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क्वांटम थियरी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

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           ~ डॉ. विकास मानव

      19 वीं सदी का अंतिम दशक भौतिकी के इतिहास में विशेष तवज्जोह का हामिल है। घटनाक्रम कुछ इस प्रकार बदल रहा था कि भौतिकी का क्लासिकल स्ट्रक्चर लड़खड़ाने लगा था। लॉर्ड केल्विन का दावा कि अब भौतिकी का काम पूरा हो चुका है और केवल गणना या माप के द्वारा दशमलव के छठे स्थान पर सुधार के अतिरिक्त और काम नहीं बचेगा, आने वाले झटकों को बर्दाश्त करने में असफल था।

 

        पहली महत्वपूर्ण घटना थी- 8 नवम्बर 1895 को विलहेल्म कोनार्ड रोंटजेन  ने अपनी मामूली सी प्रयोगशाला में जब एक नयी क़िस्म की किरणों का पता लगाया तो वह उन्हें महसूस हुआ कि इसके गुण किसी भी ज्ञात किरणों या रेडीएशन से मेल नहीं खा रहे हैं, बस इतना मालूम हो सका कि इन पर कोई आवेश नहीं है। रोंटजेन ने इन किरणों का नाम X-rays रखा।

        इन किरणों का महत्व इस बात में निहित है कि छः माह बाद इनका प्रयोग वियना के एक अस्पताल में शुरू हो गया जबकि इसके गुणधर्म के विषय में सब अंधेरे में थे और इसे विद्युत-चुम्बकीय तरंगों के रूप में तत्काल मान्यता नहीं मिल सकी।

इसके बाद की एक दूसरी घटना जनवरी 1896 की है कि जब फ़्रांस के हेनरी बिकुरेल ने रेडीओऐक्टिविटी की खोज की। जिसमें वैद्युत रूप से उदासीन तत्व आवेशित कणों या विकिरण का उत्सर्जन हो रहा है। इस तरह परमाणु पदार्थ के अंतिम घटक होने की अभिधारणा सवालों के घेरे में थी।

      इसके समांतर कैथोड किरणों पर अनुसंधान जारी थे और इनके गुणों के व्यापक अध्ययन से इनके किसी चार्ज कणों से बने होने, और इसके e/m के मापन के आधार पर ब्रिटिश वैज्ञानिक जे॰ जे॰ टॉम्सॉन ने इलेक्ट्रॉन की खोज का श्रेय हासिल कर लिया। 

      यह तीनों खोजें परमाणु के अविभाज्य होने के पक्ष में पुख़्ता सुबूत पेश कर रहीं थीं जिसकी व्याख्या क्लासिकल सिद्धांतों की रौशनी में पेश की जा सकती थी और प्रयास भी किए जा रहे थे। 

लेकिन, संकट दूसरी दिशा से उठ रहा था जहां परमाणु की सरंचना मुक़द्दम नहीं थी बल्कि कुछ अन्य घटनायें थीं। हाँ यह ज़रूर है कि परमाणु संरचना इसके मूल में थी। मुख्यतः चार ऐसी घटनायें क़ाबिल ए ज़िक्र हैं जिन्होंने क्लासिकल फ़ॉर्मैट की विसंगतियों को उजागर करने के लिये पर्याप्त हैं।

       सर्वप्रथम संकट ब्लैक-बॉडी रेडीएशन के रूप में जाना जाता है। हम इसके गूढ़ तकनीकी और गणितीय पक्ष पर बात करने से परहेज़ करेंगे। इस तथ्य से हम सब परिचित हैं कि पदार्थों को गर्म करने पर उसमें से प्रकाश निकलता है जैसे लोहे को गर्म करें तो पहले वह लाल और अंत में तेज़ सफ़ेद हो जाता है।

        यह तमाम तथ्य भट्टियों में काम करने वालों तक सीमित थे। 1859 में हायडेल्बर्ग यूनिवर्सिटी के चौतिस वर्षीय वैज्ञानिक गुस्ताव किरचौफ़ ने इस दिशा में व्यवस्थित और के तरीक़े से काम शुरू किया। सर्वप्रथम उसने आदर्श शोषक और उत्सर्जन वस्तु की अभिधारणा विकसित की और इसे ब्लैक बॉडी का नाम दिया।

       यह एक खोखला और साधारण बर्तन (container) था जिसमें बाहर से आवागमन के लिये केवल एक छोटा सा छिद्र था। इसकी भीतरी दीवारें इस प्रकार थीं कि इसके भीतर प्रवेश करने वाला रेडीएशन दीवारों के मध्य टकराता रहता और अन्तत: परिभाषा और परिकल्पना के अनुसार पूरी तरह अवशोषित हो जाता।

       मज़ीद प्रयोगों और observations के सहारे किरचौफ़ ने गणितीय रूप से सिद्ध क्या कि cavity के भीतर रेडीएशन की रेंज (परास) और तीव्रता (intensity) वास्तविक कालीवस्तु (real blackbody) के पदार्थ पर निर्भर नहीं करती बल्कि केवल इसके तापमान पर निर्भर करती है।

       लेकिन किरचौफ़ के लिए data के आधार पर एक वास्तविक काली वस्तु से उत्सर्जित विकिरण की तीव्रता, ऊर्जा, रंग अर्थात तरंग लम्बाई और तापमान के मध्य एक फ़ॉर्म्युला को स्थापित करना एक मुश्किल मरहला था। सबसे बड़ी दुश्वारी तकनीकी परेशानियों के रूप में थी, क्योंकि इसके लिये अत्यधिक precise instruments की आवश्यकता थी इसके अतिरिक्त वैज्ञानिक कम्यूनिटी की वरीयतायें भी दूसरी दिशा की तरफ़ शिफ़्ट हो चुकी थीं जहां निर्वात में अत्यधिक potential पर गैसों के व्यवहार को समझना था। लेकिन किरचौफ़ ने भविष्य के लिये एक दिशा ज़रूर प्रदान कर दी।

चालीस वर्षों तक ब्लैकबॉडी रेडीएशन से सम्बंधित कोई रीसर्च सामने नहीं आयी। 1880 के दशक में जर्मन कम्पनियों को अपने अमरीकी और ब्रितानी प्रतिद्वंदीयों के मुक़ाबले उच्च गुणवत्ता के बिजली के बल्ब निर्माण की ज़रूरत पड़ी तो किरचौफ़ के काम को आगे बढ़ाना ज़रूरी हो गया।

