इस बात में कोई शक नहीं कि हरियाणा के चुनाव नतीजों ने लोगों को चौंका दिया है। विपक्ष ही नहीं बल्कि सत्ता पक्ष भी इसको लेकर चकित है। उसे भी इन नतीजों की आशा नहीं थी। दूसरी तरह से कहें तो उन्होंने भी अपनी हार मान ली थी।
पीएम मोदी का हरियाणा के चुनाव प्रचार में कम से कम हिस्सा लेना और उस दौरान उन दूसरे राज्यों में सभाएं करना जिनके चुनाव अभी दूर हैं, इसी बात को साबित करता है।
आलम ये था कि चुनाव के आखिरी दौर में भी मोदी ने हरियाणा में न तो कोई सभा की और न ही रोड शो किया, जो आमतौर पर चुनावों में उनके प्रचार का अभिन्न हिस्सा होता है।
यही नहीं एग्जिट पोल हों या कि हरियाणा से चुनाव के दौरान उठने वाली हवाएं, सब जगहों पर रुझान कांग्रेस के पक्ष में जाता दिख रहा था। बावजूद इसके नतीजे बीजेपी के पक्ष में आए। और अब इसको लेकर कयासों का बाजार गर्म है। कोई उसे ईवीएम के हवाले कर दे रहा है तो कोई अपना गुस्सा कुमारी शैलजा की नाराजगी के सिर फोड़ रहा है।
और कोई हुड्डा की मनमानी को दोष दे रहा है। लेकिन इस बात में कोई शक नहीं कि कोई ऐसी चीज है जिसने किसान से लेकर पहलवान और बेरोजगारी से लेकर महंगाई समेत भीषण सत्ता विरोधी रुझानों के बावजूद बीजेपी के खंभे को बहुत मजबूती से थाम रखा था।
चूंकि इन पंक्तियों के लेखक को भी चुनाव के दौरान हरियाणा के कुछ इलाकों का दौरा करने का मौका मिला था। और इसने बेहद नजदीक से पूरे चुनाव को देखा था। और जो कुछ चीजें देखी थीं उन्हें बताने का मौका आ गया है। यह बात 100 फीसदी सच है कि हवा का रुख विपक्ष यानि कांग्रेस की तरफ था।
आलम यह था कि बीजेपी के झंडे लोगों के घरों से गायब थे। चौक, चौराहों और चट्टी की दुकानों पर कांग्रेस के ही सरकार बनाने की चर्चा थी। जगह-जगह गांवों में बीजेपी नेताओं का बहिष्कार हो रहा था। और उनका चुनाव प्रचार करना तक दूभर हो गया था।
लेकिन एक बात ऐसी थी जो बीजेपी के पक्ष में थी और कांग्रेस के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकती थी। उसको समझना बेहद जरूरी है।
आम तौर पर नहीं लेकिन चुनावी दौरे में जब कुछ खास बुद्धिजीवियों के साथ चुनाव के मसले पर गहराई से बात हुई तो यह बात सामने निकल कर आयी कि सामाजिक समीकरण के मामले में बीजेपी कमजोर नहीं है। और उसके चलते वोट के मोर्चे पर भी उसे बहुत ज्यादा नुकसान नहीं होने जा रहा है।
अब इसको अगर और ठोस रूप दिया जाए तो हरियाणा में बीजेपी ने सत्ता तक पहुंचने के लिए सामाजिक गठजोड़ की जो सीढ़ी तैयार की थी उसमें जाट विरोधी सामाजिक शक्तियों की सोशल इंजीनियरिंग उसकी प्राथमिकता में शामिल था।
और इसको साधते हुए उसने खुद को पिछड़ों, दलितों के एक हिस्से, वैश्य, पंजाबी समेत तमाम बिखरे समुदायों का एक साझा मंच बना दिया था। वो जातियां और सामाजिक तबके जो पिछले कई दशकों के जाट वर्चस्व और उसकी राजनीति के मारे थे उन्होंने बीजेपी की इस छतरी में शरण ले ली थी।
और उसी का नतीजा था कि खट्टर के नेतृत्व में 2014 में बीजेपी की सरकार बनी। और 2019 में भी भले ही उसे सीटें कम मिलीं लेकिन जेजेपी के साथ गठजोड़ कर उसने अपनी फिर से सरकार बना ली।
