भारत की आजादी के आंदोलन में एक-एक भारतीय ने शौर्य और संकल्प का अद्भुत उदाहरण पेश
किया। आजादी के लिए अपना जीवन दांव पर लगाने वाले असंख्य देशभक्तों के त्याग और पराक्रम
से भारत ने स्वतंत्रता हासिल की थी। अंग्रेजों को देश से भगाने के लिए स्वतंत्रता सेनानियों ने बड़ी-
बड़ी योजनाएं बनाई और इसके लिए सतत प्रयास किए। ऐसे ही नायकों में अक्कम्मा चेरियन का
नाम भी शामिल है जिन्हें देश की आजादी में योगदान देने के लिए महात्मा गांधी ने ‘त्रावणकोर की
झांसी की रानी’ तक कहा था। ऐसे ही स्वतंत्रता सेनानियों में विचित्र नारायण शर्मा, भाई बालमुकुंदऔर रमेश चंद्र झा का नाम भी शामिल है जिन्होंने भारत की आजादी के लिए अपना सर्वस्वन्यौछावर कर दिया। आजादी के अमृत महोत्सव की इस श्रृंखला में इस बार जानिये इन्हीं स्वतंत्रता
सेनानियों की कहानी……
अक्कम्मा चेरियन
त्रावणकोर की झांसी की रानी
जन्म : 14 फरवरी 1909, मृत्यु : 05 मई 1982
‘मैं नेता हूं, दूसरों को मारने से पहले मुझे गोली मारो।’अक्कम्मा चेरियन ने इन शब्दों को तब कहा
था जब 1938 में वे कर्नल वॉटसन के सामने इतनी निडरता, जुनून और धैर्य के साथ खड़ी थीं कि उसे
अपना आदेश वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा जिससे एक बड़ा नरसंहार टाला गया। अक्कम्मा
चेरियन का जन्म 14 फरवरी 1909 को कांजीरापल्ली, त्रावणकोर (वर्तमान केरल) के एक छोटे से गांव
में हुआ था। पेशे से शिक्षिका थीं लेकिन उनका असली सपना देश को आजाद देखना था। इसलिए
उन्होंने भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने के लिए अपनी प्रतिष्ठित नौकरी छोड़ दी।
त्रावणकोर में लोगों ने एक सार्वजनिक प्रदर्शन करने का फैसला किया जिसे वहां के दीवान ने अपनी
शक्तियों का उपयोग करते हुए अगस्त 1938 में दबा दिया। इस घटना ने सविनय अवज्ञा आंदोलन
को जन्म दिया जो केरल में अपनी तरह का पहला आंदोलन था। नेताओं को कैद कर लिया गया और
आंदोलन छिन्न-भिन्न हो गया। ऐसा कहा जाता है कि त्रावणकोर राज्य कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष ने
गिरफ्तारी से ठीक पहले अक्कम्मा चेरियन को अपने उत्तराधिकारी के रूप में नामित किया क्योंकि
उन्होंने पाया कि वे एक साहसी, दिलेर और प्रतिभाशाली महिला थीं। अक्कम्मा चेरियन ने एक विशाल
रैली का आयोजन किया जिसका उद्देश्य जेल में बंद नेताओं को रिहा करने और त्रावणकोर में एक
जिम्मेदार सरकार स्थापित करने के लिए शासकों पर दबाव बनाना था। अक्कम्मा उस समय 29 वर्ष
की थीं। वह इस कार्य की गंभीरता से अवगत थी और जानती थी कि इसके परिणाम क्या हो सकते
हैं फिर भी उन्होंने स्वेच्छा से यह काम किया। ऐसा कहा जाता है कि बहादुर अक्कम्मा के नेतृत्व में
हुए विरोध प्रदर्शन में 20,000 से अधिक लोग शामिल हुए थे। देश भर में लोगों ने उनके अदम्य
साहस के लिए उनकी प्रशंसा की और महात्मा गांधी ने उन्हें ‘त्रावणकोर की झांसी की रानी’ की
उपाधि दी।
अक्टूबर 1938 में, अक्कम्मा को पार्टी द्वारा ‘देससेविका संघ’ (महिला स्वयंसेवी दल) को संगठित
करने का काम सौंपा गया। उन्होंने देश भर में यात्रा की और महिलाओं से ‘देससेविका संघ’ के सदस्य
के रूप में शामिल होने की अपील की। उनके अथक प्रयासों से स्थानीय निकायों में महिला
स्वयंसेवकों की संख्या में वृद्धि हुई। 24 दिसंबर 1939 को उन्होंने त्रावणकोर राज्य कांग्रेस के वार्षिक
सम्मेलन में भाग लिया जिसके लिए उन्हें एक साल के कारावास की सजा सुनाई गई। उन्हें जेल में
परेशान किया गया। उनके साथ दुर्व्यवहार किया गया और प्रताड़ित किया गया।
जेल से रिहा होने के बाद वे एक पूर्णकालिक पार्टी कार्यकर्ता बन गईं और फिर पार्टी की अध्यक्ष बनीं।
अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने 1942 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के बॉम्बे अधिवेशन में पारित