       कुछ दिलचस्प बातों का ज़िक्र करता चलूँ-

    1881 में वैद्युत इकाइयों के निर्धारण के लिए प्रथम अंतर्राषट्रिय सम्मेलन पेरिस में आयोजित किया गया जिसमें 22 देशों से 250 प्रतिनिधि एकत्रित हुए।

      वोल्ट, ऐम्पीयर व अन्य पर तो सहमति बन गयी लेकिन प्रकाश की तीव्रता (luminosity) की इकाई पर एक राय नहीं बन सकी जिसकी वजह से कृत्रिम प्रकाश उपकरणों के निर्माण और इनकी ऊर्जा दक्षता के विकास को लेकर गतिरोध बना रहा।

     स्पष्ट था कि एक समझ बन गयी थी कि जो राष्ट्र इस क्षेत्र में बाज़ी मार लेगा वह प्रकाशमिति से सम्बंधित औधीगिकी में मज़बूती से अपने पैर भी जमा लेगा। 

जर्मन सरकार ने तत्काल बर्लिन के नज़दीक Physikalisch-Technische Reichsanstalt (PTR) अर्थात इम्पीरीयल इन्स्टिटूट ओफ़ फ़िज़िक्स एंड टेक्नॉलोजी की स्थापना कर दी ताकि अमरीका और ब्रिटिश चुनौतियों का सामना किया जा सके। इस पूरे परिसर के निर्माण में एक दशक का समय लग गया और PTR दुनिया का सुव्यवस्थित और सबसे महँगा अनुसंधान केंद्र बन कर सामने आया।

       जैसा कि ज़िक्र हुआ लूमिनॉसिटी को लेकर काफ़ी मतभेद थे और ऐसी विधि की तलाश थी जिससे इसकी इकाई का निर्धारण हो सके। ज़ाहिर है कि PTR की प्राथमिकता तो तय थी और इस वजह से  PTR ब्लैकबॉडी रीसर्च कार्यक्रम का महत्वपूर्ण केंद्र बन गया और इसी कार्यक्रम का नतीजा प्लैंक के क्वांटम थेरी के रूप में सामने आया। 

ब्लैक बॉडी रेडीएशन के व्यवहार से सम्बंधित किये जा रहे प्रायोगिक प्रेक्षणों से प्राप्त नतीजे क्लासिकल भौतिकी के सिद्धांतों के लिये परेशानी का कारण बनते जा रहे थे।

       गत भाग में हमने ब्लैक बॉडी (काली वस्तु) से उत्सर्जित विकिरण और इसके वर्ण अर्थात रंग सम्बंधित व्यवहार पर  किरचौफ के अध्ययन की चर्चा की थी।

ऊष्मीय विकिरण और तापमान में गणितीय सम्बंध पर यूरोप में अध्ययन लगातार हो रहे थे। यहाँ पर सोलवेनिक मूल के जोसेफ़ स्टीफ़न (1835- 1893) के नियम का ज़िक्र ज़रूरी है जो एक भौतिक शास्त्री और गणितज्ञ होने के साथ एक कवि भी थे।

      स्टीफ़न ने लगभग 80 रीसर्च पेपर प्रकाशित किए जिनमें अक्सर वियना अकादमी आफ़ साइयन्स के अधिकारिक बुलेटिन में छपे हैं। 

स्टीफ़न को विशेष रूप से उनके नाम से प्रसिद्ध नियम की उत्पत्ति के लिए जाना जाता है, जो उन्होंने 1879 में अपने एक लेख में पेश किया था। इस नियम के अनुसार एक काली वस्तु से कुल विकिरण या उत्सर्जित ऊर्जा का घनत्व वस्तु के परम अर्थात थर्मोडायनामिक तापमान की चतुर्थ घात के समानुपाती होता है।

      अर्थात यदि परम ताप तापमान दुगुना हो जाए तो विकिरण 16 गुना हो जाएगा। स्टीफ़न ने इस नियम को फ्रांसीसी भौतिकविदों डुलोंग और पेटिट के प्रयोगों और माप से प्राप्त किया।

      1884 में, स्टीफन के एक छात्र लुडविग बोल्ट्जमैन  ने इस खोज के पक्ष में थर्मोडायनैमिकल प्रमाण प्रस्तुत किया और सूत्र भी स्थापित किया।

जर्मनी मूल के लुडविग बोल्ट्जमैन का जन्म 20 फ़रवरी 1844 को वियना में हुआ था। उनके पिता राजस्व अधिकारी थे। केवल 22 वर्ष की आयु में बोल्ट्जमैन ने वियना विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त कर ली थी।

     थर्मोडायनैमिक्स के विकास में बोल्ट्जमैन का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है। उन्होंने गैस के गतिकीय सिद्धांत में परमाणु और अणु के वजूद की स्वीकार्यता को स्थापित किया और न्यूटन की गतिकी के आधार पर व्याख्या करते हुए तापमान और गैस की ऊर्जा में सम्बंध स्थापित किया जिसमें बोल्ट्जमैन स्थिरांक एक अहम किरदार निभाता है।

      यह कहना ग़लत ना होगा कि ऊष्मा का क्लासिकल मॉडल का आकार बोल्ट्जमैन के हाथों तैयार हुआ। 

बड़ी रोचक बात यह है कि प्लैंक अपने शुरुआती दौर में परमाणु की भूमिका को संदेह की नज़र से देखते थे वह इसे पदार्थ की क्रियाओं में कोई महत्व नहीं देते थे। लेकिन जब उन्होंने ब्लैक बॉडी रेडीएशन की व्याख्या के लिये थियरी प्रस्तुत की तो प्लैंक ने एक प्रकार से मतान्तरण किया :

“he accepted that atoms were more than just a convenient fiction, after years of being openly ‘hostile to the atomic theory.’

        एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि स्टीफन के नियम के आधार पर सूर्य के तापमान की गणना की गयी जिसके विषय में स्नातक स्तर पर पढ़ाया जाता है।

   इस पर चर्चा हो चुकी है कि पदार्थों को गर्म करने पर उसमें से प्रकाश निकलता है जैसे लोहे को गर्म करें तो पहले वह लाल और अंत में तेज़ सफ़ेद हो जाता है।

      ऊष्मीय विकिरण (Thermal Radiation) के अंतर्गत उत्सर्जित प्रकाश का रंग अर्थात वर्ण किस प्रकार तापमान पर निर्भर करता है, इस पर बात करने से पूर्व हम संक्षेप में प्रकाश के वर्ण, इसके स्पेक्ट्रम इत्यादि पर बात कर लेते हैं। 

      सत्रहवीं शताब्दी की शुरुआत में प्रिज़्म द्वारा सफ़ेद रौशनी (white light) का सात रंगों में विभाजित होना, जिसे dispersion कहा जाता है, वैज्ञानिकों के बीच चर्चा का विषय था। उनका विचार यह था कि सफ़ेद रौशनी का सात रंगों में disperse होने का सम्बंध रौशनी से नहीं है। 

मिशनरियों से प्राप्त विवरण के अनुसार चीन में प्रिज़्म किसी परिचय का मोहताज नहीं थे। यूरोप में इस प्रकार की ख़बरें मिल रहीं थीं कि रंग उत्पन्न करने की उनकी क्षमता के कारण चीन में प्रिज़्म काफ़ी मूल्यवान समझे जाते थे।

        उस युग के कई वैज्ञानिकों, विशेष रूप से मार्सी, ग्रिमाल्डी और बॉयल ने प्रिज़्म सम्बंधित अनेक प्रयोग किए थे लेकिन किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सके। प्रकाश के dispersion से सम्बंधित सबसे पहले सही व्याख्या न्यूटन ने पेश की। 

       6 फ़रवरी, 1672 को न्यूटन ने रॉयल सॉसाययटी के सामने “A New Theory about Light and Colours.” के  शीर्षक से एक पेपर प्रस्तुत किया। जिसमें उसने यह साबित किया कि सफ़ेद रौशनी दरअसल सात रंगों का मिश्रण है। प्रिज़्म द्वारा अपवर्तन (refraction) के बाद सफ़ेद रौशनी सात रंगों में विभाजित होकर एक पैटर्न पैदा करती है जिसे स्पेक्ट्रम कहा जाता है।

इस प्रकार सदियों पुरानी इस भ्रांति का निदान हुआ कि प्रिज़्म स्वयं रंग पैदा करता है बल्कि तथ्य यह है कि प्रिज़्म सफ़ेद रौशनी के मूल रंगों को अलग कर देता है। लेकिन न्यूटन के साथ दिक़्क़त यह थी कि प्रकाश स्वरूप और संरचना के विषयक उनका नज़रिया त्रुटिपूर्ण था। 

     17 वीं सदी में प्रकाश के स्वरूप और इसकी प्रकृति को लेकर ऐकडेमिक बहसों का एक इतिहास है। यहाँ पर रॉबर्ट हुक (1635-1703) की किताब माइक्रोग्राफ़िया (Micrographia) का ज़िक्र भी ज़रूरी है जिसमें प्रकाश की कुछ घटनाओं, विशेषकर वलयों (rings) और श्वेत प्रकाश के साथ रंगों सम्बन्धी प्रयोग और व्याख्या दी गयी है।

       यह पुस्तक जनवरी 1665 ब्रिटिश रॉयल सॉसाययटी के सौजन्य से प्रकाशित हुई थी जिसने एक तरफ़ विज्ञान के क्षेत्र में इंग्लैंड की बढ़त को स्थापित किया तो दूसरी तरफ़ आम लोगों में विज्ञान के प्रति दिलचस्पी पैदा की। आज यह सच्चाई स्थापित हो चुकी है कि “माइक्रोग्राफ़िया” में वर्णित अनेक विचारों और निष्कर्षों के आधार पर न्यूटन ने कई नियम प्रतिपादित किये लेनिन रॉबर्ट हुक के कार्यों का उद्धरण देना मुनासिब नहीं समझा, इस विषय पर अलग से किसी लेख में विस्तार से बात होगी।

 न्यूटन ने कोरपुस्कूलर सिद्धांत  को आगे बढ़ाया जिसके अनुसार प्रकाश बहुत ही सूक्ष्म कणों से मिलकर बना है जिसे corpuscle कहा गया।

    इस सिद्धांत के अनुसार :

1. प्रकाश का प्रत्येक सोर्स बड़ी संख्या में अपने चारों ओर सूक्ष्म कण (corpuscles) उत्सर्जित करता है

2. Corpuscles पूरी तरह इलास्टिक, रिजिड और भारहीन हैं।

न्यूटन ने पदार्थों के बीच interaction के आधार पर ज्ञात प्रकाशीय घटनाओं को समझने की कोशिश की। इस सिद्धांत के पक्ष में प्रकाश का सीधी रेखा में चलने की अभिधारणा ने बहुत काम किया है। लेकिन, यह सिद्धांत ग्लास या प्रिज़्म द्वारा अपवर्तन (refraction) की घटना की व्याख्या करने में समर्थ नहीं था क्योंकि इस सिद्धांत के आधार पर प्रकाश की चाल विरल माध्यम (Rarer Medium) से सघन माध्यम (Denser Medium) में प्रवेश करने पर बढ़ जानी चाहिये, जबकि इसके विपरीत चाल घट जाती है।

      अपने प्रतिद्वंदी हुक की मृत्यु के बाद न्यूटन ने Opticks (1704) में प्रकाशित करायी जिसमें प्रकाश के सिद्धांत, इसके रंगों (वर्ण) की प्रकृति, डिफ़्रैक्शन (न्यूटन के अनुसार इन्फ़्लेक्शन -Inflexion) का अध्ययन है। यहाँ पर यह बताना ज़रूरी है कि इसमें हुक के अनेक प्रयोगिक निष्कर्षों का कथित plagiarism भी है। 

       इसी दौरान डच वैज्ञानिक क्रिस्चन हाइगिंज़ (1629-1695) ने प्रकाश का तरंग सिद्धांत प्रस्तुत किया।

 हाइगिंज़ ने अपने सिद्धांत में कॉर्पसल की जगह wavefront को जगह दी। 1678 में उसने यह सिद्धांत पेरिस की विज्ञान अकेडमी (Paris Académie des Sciences) के समक्ष प्रस्तुत किया और बाद में इस विषय पर 1690 में Traité de la Luière जैसी विख्यात पुस्तक के माध्यम से विस्तृत चर्चा की है।

       अठाहरवीं सदी के अंत तक न्यूटन के मत के पक्षधर कमज़ोर पड़ने लगे और 19 वीं सदी के दूसरे दशक तक प्रकाश के तरंग सिद्धांत को सर्वत्र मान्यता प्राप्त हो गयी। लेकिन, इस दौरान प्रकाश स्पेक्ट्रम पर काम जारी रहा। प्रयोगों के आधार पर यह स्पष्ट हो गया कि प्रकाश की सफेदी की अवधारणा पृथ्वी के दिन के उजाले से प्राप्त स्पेक्ट्रम की हमारी धारणा पर निर्भर करती है – एक व्यापक आवृत्ति वितरण जो आम तौर पर लाल रंग की तुलना में वायलेट में अधिक तेजी से गिरता है।