लेकिन पिछले चुनाव में जिस तरह से उसकी सीटें कम हुई थीं। और जेजेपी का सूपड़ा साफ होने की आशंका बलवती हो गयी थी। उससे विपक्ष के भारी रहने की संभावना बेहद प्रबल हो गयी थी। और उसमें भी किसान आंदोलन ने उसकी नींव को और मजबूत कर दिया था।
ऊपर से महिला पहलवानों का गुस्सा पूरे समाज को झकझोरने के लिए काफी था। रही-सही कसर अग्निवीर मसले ने पूरी कर दी थी। जिसके खिलाफ जाटों और खासकर युवकों में बेहद नाराजगी थी।
ऊपर से चौतरफा बेरोजगारी और महंगाई की मार हर घर को सता रही थी। और इन सबसे ऊपर पिछले दस सालों का सत्ता विरोधी रुख विपक्ष के लिए सत्ता का लाल कालीन साबित होता दिख रहा था। बावजूद इसके विपक्ष उस पर सरपट दौड़ने की जगह नतीजों में औंधे मुंह गिर गया।
राजनीति के बड़े-बड़े पंडित भी इस रहस्य को नहीं सुलझा पा रहे हैं। लेकिन हरियाणा का दौरा करने वाले किसी शख्स के लिए जिसने चुनावी जमीन को बेहद करीब से देखा हो, यह कोई रहस्य नहीं है।
दरअसल बीजेपी और कांग्रेस वोट बैंक के मामले में एक दूसरे के बराबर खड़ी थीं। और ज्यादा स्पष्ट तरीके से कहा जाए तो एक तरह से उसमें बीजेपी कांग्रेस से बेहतर ही स्थिति में थी।
कांग्रेस सामाजिक स्तर पर केवल जाटों और दलितों के साथ अल्पसंख्यक या फिर कहा जाए कि मुसलमानों के वोट बैंक के ही सहारे थी। इसमें जाट हरियाणा में 25 फीसदी हैं। और दलितों की आबादी 21 फीसदी है।
मुसलमानों का बड़ा केंद्रीयकरण मेवात में हैं और कुछ अन्य जगहों को मिलाकर इनकी आबादी 7 फीसदी से ज्यादा नहीं है। जबकि पिछड़ों की आबादी तकरीबन 40 फीसदी है। इसके साथ ही वैश्य, पंजाबी समेत दूसरी अन्य जातियां हैं। जो 7 से 8 फीसदी के बीच हैं।
अब इनका बहुमत हिस्सा किस पार्टी के साथ खड़ा होता है अगर उसका लेखा-जोखा लिया जाए तो तस्वीर कुछ यूं उभरती है। कांग्रेस जाट और दलितों और उसमें भी अकेले जाटवों के साथ ही मुसलमानों के वोटों पर भरोसा कर रही थी।
जबकि बीजेपी के पास जाट विरोधी पिछड़े से लेकर दलितों के जाटव से इतर जातियों जिसमें वाल्मीकि, धानुक, सैंसी समेत कई जातियां आती हैं, और वैश्य और पंजाबियों का वोट था।
अब इसमें अगर हिसाब लगाइये तो जाटों और मुसलमानों का 80 फीसदी वोट कांग्रेस को दे दीजिए तो वह तकरीबन 27 फीसदी होता है और इसमें दलितों के आधे जाटवों के हिस्से को जोड़ दीजिए तो वह बढ़कर 37 फीसदी हो जाता है।
जबकि बीजेपी के पास अगर पिछड़ों का 70 फीसदी और दलितों का 50 फीसदी तथा वैश्यों और पंजाबियों का 50-50 फीसदी भी जोड़ दिया जाए तो यह कांग्रेस के आंकड़ों को भी पार कर जाएगा।
लेकिन लोगों को इस बात की उम्मीद थी और जो बिल्कुल वाजिब भी थी कि किसान आंदोलन न केवल जाटों बल्कि समाज के दूसरे तबकों के किसानों को भी प्रभावित करेगा और वह कांग्रेस के साथ खड़े होंगे। बेरोजगारी और महंगाई की मार दूसरे तबकों पर भी उतनी ही पड़ रही है जितनी की जाटों पर।
और एक दूसरे तरीके से कहें तो गरीबों, दलितों और पिछड़ों पर दूसरों के मुकाबले कुछ ज्यादा ही था। महिला पहलवानों के सम्मान का मुद्दा भी पूरे सूबे का ही था लिहाजा वह समाज के हर हिस्से को प्रभावित किया होगा।
