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न्यायपालिका के कानून सम्मत फैसलों से बौखलाई सरकार

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मुनेश त्यागी

       पिछले दो दिन से 600 वकीलों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को लिखा पत्र, पूरे देश में चर्चा का विषय बना हुआ है। देश के 600 वकीलों द्वारा भारत के मुख्य न्यायाधीश को एक पत्र लिखा गया है जिसमे कुछ ग्रुपों द्वारा अदालतों पर दबाव बनाने और उनकी मानहानि का आरोप लगाया गया है। पत्र में कहा गया है कि इस प्रकार की टैक्टिक्स अदालतों को हानि पहुंचा रही है और हमारे लोकतांत्रिक ताने-बाने को धमकी दे रही हैं। पत्र में आगे कहा गया है कि ऐसे कठिन समय में भारत के मुख्य न्यायाधीश का नेतृत्व बहुत महत्वपूर्ण है और ऐसे समय में सर्वोच्च न्यायालय को मजबूती से खड़ा रहने और सम्माननीय चुप्पी ना साधने की जरूरत है।

       इसी के साथ-साथ गजब का तालमेल देखिए कि प्रधानमंत्री ने भी न्यायपालिका को प्रतिबद्ध बनाने की कोशिशें का मखौल उड़ाया है और कहा है कि कांग्रेस की पचास साल से यही नीतियां रही हैं कि वह न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमले कर रही है और एक प्रतिबद्ध न्यायपालिका चाहती है।

      इस पत्र में किसी वकील का नाम नहीं लिया गया है और कहा गया है कि कुछ वकील राजनेताओं की रक्षा के लिए जजों को प्रभावित कर रहे हैं और उन पर नाजायज दबाव बना रहे हैं। इस पत्र का जवाब देते हुए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने सुझाव दिया है कि प्रधानमंत्री को न्यायपालिका पर टिप्पणी करने से बचना चाहिए। अपने पत्र में उन्होंने कहा है कि प्रधानमंत्री भूल गए कि उनके ही शासनकाल में कुछ साल पहले सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ जज़ों को प्रेस वार्ता करने को मजबूर होना पड़ा था और कहना पड़ा था कि “हमारा जनतंत्र खतरे में है”

       इन चार जजों में से एक को सरकार ने राज्यसभा के लिए चुना था। अब यहीं पर सवाल उठता है कि “प्रतिबद्ध न्यायपालिका” कौन चाहता है? अभी हम पिछले कुछ दिनों से देखते चले आ रहे हैं कि वर्तमान सरकार ने पिछले कुछ समय में कई जजों को रिटायर होने के बाद फिर से उच्च पदों जैसे सांसद और राज्यपाल के पदों पर नियुक्त दिया, जबकि सरकारों की इन नीतियों की मुखालफत, भाजपा के ही अरुण जेटली जैसे बड़े नेता पहले से ही करते आ रहे थे। वर्तमान सरकार ने अपने इन नेताओं की आपत्तियों पर भी ध्यान नहीं दिया और वह रिटायरमेंट के बाद सेवा निवृत्त जजों को नियुक्तियां देकर, जैसे उनके फैसलों को प्रभावित ही कर रही थी।

    इन पूरे तथ्यों को ध्यान में रखते हुए, यह समुचित रूप से प्रतीत हो रहा है कि वर्तमान सरकार न्यायपालिका की साख और जनतंत्र को बचाने के नाम पर, उल्टे उस पर ही दबाव बना रही है। न्यायपालिका ने चुनावी बोंड के खुलासे में सरकार की ईमानदारी के दावों की पोल खोल दी है। चुनावी बांड खुलासों ने पूरी दुनिया के सामने साबित कर दिया है कि भारत की वर्तमान सरकार की कथनी और करनी में जमीन आसमान का फर्क है। वह पूरी दुनिया के सामने दुनिया की सबसे बड़ी भ्रष्ट सरकार साबित हो गई है। सर्वोच्च न्यायालय के इन कई फसलों से सरकार बदहवास हो गई है और वह पूरी तरह से बौखला उठी है।

     जब सरकार की समस्त कार्य नीतियां वर्तमान न्यायपालिका को दबाव में रखने में सफल न हो पाईं तो उसने अपने कुछ समर्थक और पिछलग्गू वकीलों को अपना मोहरा बनाया है, जिन्होंने यह पत्र भारत के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को लिखा है। अपने इस पत्र में उन्होंने किसी वकील का नाम नहीं लिया है, वकीलों के किसी ग्रुप का नाम नहीं लिया है, अदालतों पर कौन दबाव बना रहा है और कौन सी अदालत की मानहानि या बदनामी हो गई है? ऐसा कोई खुलासा इस पत्र में नहीं किया गया है।

