहां राधा और कृष्ण जन्म लेने वाले थे। दरअसल गोवर्धन यहीं आने के लिए जन्मा था। लंबी यात्रा के बाद ब्रज मंडल पहुंचते ही उसने अपना वजन बढ़ा लिया। मुनि थक गए और पर्वत को नीचे रख कर पेशाब करने चले गए। लौट कर आए और उसे उठाने की बहुत कोशिश की लेकिन नहीं उठा। गुस्से में आकर मुनि ने उसे श्राप दे दिया कि तू हर रोज तिल-तिल कर घटेगा।
दान घाटी मंदिर के मुख्य पुजारियों में से एक पवन जी ने कहा- हम अपने मुंह से कैसे कहें कि ठीकुर जी घट रहे हैं।
तब से लेकर आज तक गोवर्धन लगातार घट रहा है। बचपन से पर्वत पर रह रहे पंडित राजेंद्र भट्ट ने बताया, “25 साल पहले जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया ने इस बात की सच्चाई जानने की कोशिश की। पूरे पर्वत की नपाई की। 10 साल बाद पर्वत को घटा हुआ पाया।” गर्ग संहिता में लिखा है कि जिस दिन गोवर्धन पर्वत समाप्त हो जाएगा उस दिन से कलयुग अपना असल रूप दिखाना शुरू कर देगा।
कृष्ण ने कहा- गोबर से करें पूजा, शिला ले जाएं तो उतना ही सोना चढ़ाएं
गर्ग संहिता में लिखा है, “इंद्र की पूजा छोड़कर ब्रजवासी गोवर्धन की पूजा के लिए तैयार हुए। फिर उन्होंने कृष्ण से पूजा करने का तरीका पूछा। कृष्ण ने कहा, ‘जिस जगह पर गिरिराज की पूजा करनी हो उसको गाय के गोबर से लीपें। उसी लिपी जगह पर पूजन और दान का सामान रखें। वेदाहमेतं पुरुषं महांतम मंत्र का जाप करें। गोवर्धन की आरती करें।’
परिक्रमा मार्ग में ही ये खूबसूरत कुसुम सरोवर मौजूद है। इसे मध्य प्रदेश के बुंदेला राजा वीर सिंह देव ने 17वीं शताब्दी में बनवाया था। बाद में सरोवर के साथ इस भवन को नया रूप दिया गया।
‘64 कटोरों को 5 पंक्तियों में रखें। उनमें तुलसी का दल के साथ गंगा-यमुना का जल भरें। पर्वत के पास ही अन्नकूट रखें। सच्चे मन से अर्पित करें। फिर गायों, देवताओं और ब्राम्हणों के बाद सभी को भोजन कराएं। उस दिन पापी व्यक्ति भी भोजन से नहीं बचना चाहिए।’
‘जहां गोवर्धन पर्वत नहीं है वहां के लोगों को गोबर के गोवर्धन बना कर इसी तरह पूजा करनी चाहिए। पूजने के लिए कोई इसकी शिला घर ले जाना चाहे तो उसे वहां उतना ही सोना छोड़ना चाहिए। बिना सोना रखे जो शिला ले जाएगा उसे भयंकर नर्क भोगना पड़ेगा। गोवर्धन पूजा से सभी तीर्थ करने जितना फल मिलता है।’