और ये सारी चीजें अगर काम कर गयीं तो कांग्रेस के पक्ष में एक अच्छी खासी गोलबंदी हो जाएगी। जो तमाम रूढ़ किस्म के स्थाई सामाजिक समीकरणों को सरपास कर जाएगा। जैसा की चुनावों में आमतौर पर होता है। लेकिन शायद हरियाणा में ऐसा नहीं हो सका।
इसके पीछे ठोस वजहें हैं। राजनीति अब जमीन पकड़ रही है। वह ऊपरी नारों से ज्यादा जमीनी सच्चाइयों के सहारे चल रही है। यह बात किसी को नहीं भूलनी चाहिए कि हरियाणा में पहली बार सत्ता जाटों से हटकर सामाजिक स्तर पर उससे नीचे के तबकों के पास गयी थी।
जिसके चलते उन सामाजिक तबकों को जाटों के वर्चस्व और हर तरह के उत्पीड़न से न केवल निजात मिली थी बल्कि उन्होंने सत्ता में रहने का पहली बार सुख हासिल किया था। और यह पिछले दस सालों तक चला था। अनायास नहीं जाटों ने बीजेपी के साथ समझौता करने वाली जेजेपी को अपना गद्दार घोषित कर दिया था।
जिसका नतीजा यह रहा कि जाटों ने उसको सजा दी और इस चुनाव में उसका सूपड़ा साफ हो गया। अगर एक समुदाय के तौर पर जाट इस तरह से व्यवहार कर रहे थे, तो दूसरे समुदाय क्या अपने हितों के बारे में नहीं सोच रहे होंगे?
ऐसे में उस तबके लिए जिसने बदलाव की खुली हवा में सांस लिया था और उसे सत्ता का नया-नया एहसास हुआ था, वह अचानक कैसे एक बार फिर इतिहास के पहिये को उसी दौर में ले जाने के लिए तैयार हो जाएगा जिसमें उसके हाथ एक बार फिर से उत्पीड़न और तमाम तरह की जहालत ही लगने की आशंका थी।
इसके पीछे ठोस कारण थे। हरियाणा में कांग्रेस की कमान और चुनाव के बाद बहुमत आने पर मुख्यमंत्री की कुर्सी भूपेंद्र सिंह हुडा के हाथ जाने वाली थी। जिनके शासन में मिर्चपुर और गोहाना जैसे भयंकर उत्पीड़न के कांड हुए थे, जिसके दाग आज भी हरियाणा की पीठ पर चस्पा हैं।
और दलित उसको आज भी भुला नहीं सके हैं। जिस तरह से कांग्रेस ने पूरी कमान हुड्डा के हाथ में दे दी थी, यहां तक कि सूबे के दूसरे बड़े नेताओं कुमारी शैलजा और रणदीप सिंह सुरजेवाला को बिल्कुल किनारे लगा दिया गया था।
और यह बात किसी से छुपी नहीं थी। शैलजा का दर्द तो चुनाव के दौरान ही फूट पड़ा। और उन्होंने कुछ दिनों तक चुनाव प्रचार में हिस्सा ही नहीं लिया।
बाद में जब हाईकमान ने उनकी मान मनव्वल की तब उन्होंने चुनाव में हिस्सा तो जरूर लिया लेकिन पूरे बेमन से। लेकिन उसका संदेश दलितों में जा चुका था। और जो नुकसान होना था वह हो चुका था। जिसमें यह बात छुपी थी कि सत्ता में आने पर दलितों को बहुत ज्यादा कुछ नहीं मिलने वाला है।
पूरी सत्ता जाटों की होगी। और उसमें भी हुड्डा परिवार उसके केंद्र में होगा और राजधानी एक बार फिर चंडीगढ़ नहीं बल्कि रोहतक होने जा रही है। इस अकेली बात ने कांग्रेस को बहुत नुकसान पहुंचाया। अब इसका आकलन कांग्रेस को करना चाहिए कि उसने क्यों हरियाणा में भी एक दूसरे कमलनाथ को इस तरह से खुली छूट दी।
इस बात में कोई शक नहीं कि राहुल गांधी सूबे में आकर्षण के केंद्र थे। और सामाजिक न्याय के उनके नारे की अपील थी। जिसमें जाति जनगणना से लेकर जातियों की संख्या के आधार पर सत्ता में भागीदारी की बात शामिल थी। लेकिन इसको जमीन पर ले जाने वाली न तो कोई एजेंसी थी और न ही उस तरह का कैडर।