      मानव नेत्र-मस्तिष्क संसूचक आमतौर पर प्रत्येक भाग में समान मात्रा में ऊर्जा के साथ सफेद प्रकाश को आवृत्तियों का एक विस्तृत मिश्रण समझता है,। 

जब हम “श्वेत प्रकाश” के बारे में बात करते हैं तो हमारा यही मतलब होता है – स्पेक्ट्रम के रंग का, जिसमें कोई क्षेत्र प्रमुख नहीं होता है। बहरहाल, कई अलग-अलग वितरण कमोबेश सफेद दिखाई देंगे।

      हम कागज के टुकड़े को सफेद होने के लिए पहचानते हैं, चाहे वह घर के अंदर गरमागरम रोशनी के तहत या बाहर रोशनदान के नीचे देखा गया हो, भले ही वे सफ़ेद काफी अलग हो। वास्तव में, रंगीन प्रकाश पुंजों के कई जोड़े हैं जो सफेदी की अनुभूति पैदा करेंगे, और आंख हमेशा एक सफेद को दूसरे से अलग नहीं कर सकती है। यह आवृत्ति प्रकाश को अपने हार्मोनिक घटकों में विश्लेषण नहीं कर सकती है जैसा कि कान ध्वनि का विश्लेषण कर सकता है।

इस प्रकार  रंग स्वयं प्रकाश का गुण नहीं है, बल्कि इलेक्ट्रोकेमिकल सेंसिंग सिस्टम-आंख, तंत्रिका, मस्तिष्क की अभिव्यक्ति है। विज्ञान के नज़रिए से हमें “पीला प्रकाश” नहीं कहना चाहिए, बल्कि “प्रकाश जो पीले रंग के रूप में देखा जाता है” कहना चाहिए।

      उल्लेखनीय रूप से, विभिन्न आवृत्ति मिश्रण आंख-मस्तिष्क सेंसर से समान रंग प्रतिक्रिया उत्पन्न कर सकते हैं। विश्वास करें या ना करें, लाल बत्ती की एक किरण हरे रंग की रोशनी की एक किरण को ओवरलैप करते हुए जो परिणाम सामने होगा वह पीली रोशनी की धारणा में सामने आएगा।

        जबकि पीले रंग की आवृत्ति इस  बैंड में मौजूद नहीं है स्पष्ट है कि आंख-मस्तिष्क इनपुट के औसत पर प्रतिक्रिया करता है और पीला “देखता है।”

सवाल यह उठने लगे थे कि, क्या केवल लाल और बैंगनी रंग ही प्रकाश स्पेक्ट्रम की सीमाएँ हैं? या यह मानव आँख की कमजोरी है? सूरज क्या ऐसा रेडीएशन भी उत्सर्जित करता है जिसे हमारी आँख नहीं देख सकती? इन सवालों के जवाब ढूँढने का काम जारी रहा लेकिन खगोलशास्त्रियों ने बाज़ी मार ली।.

     ऐसा इसलिए भी मुमकिन हो सका कि समय के साथ थर्मामीटर की गुणवत्ता और सेंसिटिविटी में सुधार होने लगा था जिससे मानव ज्ञान के नये द्वार भी खुलने लगे। 

      जर्मन मूल के ब्रिटिश खगोलशास्त्री और संगीतकार सर फ्रेडरिक विलियम हर्शल (1738 – 1822), 1800 की शुरुआत में, सूर्य की रोशनी को पार करने के लिए अलग-अलग फिल्टर का परीक्षण कर रहा था तो उसने देखा कि अलग-अलग रंगों के फिल्टर अलग-अलग मात्रा में गर्मी उत्पन्न करते हैं।.

      उन्होंने एक थर्मामीटर का उपयोग करके प्रकाश के विभिन्न रंगों को मापने के लिए एक प्रिज्म के माध्यम से प्रकाश को पारित करने का फैसला किया और इस प्रक्रिया में, दृश्यमान (visible) स्पेक्ट्रम के लाल छोर से आगे एक माप लिया तो पाया कि तापमान लाल बत्ती से एक डिग्री अधिक है।

 अनेक प्रयोगों से हर्शल इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि दृश्य स्पेक्ट्रम से परे प्रकाश का एक अदृश्य रूप होना चाहिए।उन्होंने इन परिणामों को अप्रैल 1800 में प्रकाशित किया, और इस प्रकार इंफ़्रारेड किरणों की खोज अमल में आयी।

      यह प्रकाश का वह रूप है जिसे इंसानी आँख देख तो नहीं सकती लेकिन इंसान इसके प्रभाव को महसूस कर सकता है।  

      लाल रंग की सीमा से अग्रेत्तर इंफ़्रारेड किरणों की खोज के बाद 1801 में बैंगनी सीमा से नीचे एक नये विकिरण की खोज हो गयी कि जब जर्मन भौतिक विज्ञानी जोहान विल्हेम रिटर ने देखा कि दृश्यमान स्पेक्ट्रम के वायलेट छोर से परे अदृश्य किरणें सिल्वर क्लोराइड से युक्त कागज़ को बैंगनी प्रकाश की तुलना में अधिक तेज़ी से काला कर देती हैं।

      उन्होंने इन किरणों की रासायनिक क्रियात्मक गुणों पर ज़्यादा तवजोह और ज़ोर देते और ऊष्मीय किरणों ( इंफ़्रारेड) से अलग करने के लिए “(डी-) ऑक्सीकरण किरणें” कहा। यह नाम इन किरणों से काफ़ी अरसे तक जुड़ा रहा और बाद में इन्हें “अल्ट्रावायलेट” के नाम से जाना जाने लगा।

     प्रकाश का तरंग सिद्धांत स्थापित हो जाने के बाद विभिन्न किरणों और प्रकाश के रंगों की तरंग-दैर्ध्य (wavelength) और आवृति (frequency) की रेंज भी निश्चित कर दी गयी।

      पदार्थों को गर्म करने पर उसमें से जो प्रकाश निकलता है उसके रंग के अनुसार तरंग-दैर्ध्य का तापमान के साथ क्या गणितीय सम्बंध होना चाहिए? इस सवाल का जवाब एक क्रांतिकारी क़दम की माँग कर रहा था। 

