कुमार चैतन्य
तीन शास्त्र हैं जगत में~ विज्ञान, कला और धर्म : साइंस, आर्ट, रिलीजन। विज्ञान पुरुष की खोज है। काव्य स्त्री की खोज है। स्व-धर्म दोनों के मिलन से घटित होता है।
मगर जब दो मिलते हैं, तो तीसरा भी आ मिलता है; वह अदृश्य है। वह चुपचाप आ जाता है। वह कब आ जाता है दो के मिलन पर, पता भी नहीं चलता। इधर दो मिले कि तुम अचानक तीसरे को मौजूद पाते हो। जहां दो हैं, वहां तीसरा भी है।
इजिप्त की एक बहुत पुरानी किताब है, जो कहती है: जहां दो हैं वहां तीसरा भी है। और दो गौण हो जाते हैं, जहां तीसरा है; क्योंकि तीसरा परम है; वह आत्यंतिक है।
तुम्हारे भीतर मस्तिष्क और हृदय का मेल होना चाहिए। मस्तिष्क–पुरुष; हृदय–स्त्री। तुम्हारे भीतर अनुभूति और विचार का मेल होना चाहिए। तर्क और भाव का मेल होना चाहिए। तुम्हारे भीतर इनका विवाद चलता रहे तो तनाव होगा। तुम दो खंडों में बंटे रहोगे।
जब तक तुम दो खंडों में बंटे रहोगे, तब तक तुम्हारे भीतर एक तरह की कलह चलती रहेगी, चैन नहीं होगी।
लोग इतने बेचैन क्यों हैं? उनके भीतर दो तरफ यात्रा चल रही है–आधे पश्चिम जा रहे हैं; आधे पूरब जा रहे हैं; एक हिस्सा इधर जा रहा है, दूसरा हिस्सा उधर जा रहा है। तुम रोज अनुभव करते हो कि कुछ भी निर्णय करने जाओ, आधा मन कहता है कर लो, आधा कहता है मत करो।
छोटा निर्णय हो कि बड़ा, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कौन सी फिल्म देखने जाएं आज? आधा मन कहता है इस टॉकीज चले जाओ, आधा मन कहता है उस टॉकीज चले जाओ। क्षुद्र सी बातों में…कौन सी साड़ी पहन कर आज निकलना है।
स्त्रियों को इतनी देर क्यों लग जाती है साड़ी के भंडार के सामने खड़े हुए? पतिदेव हॉर्न बजा रहे हैं और स्त्री अपनी साड़ियां निहार रही है। समझ ही नहीं पड़ता कौन सी पहने! एक निकालती है, दूसरी निकालती है; वह भी नहीं जंचती। एक आधी पहन कर उतार डालती है।
मन सदा द्वंद्व में है–यह करूं, वह करूं! यह-वह का द्वंद्व है: क्योंकि तुम्हारे भीतर दो हैं और दोनों बोल रहे हैं और कहते हैं मेरी सुनो। और तुम किसी की भी सुनो, दुख होगा। क्योंकि दूसरा पछताएगा और दूसरा कहेगा: मैंने पहले कहा था।
आधे ही खुश होओगे; तुम कभी पूरे खुश नहीं हो पाते। धन मिल जाए तो आधे खुश होते हो, पूरे नहीं। क्योंकि आधा हिस्सा जो धन मिलने के कारण अतृप्त रह गया, वह कहता है: क्या मिला? क्या रखा है? वह आधा हिस्सा कहता था: प्रेम खोजो, धन में क्या रखा है?
अगर प्रेम मिल जाए तो वह जो आधा हिस्सा कहता था धन खोजो, वह कहता है: अब क्या रखा है? तो मिल गई यह स्त्री, अब? अब क्या करोगे? खाओगे-पीओगे क्या? मकान कहां है? इससे तो अच्छा था धन कमा लेते, तो मजा-मौज से रहते।
तुम जो भी करोगे पछताओगे; क्योंकि तुम्हारा आधा हिस्सा ही उसे करवाएगा और आधा उसके विरोध में खड़ा है। इसलिए तुम्हारा दुख तो निश्चित ही है। यह करो, वह करो–दुख तो निश्चित ही है।
कैसे सुख होगा? सुख होगा: तुम्हारे भीतर एक समरसता आए। तुम्हारे ये दो विपरीत लड़ने वाले खंड, तुम्हारे भीतर ये कौरव और पांडव लड़ें ना। इनकी भीतर दोस्ती बन जाए। ये साथ-साथ हो जाएं। यह महाभारत बंद हो।
समस्त ध्यान की प्रक्रियाएं, समस्त भक्ति की प्रक्रियाएं अंततः तुम्हारे भीतर इस स्थिति को पैदा करवाती हैं–एक समस्वरता, एक लयबद्धता–जहां विपरीत खो जाते हैं; जहां विरोध विलीन हो जाता है; जहां तुम एक ही हो जाते हो, दो नहीं रहते।
यही तो सारी अद्वैत की शिक्षा है: जहां तुम एक ही हो जाते हो, दो नहीं रहते। जब तक दो हो, तब तक अड़चन है। इसलिए भक्त की जो आत्यंतिक परिणति है, वह भगवान से एक हो जाना है या भगवान को अपने में एक कर लेना है.
या तो भगवान में डूब जाना है या भगवान को अपने में डुबा लेना है। मगर एक ही बचे। भगवान से आशय यहां प्रेमपात्र से है, किसी कथित भगवान से नहीं. इसलिए की प्रेम के अतिरिक्त कहीं कोई परमात्मा नहीं है.