      वर्तमान शासक भारत के संविधान और न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर गंभीर हमले करते चले आ रहे हैं। भारत के उपराष्ट्रपति और कानून मंत्री लगातार इन हमलों को करने में सबसे आगे रहे हैं। भारत सरकार उच्च न्यायालय के जजों के तबादलों में जान पूछ कर हस्तक्षेप करती रही है। केंद्र सरकार कॉलेजियम द्वारा की गई जजों की नियुक्ति में लगातार मनमाना हस्तक्षेप करती चली आ रही है। यह केंद्र सरकार कॉलेजियम द्वारा की गई नियुक्तियों को जानबूझकर लटकाए रखती है। यह सब भारत की न्यायपालिका की स्वतंत्रता में खुलेआम की गई दखलंदाजी के जीते जागते चंद उदाहरण हैं।

    कुछ वकीलों का यह समूह, सरकार द्वारा न्यायपालिका की स्वतंत्रता में की जा रही खुलेआम दखलअंदाजी पर सदैव चुप रहा। यही ग्रुप इलेक्टोरल बोंड्स के फैसले में राष्ट्रपति को खत लिख रहा था जिस पर मुख्य न्यायाधीश ने इन्हें कोर्ट में ही खुलेआम लताड़ लगाई थी।

      कुछ वकीलों का यह ग्रुप, देश के लोगों को गुमराह कर रहा है। यह भारत के वकीलों का प्रतिनिधि नहीं करता है। ये चंद वकील भारतीय न्यायपालिका के रक्षक नहीं, बल्कि सबसे बड़े विध्वंसक और भक्षक हैं। इनकी सख्त शब्दों में निंदा की जानी चाहिए। यहीं पर भारत के समस्त वकील समुदाय को और जनता को मिलजुल कर, एकजुट होकर, भारत की न्यायपालिका की आजादी पर हमला और हस्तक्षेप करने के करने वालों के खिलाफ तुरंत सख्त से सख्त आवाज उठाने और भारत की न्यायपालिका और जनतंत्र को बचाने की सबसे बड़ी जरूरत है।

     यह सब क्यों किया जा रहा है? यही सबसे बड़ा सवाल है। दरअसल मामले की हकीकत कुछ और ही है। न्यायपालिका के फिलहाल के कुछ फैसलों ने सरकार की जनविरोधी नीतियों की, कानून के शासन पर हमले की और संविधान विरोधी नीतियों और हमले की, बडबोलेपन की, सरकार की ईमानदारी की, दुनिया के सामने पोल खोल दी है। इन बहुत ही महत्वपूर्ण फैसलों ने उसकी अभी तक की बनाई गई छवि को मिट्टी में मिला दिया है, उसकी पूरी दुनिया में बदनामी और जग हंसाई हो रही है, उसके पूरे हवाई दावे हवा में फुर्र हो गए हैं। अब वह बुरी तरह से बौखला गई है और पूरी तरह से परेशान है। अतः उसने अपने चहेते कुछ वकीलों को आगे रखकर, भारत के सीजेआई और न्यायपालिका पर दबाव बनाने की और उनकी आजादी से कार्य करने की प्रणाली पर रोक लगाने के लिए यह नई कार्य नीति अपनाई है जिसमें वकीलों को मोहरा बनाया गया है।

      सरकार की या इन वकीलों की ये कारवाइयां किसी भी तरह से न्याय संगत या न्यायपालिका की आजादी और गरिमा को बढ़ाने वाली नहीं हैं, बल्कि ये समस्त कार्यवाहियां, अपने जनविरोधी कारनामों की वजह से बुरी तरह से फंस चुकी सरकार को बचाने वाली हैं और सरकार के इशारे पर की जा रही हैं। यहां पर पिछले कुछ समय में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसलों पर एक नजर दौडाई जाए तो इनमें बिलकिस बानों के बलात्कारियों को जेल भेजना, चंडीगढ़ मेयर के काले कारनामों की पोल खोलना और आप पार्टी के उम्मीदवार को मेयर घोषित कर देना, सरकार को धार्मिक कार्यों से दूर रखकर, धर्म को राजनीति से दूर रखने और धर्मनिरपेक्षता को भारतीय संविधान का बुनियादी चरित्र बनाए रखने के बहुत ही महत्वपूर्ण फैसले दिए हैं।

      सुप्रीम कोर्ट के ये तमाम फैसले सरकार द्वारा अपनाई गई देश विरोधी और जनविरोधी नीतियों के खिलाफ हैं, उसकी धर्म को राजनीति में मिलने की नीति के खिलाफ हैं, उसकी चुनाव धांधलियों के मामले के खिलाफ हैं, उसके बलात्कारियों को बचाने की नीतियों के खिलाफ हैं, उसकी धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को रौंदने की नीतियों के खिलाफ हैं, जिस कारण अब यह केंद्र सरकार जनता के सामने नंगी हो गई है।

