सनत जैन
18वीं लोकसभा का गठन हुआ है। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच में संसद के दोनों सदनों में चर्चा हुई। विपक्ष द्वारा स्थगन प्रस्ताव पेश किया गया था। विपक्ष चाहता था कि 24 लाख नीट के विद्यार्थियों पर चर्चा हो। सत्ता पक्ष ने इसको स्वीकार नहीं किया। सुप्रीमकोर्ट और हाईकोर्ट में नीट मामले की याचिकाएं विचाराधीन होने की आड़ में सरकार नीट मामले में सदन के अंदर चर्चा करने से बचती रही। संसद एक ऐसा मंच है। जहां पर सांसद किसी भी बात को निष्पक्षता और निडरता के साथ रख सकते हैं। सदन के अंदर सांसद न्यायपालिका और न्यायाधीशों के संबंध में भी अपनी बात खुलकर कह सकते हैं। न्यायालय में जो कार्रवाई चल रही होती है, उस पर जरूर कोई टीका-टिप्पणी सांसद नहीं करते हैं। लोकसभा में अध्यक्ष की सहमति से सार्वजनिक महत्व के किसी भी मामले में सदन के नियमित कामकाज को स्थगित करके चर्चा कराए जाने का प्रावधान है। पहले भी सदन के अंदर स्थगन प्रस्ताव पर चर्चा होती रही हैं। नीट मामले में 24 लाख परीक्षार्थी प्रभावित हुए हैं। 100000 युवाओं का एडमिशन एमबीबीएस में होना है। इतने महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा नहीं कराया जाना, सार्वजनिक महत्व के मुद्दों से मुह मोड़ने के समान है। इस मामले में यदि लोकसभा में चर्चा होती तो निश्चित रूप से सरकार को इसका फायदा होता। सरकार के खिलाफ अभी पेपर लीक मामले और नीट के मामले में युवाओं में रोष देखने को मिल रहा है। यदि चर्चा हो जाती, आम सहमति से सदन में कोई सहमति बनती। इससे युवा वर्ग के घाव पर मलहम लगाने जैसा उपचार होता। सरकार ने सदन में नीट मामले में चर्चा नहीं होने दी। सुप्रीम कोर्ट में जो शपथ पत्र सरकार ने प्रस्तुत किया है उसमें कहा गया है, कि नीट परीक्षा में कोई गड़बड़ी नहीं हुई। जिसके कारण परीक्षा कैंसिल करनी पड़े। सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने नीट को लेकर जो पक्ष रखा है। युवाओं के जख्म पर नमक छिड़कने जैसा काम किया है। यही बात संसद के अंदर चर्चा में आती। पक्ष विपक्ष अपनी अपनी बात रखते। सरकार जिस आधार पर कह रही है, कि परीक्षा में कोई गड़बड़ी नहीं हुई है। संसद के माध्यम से वह बात सारे देश में पहुंचती। इससे युवाओं में जो नाराजी है, वह कम होती। युवाओं को लगता सदन में उनकी बात सुनी गई है।
न्यायपालिका की आड़ लेकर पिछले कुछ वर्षों से महत्वपूर्ण और संवेदनशील विषयों पर संसद में चर्चा नहीं कराई जा रही है। पहले भी कई मामलों में यह देखा जा चुका है। पैगासस, राफेल और हिडेनबर्ग जैसे मामले में सदन में चर्चा नहीं कराई गई। न्यायपालिका में विवाद को डाल दिया गया। न्यायपालिका की आड़ लेकर सरकार हमेशा अपना पक्ष रखने से बचती रही है। सरकार ने न्यायालय में सील बंद लिफाफे में जानकारी देने की नई परंपरा शुरू की। न्यायालय से सरकार ने अपने पक्ष में निर्णय भी प्राप्त कर लिया। इसको लेकर न्यायपालिका और सरकार के प्रति लोगों के विश्वास में कमी देखने को मिल रही है। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बोलते हुए टीएमसी की सांसद महुआ मोइत्रा ने जिस तरह से न्यायपालिका की कार्यप्रणाली पर कटाक्ष किया है। उन्होंने न्यायपालिका को लेकर अपना पक्ष रखा है। उन्होंने यहां तक कह दिया, प्रेगनेंसी होगी या नहीं होगी। इसी तरह न्यायालयों से न्याय होगा या अन्याय होगा। जिस तरह से न्यायालय में आधे-अधूरे निर्णय दिए जा रहे हैं। विपक्ष के बारे में न्यायपालिका की भूमिका कुछ और है। सत्ता पक्ष के बारे में न्यायपालिका की भूमिका कुछ और है। उन्होंने सदन के अंदर न्यायपालिका के जजों की कार्यप्रणाली पर प्रत्यक्ष हमला किया है। वर्तमान केंद्र सरकार के पास स्पष्ट बहुमत नहीं है। विपक्ष अब आक्रामक मुद्रा में है। न्यायपालिका को भी अपनी साख बचा कर रखना जरूरी हो गया है। भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था है। ऐसी स्थिति में सरकार न्यायपालिका की आड़ लेकर ज्यादा दिनों तक बच नहीं सकती है। वर्तमान स्थिति में लोकसभा और राज्यसभा के पीठासीन अध्यक्ष और सभापति की जिम्मेदारी है। संवेदनशील मामलों में, जैसे नीट, मणिपुर, बजट और संसद में जो भी कानून बने, उन सब में संवेदनशीलता का परिचय देते हुए सत्ता पक्ष और विपक्ष में चर्चा कराई जाए। इससे दलगत राजनीति से ऊपर उठकर निर्णय लिए जा सकेंगे। निर्णय अच्छे होंगे और सभी को जोड़कर रख सकेंगे। संसद के अंदर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच में जो बैरभाव बना हुआ है। उसमें समन्वय बनाने का काम पीठासीन अधिकारियों को ही करना होगा।