सुबह चाय का मजा लेते हुए अखबार पलट रहा था। पहले पन्ने पर हेडलाइन पर नजरें दौड़ा. सुर्खियों में लिखा था “जिन्हें हिंदी नहीं आती उन्हें केंद्र सरकार की नौकरी नहीं मिलेगी”! इसके साथ ही कुछ और बातें भी कही गईं, जो इस प्रकार था. “केंद्रीय भर्ती परीक्षाओं का प्रश्न पत्र हिंदी भाषा में ही जारी किया जाना है. कार्यालयों में अंग्रेजी के वर्तमान उपयोग को पूरी तरह से हिंदी में बदल दिया जाना है । राज्य सरकार के कार्यालयों में राजभाषा नीति के कार्यान्वयन की समीक्षा करने के लिए एक संसदीय समिति को अधिकार दिया जाना चाहिए। हिंदी में कार्य न करने वाले अधिकारी/कर्मचारियों से स्पष्टीकरण मांगा जायेगा और उत्तर संतोषजनक न होने पर उनकी वार्षिक कार्य निष्पादन रिपोर्ट में नकारात्मक टिप्पणी दर्ज की जायेगा । केन्द्रीय विद्यालयों, नवोदय और गैर-तकनीकी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में हिंदी को अनिवार्य किया जायेगा आदि.”
ये केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की अध्यक्षता वाली संसद की राजभाषा समिति द्वारा राष्ट्रपति को सौंपी गई सिफारिशें हैं। याद रखें, हम एक ऐसे देश के बारे में बात कर रहे हैं जिसका संविधान 22 आधिकारिक भाषाओं के समान व्यवहार और प्रचार को अनिवार्य करता है।
यदि एक निष्पक्ष पाठक इन सिफारिशों पर संदेह करता है, तो उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता है। पूछ सकते हैं, क्या हिंदी के सख्त क्रियान्वयन से देश के उन 80 करोड़ लोगों की किस्मत बदल जाएगी, जिन्हें जिंदा रखने के लिए केंद्र सरकार को 5 किलो चावल देना पड़ रहा है ? क्या हिन्दी को इस प्रकार लागू करने से देश के 10 प्रतिशत धनी लोगों द्वारा हड़पी गई देश की 65% संपत्ति भारत की जनता में समान रूप से बाँट दी जाएगी? अगर इस तरह हिंदी के लागू होने से देश के बेरोजगार युवाओं को नौकरी मिल जाएगी?
यहां यह जानना जरूरी है कि भारत के सबसे गरीब लोग उन राज्यों में हैं जहां नियमित रूप से हिंदी पढ़ाई जाती रही है। नीति आयोग के नवीनतम रिपोर्ट के आधार पर उत्तर प्रदेश में 37.79%, मध्य प्रदेश में 36.65%, बिहार में 51.91% और झारखण्ड में 42.16% गरीबी है. जबकि गैर-हिंदी भाषी राज्य केरल में 0.7%, तमिलनाडु में 4.8% आंध्रा प्रदेश में 12.3, कर्णाटक में 13.2 और तेलंगाना में 13.7 है। इससे सिद्ध होता है कि देश की प्रगति किसी भाषा विशेष को बोलने या लिखने से नहीं, बल्कि उचित तरीके से योजना बनाकर कार्य करने से होता है, तर्कसंगत और वैज्ञानिक गति से देश को चलाने से होता है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक या किसी अन्य राज्य में कारखानों में मशीन चलाने वाले लोगों के लिए हिंदी जानना आवश्यक नहीं है। मशीन किसी विशेष भाषा पर ध्यान नहीं देती है।
अमित शाह की रिपोर्ट में भारत को हिंदू राष्ट्र की ओर ले जाने की बू आती है। 1948 में आरएसएस ने भारत की संविधान सभा के सामने मनुस्मृति को भारत के संविधान बनाने के मांग रखा, जिसे नकार दिया गया था. इस रिपोर्ट में आरएसएस द्वारा प्रचारित “हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान” के दूसरे रूप देखा जा सकता है। यह न केवल धर्म के आधार पर बल्कि भाषा के आधार पर भी देश को बांटने का प्रयास है; 2024 के चुनाव के लिए हिंदी पट्टी के लोगों में स्वाभिमान जगाने का प्रयास है।
लोक जतन से…