 पूर्व में ज़िक्र हुआ है कि 1880 के दशक में जर्मन कम्पनियों को अपने अमरीकी और ब्रितानी प्रतिद्वंदीयों के मुक़ाबले उच्च गुणवत्ता के बिजली के बल्ब निर्माण की ज़रूरत पड़ी तो जर्मनी में ब्लैकबॉडी रेडीएशन के हवाले से किरचौफ़ के काम को आगे बढ़ाना ज़रूरी हो गया था। 

       इस दिशा में जर्मन भौतिकशास्त्री विल्हेल्म कार्ल वेर्नर ऑटो फ़्रिट्स फ़्रांस वीन (1864-1928) ने ब्लैकबॉडी रेडीएशन सम्बंधित प्रयोगों के निष्कर्षों के आधार पर क्लासिकल भौतिकी के सहारे गणितीय सूत्रों को स्थापित करने के गंभीर प्रयास किए गए।

       ये प्रयास आगे चलकर क्वांटम थेरी की दाग़ बेल डालने में जिस तरह सहायक साबित हुए उनका ज़िक्र ज़रूरी है :

      वीन का जन्म वर्तमान में रूस स्थित फिशहौसेन के पास के एक गाँव “गफ्केन” के  ज़मींदार परिवार में हुआ था। 1866 में, उनका परिवार रास्टेनबर्ग (अब केत्रज़िन, पोलैंड) के पास ड्रैचस्टीन चला गया। 

       1879 में, वीन रास्टेनबर्ग में स्कूल गए और 1880 से 1882 तक उन्होंने हाईडेलबेयर्ग (Heidelberg) के एक स्कूल में पढ़ाई की। 1882 में उन्होंने गोटिंगेन (Göttingen) विश्वविद्यालय और बर्लिन विश्वविद्यालय में अपनी पढ़ाई जारी रखी।

      1883 से 1885 तक, उन्होंने हरमन वॉन हेल्महोल्ट्ज़ (जिनके नाम पर जर्मनी का सबसे बड़ा अनुसंधान संघटन Helmholtz Association of German Research Centre क़ायम किया गया है) की प्रयोगशाला में काम किया। 

1886 में उनके द्वारा धातुओं पर प्रकाश के विवर्तन (diffraction) और अपवर्तित प्रकाश के रंग पर विभिन्न पदार्थों  के प्रभाव पर किये गए अध्ययन पर डॉक्टरेट की उपाधि प्रदान की गयी। 

      एक बात का ज़िक्र बहुत ज़रूरी है कि वीन का ताल्लुक़ वैज्ञानिक की उस दुर्लभ जमात से था जो थियरेटिकल भौतिकी के साथ प्रायोगिक भौतिकी में बराबर का दख़ल रखती थी। यही कारण है कि जब वीन की दिलचस्पी ब्लैक बॉडी रेडीएशन के गुणधर्म में पैदा हुई तो उन्होंने स्वयं एक ब्लैक बॉडी का निर्माण किया। 

       तालीम मुकम्मल करते ही वीन ने PTR की ऑप्टिक प्रयोगशाला में ऑटो लम्मेर (Otto Lummer (1860-1925) के सहायक के बतौर नौकरी शुरू कर दी। वीन और लम्मेर का काम ऐसा फ़ोटोमीटर, अर्थात ऐसे उपकरण तैयार करना था जिसके द्वारा विभिन्न प्रकाश स्रोतों की तीव्रताओं की तुलना की जा सके।

      इस कार्य में स्रोतों से उत्सर्जित प्रकाश की तरंग दैर्ध्य (वेवलेंथ) की रेंज के अंतर्गत ऊर्जा की मात्रा का अध्ययन आवश्यक था। जिसके लिए एक बेहतर ब्लैकबॉडी और इससे प्राप्त विकिरण की तीव्रता और विभिन्न रंगो के लिये ऊर्जा के सटीक मापन के लिये उन्नत क़िस्म के पाईरोमीटर (pyrometer) की ज़रूरत थी।

वीन ने अपनी दिनचर्या से शाम का वक़्त ब्लैकबॉडी रेडीएशन के अध्ययन के लिये वक़्फ़ कर दिया था ताकि किरचौफ़ के कार्य को आगे बढ़ाया जा सके और इसके विकिरण के वितरण सम्बंधित कोई गणितीय समीकरण स्थापित की जा सके और जल्द ही उन्होंने एक फ़ॉर्म्युला ज्ञात कर लिया। लेकिन, वीन को PTR की अनुमति ना मिलने की वजह से अपने अध्ययन से प्राप्त निष्कर्षों को निजी तौर पर प्रकाशित करना पड़ा।

        माह फ़रवरी 1893 में 29 वर्षीय वीन ने ब्लैक बॉडी रेडीएशन सम्बंधित एक महत्वपूर्ण जानकारी हासिल कर ली थी जिसे एक साधारण गणितीय संबंध द्वारा व्यक्त किया जा सकता था। यह गणितीय सूत्र ब्लैकबॉडी विकिरण के वितरण पर तापमान में परिवर्तन के प्रभाव को दर्शाता था।

        यह पूर्व में ज्ञात हो चुका था कि जैसे-जैसे ब्लैकबॉडी का तापमान बढ़ता है तो विकिरण द्वारा उत्सर्जित ऊर्जा की तीव्रता भी बढ़ती जाती है। एक निश्चित तापमान पर यह तीव्रता अधिकतम शिखर (peak) तक पहुँच जाती है। वीन ने पाया कि शिखर पर उत्सर्जित प्रकाश की एक निश्चित तरंग दैर्ध्य (λ) होती और इस स्तर पर ब्लैकबॉडी के तापमान से इसका एक निश्चित सम्बंध होता है। जैसे-जैसे तापमान में वृद्धि होती है तो अधिकतम तीव्रता के उत्सर्जित प्रकाश की तरंग दैर्ध्य छोटी होती जाती है, गणितीय रूप में इसे यूँ व्यक्त करते हैं-

λT=स्थिरांक

इसे वीन का विस्थापन का नियम कहा जाता है। इस विस्थापन के नियम ने बहुत सटीक तरीक़े से खुलासा किया कि जिस तरंग दैर्ध्य पर विकिरण की अधिकतम मात्रा प्राप्त होती है, उसे ब्लैकबॉडी के तापमान से गुणा किया जाता है तो हमेशा एक स्थिर संख्या प्राप्त होती है।

       इस प्रकार यदि तापमान को दोगुना कर दिया जाता है तो अधिकतम उत्सर्जित प्रकाश की तरंग दैर्ध्य आधी होगी। वीन के इस नियम का मतलब है कि एक बार जब संख्यात्मक स्थिरांक की गणना हो गयी तो किसी भी निश्चित तापमान पर अधिकतम तीव्रता के विकिरण की तरंग दैर्ध्य की गणना की जा सकती है।