भारत छोड़ो प्रस्ताव का स्वागत किया। अक्कम्मा को प्रतिबंध के आदेशों का उल्लंघन करने और
विरोध प्रदर्शन करने के लिए कई बार गिरफ्तारी का सामना करना पड़ा लेकिन इससे भी वह अपने
लक्ष्य से विचलित नहीं हुईं। स्वतंत्रता के बाद वह 1947 में त्रावणकोर विधानसभा के लिए चुनी गईं
और 1967 में सक्रिय राजनीति छोड़ने के बाद स्वतंत्रता सेनानियों के पेंशन सलाहकार बोर्ड के सदस्य
के रूप में कार्य किया। अक्कम्मा चेरियन का 05 मई 1982 को निधन हो गया।
विचित्र नारायण शर्मा
आजादी के आंदोलनों में लिया भाग और कई बार गए जेल
जन्म :10 मई, 1898, मृत्यु : 31 मई, 1998
उतराखंड राज्य के टिहरी गढ़वाल के टिंगरी गांव के मूल निवासी विचित्र नारायण शर्मा का जन्म 10
मई, 1898 को देहरादून के नवादा गांव में हुआ था। वह बचपन से ही देशभक्ति की भावना से ओत-
प्रोत थे। हाईस्कूल की परीक्षा देहरादून से उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने स्नातक की शिक्षा बनारस से
ग्रहण की। हालांकि, इस बीच वह देश भर में चल रहे आजादी के आंदोलन की ओर आकर्षित हुए। ऐसे
में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर वह आचार्य जे. बी. कृपलानी के नेतृत्व में
स्वाधीनता संग्राम में कूद गये। विचित्र नारायण शर्मा खादी के काम से जीवन भर जुड़े रहे और
कृपलानी के सहयोगी बन कर गांधी आश्रम की स्थापना में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। वे देश
में खादी आश्रम स्थापित करने वालों में एक प्रमुख व्यक्ति थे। इसके बाद वे जीवनपर्यंत स्वतंत्रता
संग्राम और खादी ग्राम उद्योग के प्रचार-प्रसार के लिए कार्य करते रहे।
सन 1930 से 1942 तक वह महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलाए जा रहे आंदोलनों में निरंतर भाग लेते
रहे और अनेक बार गिरफ्तार हुए। देश को आजादी मिलने के बाद उन्होंने मेरठ को अपना कर्मक्षेत्र
बनाया और सामाजिक क्षेत्र में काम करने का निर्णय लिया। इसके बाद विचित्र नारायण शर्मा सन
1952, 1957 और 1962 में उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए निर्वाचित होकर मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ
पंत और डॉ. संपूर्णानंद के मंत्रिमंडल के सदस्य रहे। वह जीवनभर महात्मा गांधी के आदर्शों पर चलते
रहे और रचनात्मक सामाजिक कार्यों में लगे रहे। वर्ष 1993 में उन्हें जमनालाल बजाज पुरस्कार से
सम्मानित किया गया। उनके जीवन की एक अन्य उल्लेखनीय विशेषता यह थी कि उन्होंने आजादी
के बाद स्वाधीनता सेनानी पेंशन को गांधी आश्रम को समर्पित कर दिया। वह महज पूर्व विधायक की
पेंशन से अपना जीवन-यापन करते रहे। देश के प्रमुख गांधीवादी नेताओं में एक रहे विचित्र नारायण
शर्मा को उनके सहयोगी ‘विचित्र भाई’ के नाम से पुकारते थे। जन्म की शताब्दी पूर्ण करने के बाद
31 मई, 1998 को मेरठ में ही उनका निधन हो गया।
रमेश चंद्र झा
लेखन से किया आजादी की लड़ाई के लिए प्रेरित
जन्म : 8 मई 1928, मृत्यु : 07 अप्रैल 1994
भारतीय स्वाधीनता संग्राम में सक्रियता से हिस्सा लेने और साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय भूमिका
निभाने वाले रमेश चंद्र झा का जन्म 8 मई 1928 को बिहार के चंपारण जिले के फुलवरिया गांव में
हुआ था। उन्होंने कविताएं, गजलें, कहानियां और उपन्यास लिखे। उनकी लेखनी में देशभक्ति की
भावना भरी थी जिसने लोगों को अंग्रेजों से लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित किया। रमेश चंद्र झा के पिता
लक्ष्मी नारायण झा
जाने-माने देशभक्त और स्वाधीनता संग्राम सेनानी थे जिन्हें अंग्रेजों ने कई बार गिरफ्तार किया था।
लक्ष्मी नारायण झा तब भी गिरफ्तार किए गए थे जब महात्मा गांधी सत्याग्रह के लिए चंपारण आए
थे। अपने तात्कालिक परिवेश और पिता से प्रभावित होकर रमेश चंद्र झा बचपन में ही आजादी के
आंदोलन की तरफ उन्मुख हुए और स्वतंत्रता संग्राम में शामिल हो गए।