      न्यायपालिका के इन बहुत ही महत्वपूर्ण फैसलों ने कानून के शासन को बचाने और बनाये रखने में, जनता को न्याय देने में, चुनावों में ईमानदारी, पार्दर्शिता और निष्पक्षता बढ़ाने में, धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को मजबूती से लागू करने में, बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। इससे सुप्रीम कोर्ट और न्यायपालिका के फैसलों की चारों ओर बडाई हो रही है और न्यायपालिका में जनता का विश्वास बढ़ रहा है। इसी कारण सरकार की नीतियों की जनता के सामने किरकिरी हो रही है।

      वहीं दूसरी तरफ सरकार की तमाम संविधान विरोधी, न्याय विरोधी, जनतंत्र विरोधी और न्यायपालिका की आजादी को खत्म कर, उसे अपने नियंत्रण में बनाए रखने की तमाम पोल खुल गई है। अब सरकार को यह भी डर लग रहा है कि अगले आने वाले समय में सर्वोच्च न्यायालय ऐसे कुछ और फैसला देगा जिससे सरकार की किरकिरी होगी। इसी वजह से वह बेहद परेशान है, वह बिल्कुल बौखला गई है और अब उसने भारत की न्यायपालिका को फिर से अपने नियंत्रण में लेने के लिए और उसकी स्वतंत्रता को खत्म करने की नई मुहिम चलाई है जिसका किसी भी तरीके से सम्मान और समर्थन नहीं किया जा सकता।

      यहीं पर यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि इन पत्र लिखने वाले वकीलों ने कभी भी जनता को सस्ता और सुलभ देने में आने वाली रूकावटों पर कभी कोई जोर नहीं दिया, सरकार द्वारा धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों को रौंदने पर कभी कोई आवाज नहीं उठाई, न्यायपालिका में लंबित 5 करोड़ मुकदमा में जनता को कैसे सस्ता और सुलभ न्याय मिले, इस पर कोई आवाज नहीं उठाई, हमारे देश में मुकदमों के अनुपात में अदालतें नहीं हैं, मुकदमों के अनुपात में न्यायाधीशों की नियुक्तियां नहीं की जा रही है, हाई कोर्ट और निचली अदालतों में कई कई सालों से खाली पड़े पदों पर नियुक्तियां करने की कोई मांग नहीं की गई है, स्टेनों नहीं हैं, इस पर कोई आवाज नहीं उठाई गई है, सरकार न्यायपालिका के  बजट में वृद्धि नहीं हो रही है, इस पर कभी कोई आवाज नहीं उठाई। इस ग्रुप ने कभी भी सरकार द्वारा न्यायपालिका की स्वतंत्रता में किये जा रहे हस्तक्षेप और जनतंत्र पर किए जा रहे हमलों के खिलाफ कभी आवाज नहीं उठाई

    इन सब कारणों से सरकार और इन वकीलों द्वारा लिखे गए पत्र में कोई जान नहीं है। उनकी यह कार्रवाई न्यायपालिका को अपने दबाव में लेने की है ताकि न्यायपालिका को संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों को प्रयोग में लाकर न्यायिक कार्यों से रोका जा सके और किसी भी तरह से सरकार द्वारा किए गए जन विरोधी और न्याय विरोधी कार्यों पर से पर्दा उठाने से रोका जा सके। 

    अब यहीं पर यह सबसे ज्यादा जरूरी हो गया है कि कानून के शासन और संविधान में विश्वास रखने वाले तमाम वकील संगठनों को, सर्वोच्च न्यायालय और पूरी न्यायपालिका की आजादी की और कानून के शासन की रक्षा करने में भारत की सर्वोच्च न्यायालय और जजों के साथ खड़ा हो जाना चाहिए ताकि वे निर्भीक होकर संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों का प्रयोग करके, सरकार द्वारा किए जा रहे गैरकानूनी कार्यों पर रोक लगा सकें और जनता के साथ न्याय कर सकें।

     हम यहां पर जोर देकर कहेंगे कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय और मुख्य न्यायाधीश को और मजबूती के साथ संविधान की रक्षा करनी चाहिए, कानून के शासन को आगे बढ़ना चाहिए और जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने के लिए और प्रतिबद्ध होना चाहिए। उसे सरकार के नियंत्रण में और धमकियों में आने की परवाह नहीं करनी चाहिए क्योंकि भारत का सर्वोच्च न्यायालय इस समय भारत की न्याय व्यवस्था की आजादी की रक्षा कर रहा है, संविधान द्वारा दिए गए अधिकारों का प्रयोग करके भारत की संसदीय प्रणाली, गणतंत्र, धर्मनिरपेक्षता संप्रभुता और जनतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत बना रहा है। इससे उसे डरने की जरूरत नहीं है। वह सचमुच आज के समय में अद्भुत कम कर रहा है।आज के मुख्य न्यायाधीश और सर्वोच्च न्यायालय सचमुच में बधाई के पात्र हैं। अपने फैसलों से उन्होंने न्यायपालिका की स्वतंत्रता की रक्षा की है जिस पर पूरे देश को गर्व है।

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