पंकज श्रीवास्तव
पूरी दुनिया में हिंदू धर्म के औदात्य का आभास देने वाले स्वामी विवेकानंद की आज जयंती है। उनके शिकागो भाषण की आज भी चर्चा होती है जिसकी शुरुआत ‘भाइयों-और बहनों’ से हुई थी न कि ‘लेडीज़ ऐँड जेंटलमेन्स’ से। यानी स्वामी विवेकानंद वहाँ ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का भाव व्यक्त कर रहे थे यानी पूरी धरती एक परिवार है। इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में अपने-पराये की बात करने वालों को ‘नीच’ कहा गया है।
अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् | उदारचरितानां तु वसुधैवकुटुम्बकम्
संसद के प्रवेश द्वार पर अंकित इस श्लोक का पूरा अर्थ है-
‘यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों के लिए तो सम्पूर्ण धरती ही परिवार है।’
अफ़सोस की बात ये है कि स्वामी विवेकानंद को वे हिंदुत्ववादी भी अपना नायक बताते हैं जो रात दिन केवल ‘अपने- पराये’ की बात करते हैं और जिन्होंने मुसलमानों को ख़िलाफ़ ख़ासतौर पर नफ़रत का ज़हर फैलाना अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया है।
जबकि स्वामी विवेकानंद न सिर्फ इस्लाम की मूल शिक्षाओं के प्रशंसक थे बल्कि ‘वेदांती बुद्धि और इस्लामी शरीर के मेल में भारत का भविष्य’ देखते थे।
कुछ साल पहले प्रधानमंत्री मोदी ने ठीक कहा था कि ”अगर स्वामी विवेकानंद के विश्व-बंधुत्व के संदेश का अनुसरण किया जाता, तो इतिहास को 9/11 जैसे नृशंस कृत्य नहीं देखने पड़ते।’
यह सौ टके की बात है यह। लेकिन 9/11 ही क्यों, अगर भारत के स्वनामधन्य “राष्ट्रवादियों” ने स्वामी जी के संदेश पर अमल किया होता तो अयोध्या और गुजरात की नृशंसता भी ना देखनी पड़ती। जी हां, भारत के भविष्य के लिए ऐसी ही सीख दे गये हैं स्वामी विवेकानंद। उन्होंने कहा-
‘हम मनुष्य जाति को उस स्थान पर पहुंचाना चाहते हैं जहां न वेद है, न बाइबिल है, न क़ुरान है, परंतु ऐसा वेद, बाइबिल और कुरान के समन्वय से ही हो सकता है।… हमारी मातृभूमि के लिए हिंदू और मुसलमान, इन दोनों विशाल संप्रदायों का सामंजस्य वेदांती बुद्धि और इस्लामी शरीर से ही संभव है, यही मेरी एकमात्र आशा है।’
समाज को सांप्रदायिक नफ़रत में डुबोकर सत्ता का सिंहासन हासिल करने वाले जब स्वामी विवेकानंद की जय-जयकार करें तो उनसे पूछा जाना चाहिए कि स्वामी विवेकानंद की फोटो तो खूब लगाई, पढ़ोगे कब..? कहां तुम्हारी डगर और कहां स्वामी विवेकानंद के विचार.! क्या विवेकानंद को भी ‘सिकुलर’ और ‘शेखुलर’ कहोगे?
यही नहीं, स्वामी विवेकानंद खुद को ‘समाजवादी’ कहने से भी नहीं हिचकते थे। उन्होंने इक्कीसवीं सदी को शूद्रों की सदी बताते हुए लिखा कहा था–
“मानव समाज का शासन क्रमशः एक दूसरे के बाद चार जातियों द्वारा हुआ करता है, ये जातियां है; पुरोहित, योद्धा, व्यापारी और श्रमिक। सबसे अंत में श्रमिक या शूद्र का राज्य आयेगा। प्रथम तीन तो अपने दिन भोग चुके हैं, अब चौथी अर्थात् शूद्र जाति का समय आया है। उनको वह सत्ता मिलनी ही चाहिए, उसे कोई रोक नहीं सकता।….. मैं समाजवादी हूं, इसलिए नहीं कि मैं इसे पूर्ण रूप से निर्दोष व्यवस्था मानता हूं, बल्कि इसलिए कि एक पूरी रोटी न मिलने से तो अच्छा है, आधी रोटी ही सही।”
निश्चित ही विवेकानंद धर्मक्षेत्र के व्यक्ति थे और इस कसौटी पर उनके विचार निश्चित ही क्रांतिकारी हैं। उनका नाम लेकर अधर्म को ‘धर्म’ बताने वाले उन्मादी हिंदुत्ववादियों से पूछिये कि उन्होंने विवेकानंद के विचारों को कभी पढ़ा भी है?
‘गर्व से कहो मैं हिंदू हूँ!’- यह नारा आज नफ़रती लोगों को बड़ा प्रिय है। उनके हिसाब से विवेकानंद ने ऐसा कहा था। काश वे पूरा भाषण पढ़ पाते। विवेकानंद ने कहा था- ‘मुझे गर्व है कि मैं उस धर्म से संबंधित हूँ जिसने संसार को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकार्यता सिखायी।’
ध्यान रहे, स्वामी जी प्रत्येक धर्म में स्वयं को एकाकार करने वाले हिंदू धर्म पर गर्व करते थे। दूसरे धर्म को हेय बताने या नफ़रत फैलाने वाले स्वामी विवेकानंद का नाम लेकर उनका अपमान ही करते है। ये स्वामी विवेकानंद के ही शब्द हैं-
‘‘धर्मांध लोग दुनिया में हिंसक उपद्रव मचाते हैं, बार–बार खून की नदियां बहाते हैं, मानवीय सभ्यता को नष्ट करते हैं और देश को निराशा में भर देते हैं। धर्मांधता का यह भयानक दानव अगर नहीं होता तो मानव समाज आज जो है उससे कहीं अधिक उन्नत होता।”