        इस आधार पर गर्म लोहे के सीख़चें (poker)  के बदलते रंगों को भी समझा जा सकता है, कम तापमान पर सीख़चे द्वारा स्पेक्ट्रम के इन्फ्रारेड हिस्से से मुख्य रूप से लंबी तरंग दैर्ध्य विकिरण उत्सर्जित होती है। जैसे-जैसे तापमान बढ़ता है स्पेक्ट्रम के प्रत्येक क्षेत्र में अधिक ऊर्जा का उत्सर्जन होता है और उत्पन्न रौशनी बड़ी तरंग दैर्ध्य से छोटी तरंग दैर्ध्य की ओर विस्थापित होती जाती है।

       नतीजतन, उत्सर्जित प्रकाश का रंग लाल से नारंगी, हरा पीला और अंत में नीला सफेद हो जाता है क्योंकि स्पेक्ट्रम के पराबैंगनी छोर से विकिरण की मात्रा कम हो जाती है।

इसके बाद वीन ने एक डिवाइस तैयार की जो ब्लैक-बॉडी की तरह व्यवहार करती थी। यह डिवाइस धातु से बनी एक बेलनाकार नलिका (tube) थी जिसे भीतर से काला पेंट करके हीटिंग कुंडलियाँ रखी गयीं थीं जिसका काम ऊष्मा उत्पन्न करना था। पूरी डिवाइस को सकेंद्रिय पोर्सीलीन नलिका में रखा गया और इसके एक छिद्र के माध्यम से रेडीएशन को बाहर लाया जाता है जो अनेक डाइअफ़्रैम से होकर गुज़रता है।

     नलिका के केंद्रीय भाग में स्थापित एक थर्मोमोकप्ल (thermocouple) के माध्यम से भीतरी तापमान को नापा जाता है। 

      1896 में वीन ने अत्यंत छोटे तरंग दैर्ध्य  अंतराल λ से λ+dλ के मध्य उत्सर्जित तीव्रताओं को व्यक्त करने हेतु एक क्लासिकल थर्मोडायनैमिक्स क आधार पर एक सूत्र को empirical तरीक़े से स्थापित करने का प्रयास किया। जिसे वीन का वितरण का नियम (distribution law) कहा जाता है।

इस नियम की हनोवर विश्वविद्यालय के फ्रेडरिक पाश्चेन ने ब्लैकबॉडी विकिरण के लघु तरंग दैर्ध्य के बीच ऊर्जा के आवंटन पर एकत्र किए गए डेटा के आधार पर शीघ्रता से पुष्टि कर दी। वीन के अध्ययन के महत्व को देखते हुए PTR द्वारा उसी साल जून में वितरण नियम अधिकारिक तौर पर प्रकाशित कर दिया गया। 

       इसके फ़ौरन बाद वीन PTR को अलविदा कहते हुए आचेन के Technische Hochschule में बतौर प्रोफ़ेसर संबद्ध हो गए। वीन से यहीं पर भारी चूक हो गयी।

      दरअस्ल उनके “वितरण के नियम” को अनेक परीक्षणों से गुज़रना था। लम्मेर एक बेहतरीन प्रायोगिक भौतिक शास्त्री थे लेकिन सैद्धांतिक भौतिकी पर उनका हाथ कमज़ोर था। 

      वीन के “वितरण के नियम” को अपनी सत्यता स्थापित करने के लिये एक कठोर परीक्षण के दौर से गुजरना था। लम्मेर ने इस दिशा में काम जारी रखा। पहले उन्होंने फर्डिनेंड कुर्लबाउम फिर अर्न्स्ट प्रिंगशेम के साथ काम किया। दो साल के कठिन परिश्रम के बाद 1898 में वैद्युत संचालित एक ब्लैकबॉडी का निर्माण हो गया जो 1500 डिग्री सेंटीग्रेड के तापमान तक पहुंचने में सक्षम थी।

सही अर्थों में यह ब्लैकबॉडी PTR के दस वर्षों की मेहनत का नतीजा थी जिससे प्राप्त डेटा ने वीन के वितरण के नियम को अमान्य क़रार तो नहीं दिया लेकिन बहुत ही गंभीर सवाल ज़रूर उठा दिए। अलबत्ता उसके विस्थापन के नियम को एक विशेष केस के तौर पर मान्यता अवश्य दे दी गयी।

      इसी दौरान ब्रिटेन में भौतिक विज्ञानी लॉर्ड रीलीग और सर जेम्स जीन्स ने ब्लैकबॉडी रेडीएशन ने भी क्लासिकल भौतिकी के तर्कों पर आधारित गणितीय सूत्र प्राप्त करने का प्रयास किया।

      उनके द्वारा प्रतिपादित सूत्र ने उस समय के भौतिकी सिद्धांत में एक महत्वपूर्ण त्रुटि को रेखांकित कर दिया। उनका सूत्र बड़े तरंग दैर्ध्य के विकिरण सम्बंधित प्रयोगात्मक परिणामों के अनुरूप था लेकिन छोटी तरंग दैर्ध्य के लिये मान्य नहीं था।

       प्रेक्षणों और शास्त्रीय भौतिकी की भविष्यवाणियों के बीच इस विसंगति को आमतौर पर पराबैंगनी कटैस्ट्रॉफ़ (ultraviolet catastrophe) के रूप में जाना जाता है।

      लम्मेर और प्रिंगशेम ने अपने प्रयोगों के आधार पर ब्लैकबॉडी के ऊष्मीय विकिरण की तीव्रता और संबद्ध तरंग दैर्ध्य को एक ग्राफ़ द्वारा प्रदर्शित किया। इस ग्राफ़ में उन्होंने पाया कि विकिरण की तीव्रता का वक्र उत्सर्जित विकिरण की तरंग दैर्ध्य बढ़ने के साथ उठता जाता है और इसके बाद गिरना शुरू हो जाता है।

 ब्लैकबॉडी विकिरण का वर्णक्रमीय (spectral) ऊर्जा वितरण लगभग घंटी के आकार का वक्र था। उनके परिणामों को संक्षेप में इस प्रकार रखा जा सकता है :

     1- एक ब्लैकबॉडी के विकिरण स्पेक्ट्रम में ऊर्जा का वितरण एकसमान रूप (uniform) से नहीं होता है।

    2-किसी दिए गए तापमान पर, तरंग दैर्ध्य की वृद्धि के साथ विकिरण की तीव्रता बढ़ जाती है और एक विशेष तरंग दैर्ध्य पर अधिकतम हो जाती है। तरंगदैर्घ्य में और वृद्धि करने से ऊष्मा विकिरण की तीव्रता कम हो जाती है

    3- तापमान में वृद्धि से अधिकतम तरंग दैर्ध्य में कमी आती है जिसके लिए उत्सर्जित ऊर्जा अधिकतम होती है

    4-तापमान में वृद्धि से सभी तरंग दैर्ध्य के लिए ऊर्जा उत्सर्जन में वृद्धि होती है

    5-प्रत्येक वक्र के नीचे का क्षेत्र किसी विशेष तापमान पर ब्लैकबॉडी द्वारा उत्सर्जित तरंग दैर्ध्य की रेंज के लिए कुल ऊर्जा का को प्रदर्शित करता है। यह क्षेत्र तापमान में वृद्धि के साथ बढ़ता है जो स्टीफेंस के नियम का पालन करता है.