राहुल गांधी को एक बात सोचनी होगी कि वह जो नारे उछाल रहे हैं, उसको लागू कौन करेगा? सूबों में अभी भी पुराने क्षत्रप अपनी जड़ें जमाए हुए हैं, उनके पास काम करने का पुराना ही तरीका है और सोच-समझ के स्तर पर भी वह बदलने नहीं जा रहे हैं।
तब क्या राहुल गांधी के पास अपनी कोई मशीनरी है जिससे वह अपने एजेंडे को जनता तक पहुंचा सकें। ऐसा बिल्कुल नहीं है। पार्टी का ढांचा और कैडर की बात तो छोड़ दीजिए उसकी अपनी कोई स्वतंत्र फंक्शनिंग ही नहीं है। वहां नेता हैं और उनके समर्थक हैं।
अगर नेता किन्हीं कारणों से बैठ गया उसके पूरे समर्थक भी निष्क्रिय हो जाएंगे। यही हुआ हरियाणा में। पूरे चुनाव का अभियान हुड्डा देख रहे थे। शैलजा नाराज थीं, दिल्ली में बैठी थीं और सुरजेवाला साहब कैथल में सिमट कर अपने बेटे के चुनाव अभियान का संचालन कर रहे थे।
इससे आप समझ सकते हैं कि पार्टी की ताकत कितनी कमजोर हो गयी थी। लेकिन यह कांग्रेस है, वह तो उसी तरह से काम करती है। सामान्य स्थितियों में तो यह संभव हो जाता है।
लेकिन जब सामने बीजेपी जैसी पार्टी हो जिसका कैडर और संगठन का आधार इतना मजबूत हो कि घर-घर तक उसकी पकड़ हो तब यह काम नहीं कर पाता है। और फिर उस मोर्चे पर उसे मात खानी पड़ती है।
इस लेखक के साथ बातचीत में कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुभाष सैनी ने बताया कि बीजेपी-संघ ने अलग-अलग जातियों से जुड़े प्रभावशाली नेताओं और कार्यकर्ताओं का ह्वाट्सएप ग्रुप बना रखा है और उनके अपने सामाजिक मुद्दों के हिसाब से वे उसमें पोस्ट डालते हैं और बहसें संचालित करते रहते हैं।
इससे समाज के निचले और उसके बड़े हिस्से तक पार्टी का जीवंत संपर्क बना रहता है। और पार्टी लगातार उनके बीच सक्रिय रहती है।
क्या कांग्रेस के बारे में भी यह दावे के साथ कहा जा सकता है। जो लोग कांग्रेस की कार्यप्रणाली से परिचित हैं वो जानते हैं, कि जोड़ने की बात तो छोड़ दीजिए उसके नेता काटने में ज्यादा विश्वास करते हैं। ऐसे में राहुल गांधी अगर देश में नई राजनीति की शुरुआत करना चाहते हैं, तो उन्हें सबसे पहले उसके लिए अपनी पार्टी के ढांचे और उसके नेताओं को ठीक करना होगा।
ऐसे नेताओं को जिम्मेदारी देनी होगी जो वैचारिक तौर पर परिपक्व हों और उनके विचारों को आगे बढ़ाने में सहायक हों। इसके साथ ही जिस प्रतिनिधित्व की बात वह सत्ता और सरकार में कर रहे हैं, उसे अपनी पार्टी के स्तर पर सबसे पहले गारंटी करनी होगी। क्या राहुल गांधी ऐसा कुछ कर पा रहे हैं?
अगर जमीन पर जाकर देखियेगा तो वह अकेले खड़े मिलेंगे। वह भले ही सामाजिक न्याय की बात कर रहे होंगे, लेकिन उनके नेता अपने पूरे सवर्ण वर्चस्व और हर तरह के पुराने दकियानूसी विचारों के साथ खड़े मिलेंगे।
जो राहुल के विचारों को आगे ले जाने की बात तो दूर उसके सामने लौह दीवार बनकर खड़े हो जाएंगे। अब ऐसी स्थिति में भला कांग्रेस की राजनीति कितना आगे बढ़ सकेगी?