रमेश चंद्र झा विद्यार्थी नेता बन गए और अंग्रेजों के विरूद्ध प्रदर्शन करने के कारण उन्हें स्कूल से
निकाल दिया गया। महज 14 साल की आयु में उन पर चोरी का आरोप लगाया गया। वह देश की
आजादी के लिए काम करने लगे। कहा जाता है कि उनकी सक्रियता ने अंग्रेजी शासन को परेशान
करके रख दिया था। सन 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के लिए उन्हें जेल भेजा
गया। जेल में रहते हुए उन्होंने भारतीय साहित्य का अध्ययन किया और आजादी के बाद राजनीति में
जाने के बजाय लेखन क्षेत्र को चुना। इस प्रकार स्वाधीनता के बाद वह कविताएं, गजलें और उपन्यास
लिखने लगे। उनकी प्रमुख पुस्तकों में भारत देश हमारा, जय भारत जय गांधी, जवान जागते रहे और
चलो दिल्ली शामिल है। उनका उपन्यास अपने और सपने : चंपारण की साहित्य यात्रा, चंपारण की
समृद्ध साहित्यिक विरासत की कहानी है। उनकी कविताओं, कहानियों और गजलों में जहां एक तरफ
देशभक्ति और राष्ट्रीयता का स्वर है, तो वहीं दूसरी तरफ मानव मूल्यों और जीवन के संघर्षों की भी
अभिव्यक्ति है। आम लोगों के जीवन का संघर्ष, उनके सपने और उनकी उम्मीदें रमेश चंद्र झा की
कविताओं के मुख्य स्वर हैं। 15 अगस्त 1972 को आजादी की 25वीं वर्षगांठ पर उन्हें ताम्र पत्र
पुरस्कार से नवाजा गया। इसके अलावा भी उन्हें कई सम्मान से सम्मानित किया गया। सात अप्रैल
1994 को रमेश चंद्र झा का निधन हो गया।
भाई बालमुकुंद
विस्फोट की घटनाओं के लिए सुनाई गई मौत की सजा
जन्म : 1889, मृत्यु : 8 मई, 1915
क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानी भाई बालमुकुंद का जन्म झेलम जिले के करियाला गांव में 1889 में हुआ
था, जो अब पाकिस्तान में है। इनके पिता का नाम भाई मथुरादास था और वह स्कूल में अध्यापक
थे। बालमुकंद सक्रिय रूप से राष्ट्रवादी गतिविधियों में शामिल थे और एक क्रांतिकारी दल के सदस्य
थे। उन्हें हथियार चलाने और बम फेंकने का प्रशिक्षण दिया गया था। रास बिहारी बोस उनके गुरु थे।
बालमुकुंद को पंजाब और विशेष रूप से लाहौर में कार्य के लिए एक नेता के रूप में नियुक्त किया
गया था। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने आजादी से जुड़े पोस्टर दीवारों पर चिपकाने और पर्चे
बांटने का काम किया।
भाई बालमुकुंद के परिवार में अपने सिद्धांतों पर मर मिटने की प्रथा बड़ी पुरानी थी। भाई बालमुकुंद
के चचेरे भाई का नाम भाई परमानंद था जो गदर पार्टी के संस्थापक सदस्य थे। उनके परिवार का
संबंध सिख इतिहास के एक प्रसिद्ध शहीद भाई मति दास से था। यही कारण है कि उन्होंने अपने
नाम के साथ भाई उपाधि जोड़ी। भाई बालमुकुंद की रुचि राष्ट्रीय आंदोलन में तब जागी जब वे छात्र
थे। स्नातक स्तर की पढ़ाई के बाद उन्होंने अध्यापन का पेशा अपनाया लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन के
प्रति उनके लगाव ने उन्हें एक उत्साही राष्ट्रवादी बना दिया। वह उन लोगों में से एक थे जो इस बात
से सहमत थे कि क्रिसमस वीक डांस के दौरान लाहौर के मोंटगोमरी हॉल में एक बम फेंका जाना
चाहिए और दूसरा वायसराय की कपूरथला यात्रा के दौरान फेंका जाना चाहिए। 23 दिसंबर, 1912 को
जब लॉर्ड हार्डिंग दिल्ली के चांदनी चौक से जा रहे थे तो उन पर बम फेंका गया था। इस घटना में
वायसराय को केवल मामूली चोटें आईं लेकिन उनका सहायक मारा गया। पांच महीने बाद 17 मई,
1913 को लाहौर के लॉरेंस गार्डन में कुछ यूरोपीय लोगों पर एक और बम फेंका गया। जांच के बाद,
बालमुकुंद को जोधपुर से गिरफ्तार किया गया था जहां वह जोधपुर महाराजा के पुत्रों काे शिक्षा देने
का काम कर रहे थे। बाद में उन पर दिल्ली में मुकदमा चलाया गया। बम विस्फोट की घटनाओं के
लिए बालमुकुंद को मौत की सजा सुनाई गई। 8 मई, 1915 को उन्हें फांसी दे दी गई। भाई बालमुकुंद
का विवाह फांसी दिए जाने से एक साल पहले ही हुआ था। l