लम्मेर और प्रिंगशेम ने 3 फ़रवरी 1899 को बर्लिन में जर्मन फ़िज़िकल सॉसाययटी की एक मीटिंग में अनेक भौतिकशास्त्रियों के समक्ष उपरोक्त परिणाम घोषित किये  तो सबसे ज़्यादा दिलचस्पी वहाँ मौजूद मैक्स प्लैंक ने दिखायी।

     लेकिन इसके तीन माह बाद पाश्चेन ने जब अपने प्रयोगों के आधार पर वीन के वितरण के नियम की पुष्टि की तो एक बार फिर असमंजस की स्थिति उत्पन्न हो गयी। लेकिन जल्द ही यह बादल छट गए, जबकि यह मालूम हुआ कि पाश्चेन के प्रयोग अपेक्षाकृत कम तापमान पर निष्पादित किए गए हैं। प्लैंक ने राहत की साँस लेते हुए स्वयं प्रशा की अकैडमी ओफ़ साइयन्स में पाश्चेन का पर्चा पढ़ा।

एनस मिराबिलिस (Annus mirabilis) लैटिन शब्द है जिसका  अर्थ अदभुत वर्ष या चमत्कारी। इस शब्द का प्रयोग उन वर्षों के संदर्भ में किया जाता है जिनके दौरान प्रमुख महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित हुईं। विज्ञान के संदर्भ में तीन अवधियों को इस श्रेणी में रखा गया है।

       पहला है 1543 – विज्ञान का वर्ष, इस वर्ष यूरोप में सही अर्थों में वैज्ञानिक क्रांति की शुरुआत हुई। जबकि एंड्रियास वेसालियस ने बेसल में “डी ह्यूमैनी कॉरपोरिस फेब्रिका” (ऑन द फैब्रिक ऑफ द ह्यूमन बॉडी) प्रकाशित की, जिसने मानव शरीर रचना विज्ञान और चिकित्सा के क्षेत्र में क्रांति ला दी।

      इसी वर्ष निकोलस कोपेरनिकस की जर्मनी के नूर्नबर्ग में डी रिवोल्यूशनीबस ऑर्बियम कोएलेस्टियम (ऑन द रेवोल्यूशन ऑफ द हेवनली स्फीयर्स) प्रकाशित की गयी।

दूसरा है 1666 – चमत्कारों का वर्ष, जबकि 23 वर्ष की आयु में न्यूटन ने कैलकुलस, गति, प्रकाशिकी और गुरुत्वाकर्षण में क्रांतिकारी खोजें और आविष्कार किए। प्लेग के प्रकोप से कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के बंद होने के कारण उन्हें अपने सिद्धांतों पर काम करने का पर्याप्त  समय मिला जब वह वह लिवर्पूल अपने घर आ गए।

       संभवतः इसी वर्ष न्यूटन ने एक पेड़ से एक सेब को गिरते हुए देखा था, और जिससे उन्हें  गुरुत्वाकर्षण के नियम को समझने में मदद मिली।

       तीसरा है 1904-05 – अल्बर्ट आइंस्टीन का वर्ष, इस अवधि में, 26 वर्ष के अल्बर्ट आइंस्टीन ने ऑन द जेनेरल थेयिरी आफ़ मोलिक्यूलर हीट (आणविक ऊष्मा के सामान्य सिद्धांत पर), फोटोइलेक्ट्रिक इफ़ेक्ट, ब्राउनियन गति, स्पेशल थेयिरी ओफ़ रिलेटिविटी (सापेक्षता के विशेष सिद्धांत) और प्रसिद्ध एनर्जी-मास (ऊर्जा-द्रव्यमान) समीकरण से संबंधित महत्वपूर्ण खोजों को प्रकाशित किया था।

उनके पाँच लेख, जिन्हें सामूहिक रूप से उनके एनस मिराबिलिस पेपर के रूप में जाना जाता है, 1904-05 में प्रतिष्ठित शोध पत्रिका, एनालेन डेर फ़िज़िक में प्रकाशित हुए थे। 1904 में प्रकाशित “ऑन द जेनेरल थेयिरी आफ़ मोलिक्यूलर हीट” आइन्स्टायन ने इस बात की चर्चा की थी कि किसी भी निकाय (सिस्टम) के अणुओं की औसत ऊर्जा में कैसे उतार-चढ़ाव होता है।

      जिसके आधार पर उन्होंने पदार्थ के मूल क्वांटा के आकार और रेडीएशन की वेवलेंथ के बीच सुगम समीकरण स्थापित करने के आसान तरीक़े की बात की थी।

       आइंस्टीन चार साल से प्लैंक और लियोनार्ड के सैद्धांतिक और प्रयोगात्मक कार्यों और निष्कर्षों के सिलसिले से विचार कर रहे थे। 

1900 में दिए गए प्लैंक के क्वांटम सिद्धांत ने भौतिकी की दुनिया में उत्सुकता पैदा कर दी थी। इस क्रम में आइन्स्टायन ने जल्दी ही महसूस कर लिया था कि क्वांटम सिद्धांत क्लासिकल भौतिकी को बहुत कमज़ोर करने जा रहा है।

      इस सम्बंध में उन्होंने बाद में लिखा भी कि प्लैंक के मूलभूत सिद्धांत के आने के तुरंत बाद क्लासिकल भौतिकी की सैद्धांतिक बुनियाद के साथ सामंजस्य बिठाने के प्रयास मुकम्मल तौर पर विफल हो गए थे। यह ऐसा था जैसे उनके नीचे से ज़मीन खींच ली गई हो, और कहीं भी कोई ठोस बुनियाद दिखाई नहीं दे रही हो।

        17 मार्च, 1905 को ऐल्बर्ट आइन्स्टायन ने प्रतिष्ठ शोध पत्रिका एनालेन डेर फ़िज़ीक में प्रकाशन हेतु अपना एक शोध पत्र प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था “On Heuristic Point of View Concerning the Protection and Transformation of Light.”

