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महिला सशक्तिकरण के बावजूद :बढ़ती असुरक्षा चिंताजनक 

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-सुसंस्कृति परिहार 

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पिछले दिनों हमने होली के रंगों के साथ विश्व  महिला दिवस मनाया उधर बीबीसी की एक ताजा रिपोर्ट बताती है कि हिन्दुस्तानी शहरों में लड़कियों और महिलाओं का घर से निकलना लडक़ों और आदमियों के मुकाबले कितना कम होता है। इनमें अलग-अलग प्रदेशों में अलग-अलग तबकों की लड़कियां और महिलाएं हैं, और उनमें से अधिकतर का यह मानना है कि वे सार्वजनिक जगहों पर सुरक्षित महसूस नहीं करतीं। यकीनन महिला सुरक्षा एक सामाजिक मसला है, इसे जल्द से जल्द सुलझाने की जरुरत है। महिलाएं देश की लगभग आधी जनसंख्या है जो शारीरिक, मानसिक, और सामाजिक रूप से पीड़ित है। यह देश के विकास तथा तरक़्क़ी में बाधा बन रहा है।

महिला सुरक्षा के लिए यूं तो कानून में बहुत सी व्यवस्थाएं हैं और सतत उनकी सुरक्षा के तहत् नए सिरे से कोशिशें भी  लगातार होती रहती हैं । बहुचर्चित निर्भया कांड के बाद आए कानून से तो ऐसा लग रहा था कि अब तमाम घटनाओं पर विराम लग जाएगा किंतु परिणामों में कोई बदलाव परिलक्षित नहीं हुआ। अपराधी तत्वों ने अब यौन हिंसा का घृणित स्वरुप ले लिया।अब बलत्कृत पीड़िता को मौत के घाट उतार देना आम बात हो गई है। आजकल सारे सबूत ख़त्म कर देने की घटनाएं बढ़ रही हैं। वहीं अकेली महिला जहां एक मर्द से निपटने तैयार होने की कोशिश करने लगी तो बलात्कार में सामूहिकता बढ़ने लगी।तू डाल डाल मैं पात पात। आज सभी कानून फिसड्डी साबित हो रहे हैं । 

देश में महिलाओं के विरुद्ध बढ़ते अपराध चिंता का विषय हैं. एनसीआरबी की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, 2021 में महिलाओं के खिलाफ अपराध में 15 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई, जबकि बलात्कार के मामले 12 प्रतिशत तक बढ़ गये। बीते 10 वर्षों में महिलाओं के विरुद्ध अपराध में 75 प्रतिशत तक की वृद्धि दर्ज हुई है।

हाल ही के दिल्ली का श्रद्धा वाल्कर हत्याकांड हो या झारखंड का रूबिका पहाड़िन हत्याकांड, हाल-फिलहाल ऐसे कई मामले सामने आये हैं जो बताते हैं कि देश में महिलाओं के खिलाफ न केवल अपराध बढ़े हैं बल्कि क्रूरता की वारदातें भी बढ़ी हैं दिल्ली के कंझावला में ऐसी घटना घटी, जिसने नृशंसता की सारी हदें पार कर दीं। काम खत्म कर देर रात घर लौट रही अंजलि की स्कूटी पलट गयी और वह एक कार में फंस गयी। पर कार में बैठे लड़के पीड़िता की मदद करने की बजाय उसे किसी निर्जीव वस्तु की तरह कई किलोमीटर तक घसीटते रहे। महिलाओं के साथ क्रूरता की हद पार करने वाली यह कोई पहली घटना नहीं है।

एकं रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर 30 मिनट में एक रेप होता है… माफ़ कीजिये, होता था.. 2014 तक | अब तो भारत तरक्की कर चुका है अतः 2021 तक भारत में हर 16 मिनट पर एक रेप रिपोर्ट होता रहा जो वारदात सामने नहीं आ पाती उनकी संख्या का कोई रिकार्ड उपलब्ध नहीं हो सकता क्योंकि आज भी महिला अपने परिवार और समाज की ही बात मानती है क्योंकि नज़दीकी परिवार जन,जान पहचान वाले अधिकतर इस दुष्कर्म में शामिल होते हैं उनसे पंगा लेना आसान नहीं होता।जो बगावत कर आगे आती हैं उनकी स्थिति बहुत बदतर हो जाती है वे कहीं की नहीं रहती। जिन्हें सरकारी संरक्षण मिलता है वह भी बिना मोल चुकाए कम ही मिलता है।महिला संरक्षण गृहों को अय्याशी  का अड्डा बनाने की अनेक घटनाएं इतनी शर्मनाक हैं जहां संरक्षिका ख़ुद बा ख़ुद इस केंद्र का इस्तेमाल अधिकारियों और क्षेत्रीय नेताओं को संतुष्ट करने में करती रही।

