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सबको सस्ता और सुलभ न्याय न देने की सरकारी मुहिम

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,मुनेश त्यागी 

        देश की आजादी के आंदोलन के दौरान भारत के गरीब किसानों मजदूरों और आम जनता ने एक ख्वाब देखा था कि भारत के आजाद होने पर सबको सुस्ता सस्ता और सुलभ न्याय मुहैया करा जाएगा, हजारों साल पुराने अन्याय के साम्राज्य का खात्मा कर दिया जाएगा। इसी सपने को साकार करने के लिए भारत के संविधान में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय देने के सिद्धांत को आधारित किया गया था।

     इसी सपने को साकार करने के लिए भारत में सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय, जिला न्यायालय के साथ-साथ मजदूरों को सस्ता और सुलभ न्याय मोहिया कराने के लिए श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों की स्थापना भी की गई थी। इसी के साथ मजदूरों को अपनी समस्याओं को मालिकों के सामने रखने के लिए, उन्हें यूनियन बनाने का अधिकार दिया गया था।

       सपनों को अमलीजामा पहनाने की सरकार द्वारा कोशिश भी की गई। मगर आजादी के 40-45 साल बाद जनता के इन सपनों को धराशाई कर दिया गया। भारत के धन्नासेठों के शासक वर्ग ने जनता में वह मुहिम नहीं चलाई जिसके तहत मनुष्य को इंसान बनाना था, उनके अंदर एक न्यायिक भावना और न्यायिक संस्कृति की भावना और कानून के शासन को मानने और स्वीकार करने वाली चेतना पैदा करनी थी और उनके अंदर आपसी विश्वास आपसी सौहार्द और आपसी भाईचारे की भावना पैदा करनी थी।

     मजदूरों और किसानों के बुनियादी समस्याओं को हल करने के आंदोलनों को देखकर, धीरे धीरे पूजीपतियों और सामंती ताकतों का गठजोड़ पैदा हो गया और उन्होंने सस्ते और सुलभ न्याय के सपने को धराशाई कर दिया। मजदूर नेताओं पर और अपने कानूनी हक मांगने वाले मजदूरों को नौकरी से निकाला जाने लगा और लगभग सारे श्रम कानूनों को अप्रभावित कर दिया गया, उनको लागू नहीं किया गया और आज तो अधिकांश मजदूरों को जैसे आधुनिक गुलाम बना दिया गया है।

       आज हम देख रहे हैं कि भारत में 5 करोड़ से ज्यादा मुकदमें विभिन्न न्यायालयों में लंबित हैं, वहां पर मुकदमों के अनुपात में न्यायालय नहीं हैं, मुकदमों के अनुपात में कर्मचारी और स्टेनों नहीं हैं। पिछले कई सालों से यही स्थिति जारी है और सरकारों का इस ओर कोई ध्यान भी नहीं है, इसलिए जनता के बड़े भाग को, अपने अधिकारों से और सस्ते व सुलभ न्याय के संवैधानिक अधिकारों से वंचित होना पड़ रहा है। यह भी एक अति विचारणीय हकीकत है कि भारत में 85% मजदूरों को न्यूनतम वेतन नहीं मिलता और सरकारें, मजदूरों को उनके वाजिब अधिकार दिलाने के अभियान से कोसों कोसों दूर हैं और यह बेहद जरूरी काम उनके एजेंडे में ही नहीं है।

       यही हाल मजदूरों के मुकदमों को लेकर भी है। मजदूरों को सस्ता और सुलभ न्याय उपलब्ध कराने के लिए औद्योगिक विवाद अधिनियम में 90 दिन की समय सीमा तय की गई थी जिसके अंदर मजदूरों के मुकदमों और विवादों का निस्तारण हो जाना चाहिए, मगर सरकार और सत्ता की न्याय विरोधी सोच और संस्कृति के कारण, मजदूरों को समय से न्याय नहीं मिल रहा है। उनके मुकदमें 10- 15 साल से श्रम न्यायालयों और औद्योगिक न्यायाधिकरणों में लंबित हैं और लाखों मुकदमे 15-20 सालों से हाईकोर्टों में लंबित हैं। मुकदमों के लंबा खींचने के कारण, बहुत सारे मजदूरों ने अपने मुकदमों की पैरवी करनी ही छोड़ दी है।

        और अब एक नई कल्चर पैदा हो गई है कि जिसमें यह ठान लिया गया और मान लिया गया है कि मजदूरों को न्याय देने का नाटक तो करना है, मगर उन्हें सच में सस्ता और सुलभ न्याय उपलब्ध कराना नहीं है। कई श्रम अधिकारियों और न्यायिक अधिकारियों का तो यह भी मानना है कि मजदूर कामचोर होते हैं, निकम्मे होते हैं, वे काम नहीं करते, मालिकान को परेशान करते हैं, अतः उन्होंने मजदूरों को श्रम कानूनों के हिसाब से रीलीफ न देकर, श्रम कानूनों के औचित्य पर भी अनेकों सवालिया निशान लगा दिए हैं।

     जनता द्वारा सामना किए जा रहे अन्याय को लेकर विभिन्न पार्टियों और वकीलों के संगठनों द्वारा लगातार कोशिशें की जा रही हैं, मुकदमों के अनुपात में न्यायालय स्थापित करने, मुकदमों के अनुपात में न्यायिक अधिकारी गण और कर्मचारी और स्टेनो नियुक्त करने की लगातार मांगे की जा रही हैं, मगर सरकार और उसके अधिकारी इस बारे में कोई सुनवाई करने को तैयार नहीं हैं। अभी फिलहाल, बहुत परेशान होकर, वकीलों के एक संगठन ने, सरकार द्वारा औद्योगिक  न्यायाधिकरणों में पीठासीन अधिकारी नियुक्त करने की याचिका, सुप्रीम कोर्ट में दायर की है।

       उपरोक्त सारे घटनाक्रम को देखकर यह बड़ी आसानी से कहा जा सकता है कि अधिकांश राज्य सरकारों और भारत के पूंजीपति और सामंती वर्ग का गठजोड़ और कई न्यायिक अधिकारीगण, मजदूरों को किसी भी हालत में सस्ता और सुलभ न्याय उपलब्ध कराना नहीं चाहते और विभिन्न प्रयासों के बाद भी उन्होंने इस ओर से, अपना मुख मोड़ लिया है, अपने आंख, कान और दिमाग बंद कर लिये हैं और उसने मजदूरों को सेवायोजकों द्वारा किए जा रहे अन्याय का, शिकार बने रहने के लिए छोड़ दिया है और इस अटूट अन्याय के शिकार, भारत के तमाम गरीब, एससी, एसटी और ओबीसी के लोग हैं।

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