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पहरेदार बनाम मालिक

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शशिकांत गुप्ते

अब्राहम लिंकन लोकतंत्र को इस तरह परिभाषित किया है जनता के लिए और जनता द्वारा जनता का शासन– लोकतंत्र में जनता ही सत्ताधारी होती है। उसकी अनुमति से शासन होता है, उसकी प्रगति ही शासन का एकमात्र लक्ष्य माना जाता है।
लोक मतलब जनता। जनता मतलब जीवित मानवों का समूह।
मानव का सिर्फ जीवित होने ही पर्याप्त नहीं है,उसे जीविका भी चाहिए।जीविका मतलब जीविकोपार्जन का साधन मतलब रोजगार चाहिए। जनता को जीविकोपार्जन के लिए रोजगार मुहैया करवाना सत्ता का कर्तव्य है।
यह तो हुई पुस्तकों में लिपिबद्ध की गई मान्यताएं हैं। वस्तुस्थिति एकदम भिन्न है। खोजों तो जाने?
यकायक एक किस्सा याद आया।
एक राजा के यहाँ एक पहरेदार था। वह स्वयं को बहुत ही ईमानदार कहलवाता था। एक दिन राजा शिकार करने जंगल में जा रहा था। उस ईमानदार पहरेदार ने राजा से करबद्ध प्रार्थना की, हे राजा आज आप शिकार करने मत जाइए।
राजा ने कारण जानना चाहा तो,पहरेदार ने बहुत ही प्रामाणिकता से कहा,राजन रात मुझे स्वप्न में दिखाई दिया है कि, आज आप शिकार करने जाएंगे,तब आप पर बहुत बड़ा संकट आ सकता है। राजा ने पहरेदार की बातों को नजरअंदाज किया और राजा शिकार करने गया। संयोग से राजा को बहुत बड़े संकट का सामना करना पड़ा। राजा ने संकट का मुकाबला किया और सहकुशल घर वापस आगया। घर वापस आतें ही राजा ने उस पहरेदार को आने वाले संकट से आगाह करने के लिए धन्यवाद दिया,साथ ही बहुत सूझबूझ का परिचय देतें हुए उस पहरेदार तत्काल प्रभाव से नोकरी से निकाल दिया। कारण जानने पर राजा ने कहा तुमने स्वप्न देखा मतलब तुम अपनी ड्यूटी पर पहरा देने के बाजए सोते रहे थे।
इस कहानी के राजा की स्तुति करना चाहिए। पहरेदार का पर्यायवाची चौकीदार होता है,महज जानकारी के लिए लिख दिया।
यह कहानी की बात हुई,हक़ीक़त में लोकतंत्र की परिभाषा के अनुसार जनता ही देश की मालिक है। और पहरेदार जनता को जागृत अवस्था में विभिन्न सपने दिखा रहें हैं।
जनता मतलब देश की मालिक सपनों को सच मानतें हुए,और सपनों को साकार होने की अभिलाषा में अपनी सूझबूझ ही खो रही है। जनता विभिन्न प्रकार के सपनों के झुनझुनो की लुभावनी आवाज में मदहोश हो गई है।
जनता अपने बच्चों के भविष्य को उज्जवल बनाने के सपने सँजोती है। इस संदर्भ में सन 1958 में प्रदर्शित फ़िल्म का स्मरण होता है। संयोग से इस फ़िल्म का नाम भी मालिक ही है। इस फ़िल्म का यह गीत जिसे लिखा है,शकील बदायुनी ने।
पढ़ोगे लिखोगे बनोगे नवाब
जो खेलोगे कूदोगे होगे खराब
तुम होगे खराब
जो बच्चे कभी लिखते पढ़ते नहीं
वो इज़्ज़त की सीढ़ी पे चढ़ते नहीं

आज पढ़ोगे लिखोगे तो बेरोजगरों की संख्या में इज़ाफ़ा करोगे।
जिन विदेशी खेलों को देश ने आत्मसात कर लिया वे खेल सामंती होने के बावजूद भी भी गरीब देश में खेल कर अरब पति बन सकतें हो। अरब पति बनने के लिए बशर्ते खेल को खेल की भावनाओं से न खेलते हुए दर्शकों की भावनाओं से खेलने में निपुण होना पड़ेगा।
खेल खेल ही में कितने ही खिलाड़ी धनपति बन होंगे? फेरहिस्त पर चर्चा करना खेल भावना पर प्रश्न उपस्थित करने जैसा ही है। इनदिनों प्रश्न सिर्फ व्याकरण में कैद हैं।
बहरहाल चर्चा का विषय है, पहरेदार और राजा की कहानी।
वर्तमान में भी कहानी को दोहराया जा रहा है। जिस तरह इतिहास खुद को दोहराता है, History repeats
इनदिनों इतिहास को अपने ढंग से दोहराया जा रहा है।
पहरेदार जनता को मतलब राजा को दिवा-स्वप्न(Dream day)
दिखा रहा है। दिवास्वप्न का मतलब अकर्मण्य एवं निराश व्यक्ति का बैठे-बैठे हवाई किले बनाना।
कहानी और हक़ीक़त का अंतर समझने के बाद,तुरंत ही सन 1957 में प्रदर्शित फ़िल्म प्यासा के गीत का स्वाभाविक ही स्मरण होता है। गीतकार साहिर लुधियानवी ने इस गीत में समाज के यथार्थ को बखूबी शब्दों में संजोया है।
ये कूचे,ये नीलांघर दिलकशी के
ये लूटते हुए कारवाँ ज़िंदगी के
कहाँ है, कहाँ है मुहाफ़िज़ (रक्षक या मुहाफ़िज़) खुदी के
जिन्हें नाज है हिन्द ओर वो कहाँ है?
जरा मुल्क के रहबरों को बुलाओ
ये कुचे, ये गलियाँ, ये मंजर दिखाओ
जिन्हें नाज है हिन्द पर उनकों लाओ
जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहाँ है
गीत के उक्त दो बन्दों में जीवन की हक़ीक़त बंद है।

देश की भावीपीढ़ी कब जागेगी या इन दिवास्वप्नों में ही खोई रहेगी?
जवाब :- नहीं ऐसा नहीं होगा निश्चित ही परिवर्तनकारियों द्वारा अपने कर्तव्य का निर्वाह किया जाएगा, किया जा भी रहा है।
वो सुबह जल्दी आएगी।
गांधीजी ने अनुयायी भूदान प्रणेता आचार्य विनोबा भावेजी ने कहा है भारत में क्रांति सुनियोजित तरीके से नहीं होती है। समय परिस्थिति निर्मित करता है,और क्रांति स्वाभाविक रूप होती है। निश्चित ऐसा ही होगा। क्रांति अहिंसक होनी चाहिए। अहिंसक क्रांति ही परिवर्तन लाती है।

शशिकांत गुप्ते इंदौ

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