ऐसे हालात में पीड़िता क्या करेगी वह घर पर रहना ही पसंद करेंगी भले उसे कितना दुराचार सहना पड़े।महिलाएं हर मुकाम पर अपना परचम लहरा रहीं हैं किंतु कितनी? जो घर से बाहर निकल रहीं उन्हें समाज की स्वीकार्यता कितनी और कैसी है। यह किसी से छिपा नहीं दिल्ली से महज़ 100 किलोमीटर की दूरी पर हरियाणा के करनाल ज़िले की देवीपुर ग्राम पंचायत में आज़ादी के 75 साल बीत जाने के बाद भी लड़कियों को कॉलेज जाना नसीब नहीं हुआ था. नैना ने बताया कि जब उसके पिता ने मना किया तो उसने कहा, “मैं भी ज़िद पर अड़ गई थी कि मैं पढ़ूंगी तो बस पढ़ूंगी. मैंने कह दिया कि अगर मैं कुछ ग़लत करूं तो आप मेरी नाड़ (गर्दन) काट देना.”वह पढ़ी और आज पंचायत में लड़कियां पढ़ने लगी है।सच है आमतौर पर जो जिद्दी महिलाएं हैं वे अपनी दम खम के साथ ही मौजूद हैं।ऐसी हिम्मत वालियों की संख्या बढ़ने पर ही परिवर्तन की गुंजाइश बनती है। 

जो महिलाएं इसका एकमात्र इलाज ये मानती हैं कि वे घर में रहें बाहर ना निकले।यह मनुवादी सोच है।आज की सरकार की भी यही सोच परिलक्षित हो रही है।तो क्या घर मुफीद हैं। नहीं ना।तब तो घर से निकलना ही उचित होगा।जो डर गया वो मर गया। काश! हमारे समाज के मुखियाओं ने ईमानदारी से महिलाओं के ईमान की रक्षा घर से ही की होती तो बाहर का माहौल इतना घृणित नहीं होता। दुर्भाग्य तो यह रहा कि रक्षक ही गांव से लेकर शहर तक भक्षक बना बैठा है। महिलाओं की तरक्की के बाद भी आज वह सुरक्षित नहीं है।अब सरकार ही जब खुलकर बलात्कारियों का सम्मान कर रही हो तो किसके आगे महिला सुरक्षा की बीन बजाई जाए।

तब एक अपेक्षा महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं से ही की जाआ सकती है यदि महिलाएं सजगता से बिना अपना पराया किए हर जगह हर समय अपनी नज़र पैनी रखें तथा एकजुटता से  ऐसे लोगों की ख़बर ले भले वह व्यक्ति घर का हो ,दफ्तर का हो, सड़क छाप हो या मंत्री संत्री हो उसका डटकर प्रतिरोध हो उसका सामाजिक वहिष्कार हो तो शायद कुछ बदलाव आए।निडरता, जागरूकता, सक्रियता और सभी के आत्मबल से यूं कहें कि ज़िद से इस मसले को हल कर सकते हैं। इसमें पुरुषों की भागीदारी भी सुनिश्चित करें उनके सहयोग से ही सामाजिक सोच में बदलाव आएगा क्योंकि हम आज भी कथित पितृसत्तात्मक  सत्ता के अधीन हैं उनके सहयोग को देख ही, अपराध करने वालों के हौसले पस्त होंगे।इसका मतलब यह नहीं अपनी सुरक्षा की जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी जाए‌ वह तो पुरातन नियमों में है ही लेकिन जब खेत ही बागड़ खाने लगे तो महिलाओं की यह अहम जिम्मेदारी बनती है। महिलाओं की सुरक्षा हेतु जितने क़ानून बने हैं उनका अमल घर से शुरू कराया जाए।हर घर में यह मुहिम चले और फिर आगे बढ़ा जाए।

कुछ लोग अपराधियों को सार्वजनिक तौर पर दंडित करने के पक्षधर हैं उनका मानना है कि समाजिक सुधार हेतु यह जरूरी है। पिछले दिनों महिला दिवस के दिन मध्यप्रदेश के एक जिला दमोह में एक बुजुर्ग बलात्कारी के शासकीय अतिक्रमण पर बुलडोजर चलाया गया खास बात ये रही कि बलात्कारी के घर पर जेसीबी चलाने वाली पूरी टीम महिला पुलिस की थी जिनको हौसला पुलिस अधीक्षक राकेश कुमार सिंह ने दिया।यह अनूठी घटना थी जिसकी कल्पना कभी अपराधी ने नहीं की होगी।नारी अपमान का प्रतिशोध नारियों ने लिया।यह ज़रूरी है। बुलडोजर संस्कृति अच्छी नहीं कही जा सकती पर अपराधी के घृणित कार्य और शासकीय कई एकड़ जमीन पर अवैध कब्जा दोनों बड़े गुनाहों के लिए यह सजा छोटी कही जायेगी।यह महिला दिवस हमेशा यादों में रहेगा। महिलाओं को ऊर्जा देता रहेगा।

 कुल मिलाकर कुछ कदम तुम चलो कुछ कदम हम चलें दोनों के मेलजोल और कानूनों के तहत जल्द और सख्त कार्रवाई का असर निश्चित तौर पर असरकारक होगा लेकिन महिलाओं के बिना जागे सबेरा नहीं होगा।

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