लेकिन मामला इतने में ही हल नहीं होने जा रहा है। बीजेपी के साथ अगर कांग्रेस प्रतियोगिता में उतर रही है तो उसे इन सामाजिक तबकों को केंद्रित करने के साथ ही कैडर और संगठन में बदलाव करना ही काफी नहीं होगा। बल्कि नीतियों के स्तर पर भी समाज और देश के सामने मुंह बाए खड़ी समस्याओं का उसे समाधान तलाशना होगा।
और इस दौर में मोदी सरकार से लेकर सूबे में कार्यरत बीजेपी सरकारों की नीतियों का पर्दाफाश करना होगा। और उसकी वैकल्पिक नीति क्या हो सकती है उसको सामने लाना होगा। इस दूसरे फ्रंट पर भी राहुल गांधी पूरी तरह से नाकाम रहे हैं।
लिहाजा इस मामले पर पार्टी को गंभीरता से सोचना चाहिए। वरना राहुल गांधी की पूरी बात एक जुमला बन कर रह जाएगी। जिसका न तो कोई खरीदार होगा और न ही पालनहार।
भूपेंद्र सिंह हुड्डा के खिलाफ दूसरे तबकों में गुस्से का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि खुद उनके अपने गृह जिले रोहतक में उनके प्रत्याशी जीते तो ज़रूर हैं, लेकिन उनकी जीत की मार्जिन कहीं एक हजार है तो कहीं दो हजार। यह बताता है कि उनके खिलाफ भी अपने किस्म की एंटी इंकम्बेसी काम कर रही थी।
और शैलजा से उनकी खुली अनबन के बाद यह और कंसालिडेट हो गयी होगी। जाट के बाद जिस दूसरे तबके पर कांग्रेस भरोसा कर रही थी वह दलित था।
उसका पहले से ही पचास फीसदी हिस्सा बीजेपी का समर्थक रहा है। और ऊपर से शैलजा को नाराज कर हुड्डा ने जाटवों के भी एक हिस्से में पार्टी को लेकर सवाल खड़े करने का मौका दे दिया।
अनायास नहीं है कि कब यह चुनाव किसान-बेरोजगार-पहलवान और अग्निवीर के मुद्दों से हटकर अचानक जाटों का चुनाव हो गया। और उसमें हुड्डा उसके केंद्र में आ गए। किसी को पता ही नहीं चला।
रही बात ईवीएम की। अगर कांग्रेस के प्रवक्ता समेत कुछ लोग इसी को मुद्दा बना रहे हैं तो वह सच्चाई से मुंह मोड़ना होगा। इस बात में कोई शक नहीं कि चुनाव आयोग पूरी तरह से सत्ता पक्ष के साथ ही नहीं खड़ा है बल्कि उसके इशारे पर काम कर रहा है।
और वह चुनाव की तारीखों को तय करने से लेकर काउंटिंग तक में दिखा है। लेकिन यह कहना कि उसी की बदौलत या फिर उसके हेर-फेर करने से बीजेपी सत्ता में आ गयी तो सच्चाई को नकारना होगा। और इस तरह के किसी नतीजे पर पहुंचने पर असली समस्या गौण हो जाएगी जिससे कांग्रेस या फिर विपक्ष जूझ रहा है।
लिहाजा यह बात माननी होगी कि प्राथमिक तौर पर किसी चुनाव आयोग नहीं बल्कि सामाजिक राजनीतिक समीकरणों के चलते कांग्रेस चुनाव हारी है। और इस बात में कोई शक नहीं कि चुनाव आयोग बीजेपी की इस जीत में अपने किस्म के फैसिलिटेटर की भूमिका में रहा।
इसलिए असली जो समस्या है कांग्रेस को उस पर फोकस करना चाहिए बनिस्बत इधर-उधर हार के कारणों की तलाश करने के। यह खुद को अंधेरे में रखने वाली बात होगी। इससे न तो कांग्रेस का भला होगा और न ही उस जनता का जिसको बीजेपी के फासिस्ट चंगुल से उसे निजात दिलानी है।