      शब्द Heuristic का जर्मन पर्याय heuristisch, इसका अर्थ है ऐसी कोई परिकल्पना या तर्क जो किसी समस्या के हल की दिशा में केवल एक सहायक के रूप में कार्य करता है। एक प्रकार से केवल इसे एक अनुमान के तौर पर ले सकते हैं- अर्थात ट्रायल और एर्र मेथड के तौर पर इस पद्धति को इस्तेमाल किया जाता है।

आइन्स्टायन ने क्वांटम अवधारणा को शुरुआती दौर से ही एक “अनुमान” के तौर पर रखा और अंत तक वह अपने इस मंतव्य पर क़ायम रहे कि क्वांटा सर्वश्रेष्ठ अनुमानी अवधारणा है जो अनंतिम व अपूर्ण है और जो अंतर्निहित वास्तविकता सम्बंधित निष्कर्षों के साथ पूरी तरह से संगत नहीं है।

      इसके पूर्व 1904 में “ऑन द जेनेरल थेयिरी आफ़ मोलिक्यूलर हीट” के प्रकाशन कि बाद आइन्स्टायन ने अपने दोस्त कोनार्ड हैबिक्ट को सम्बोधित एक पत्र में लिखा था कि उन्होंने क्वांटा के आकार और रेडीएशन की वेवलेंथ के बीच समीकरण को हासिल कर लिया है।

      1905 में प्रकाशित उक्त पेपर में उन्होंने प्लैंक द्वारा के गणितीय सूत्र के आधार पर लियोनार्ड के फोटोइलेक्ट्रिक प्रभाव सम्बंधित निष्कर्षों की व्याख्या देने का प्रयास शुरू किया और अपने विश्लेषण में उन्होंने “प्रकाश“ को तरंग की निरंतरता के सिद्धांत को अपनाने के बजाये उसे सूक्ष्म कणों- क्वांटम, से निर्मित सिद्धांत को अपनाया।

      लेकिन, यह भी ख़याल रखा कि प्रकाश के पार्टिकल नेचर (कण सिद्धांत) के पक्ष में अपना मत रखने से पहले इस बात पर जोर दिया जाये कि प्रकाश के तरंग सिद्धांत को, इसकी उपयोगिता के देखते हुए, नकारने की कोई ज़रूरत पेश नहीं आयेगी। प्रकाश के वेव नेचर (तरंग सिद्धांत) और पार्टिकल नेचर (कण सिद्धांत), दोनों को समायोजित करने के पीछे उनका मक़सद अनुमान पर आधारित कोई क्रांतिकारी परिकल्पना पेश करना था जिसके अनुसार प्रकाश कणों या ऊर्जा के पैकेट से बना है।

इस परिकल्पना में जब प्रकाश किरण एक बिंदु से आगे की ओर बढ़ता है तो ऊर्जा स्पेस में वितरित नहीं होती है बल्कि क्वांटा के रूप में विद्यमान रहती है। ऊर्जा के इन पैकेटों को केवल ऊर्जा की पूर्ण इकाइयों के रूप में पैदा और अवशोषित किया जा सकता है। 

       इस परिकल्पना पर पहुँचने से पूर्व आइंस्टीन ने यह ज्ञात करना चाहा कि क्या डिस्क्रीट क्वांटा से युक्त ब्लैकबॉडी रेडीएशन की मात्रा, डिस्क्रीट कणों से निर्मित गैस की मात्रा की तरह व्यवहार कर सकती है? अपने पूरे अध्ययन में उन्होंने पाया कि मात्रा के आधार पर रेडीएशन की एन्ट्रापी और आदर्श गैस की एन्ट्रापी में होने वाला परिवर्तन एक समान नियम का पालन करता है।

       आइन्स्टायन को अपनी गणना में एन्ट्रापी के लिए बोल्ट्जमैन के सांख्यिकीय सूत्र का उपयोग किया जिसके आधार पर एक विशेष फ़्रीक्वन्सी पर प्रकाश के एक कण की ऊर्जा की गणना करने का एक तरीका हासिल हो गया, जो प्लैंक द्वारा ज्ञात तरीक़े के अनुरूप निकला। इसके बाद आइन्स्टायन ने प्रकाश के क्वांटा के सिद्धांत के आधार पर लियोनार्ड के फ़ोटोइलेक्ट्रिक इफ़ेक्ट सम्बंधित प्रायोगिक निष्कर्षों की समुचित व्याख्या पेश की।

      आइन्स्टायन ने यह अवधारणा पेश की कि प्रकाश के प्रत्येक डिस्क्रीट क्वांटा की ऊर्जा को केवल प्लांक स्थिरांक से गुणा करके प्रकाश की फ़्रीक्वन्सी (आवृत्ति) द्वारा निर्धारित किया जाता है। जिसका सूत्र है, E=hν.

     जब प्रकाश किसी धातु के सर्फ़ेस से टकराता है तो उसमें मौजूद “क्वांटम” अपनी पूरी ऊर्जा को धातु में मौजूद इलेक्ट्रॉन में स्थानांतरित कर देता।

       सर्फ़ेस से उत्सर्जित इलेक्ट्रॉनों में जो  अधिक ऊर्जा होती है वह सर्फ़ेस पर पड़ने वाले प्रकाश की फ़्रीक्वन्सी पर निर्भर करती है।  इसके साथ आइन्स्टायन ने दूसरी बात कही कि प्रकाश की तीव्रता में वृद्धि का सीधा अर्थ यह है कि उत्सर्जित इलेक्ट्रॉनों की संख्या में वृद्धि तो हो जायेगी लेकिन इनकी ऊर्जा में कोई वृद्धि नहीं होगी। जैसा कि पूर्व में ज़िक्र हो चुका है, लियोनार्ड ने भी ठीक यही पाया था। 

इसके साथ आइन्स्टायन ने अपने शोध पत्र में इस तथ्य को विनम्रता के साथ क़ुबूल किया कि उनकी अवधारणाएँ केवल सैद्धांतिक सोच पर स्थापित की गयीं हैं और पूरी तरह से प्रयोगात्मक डेटा से प्रेरित नहीं हैं।

       अग्रेत्तर यह कि, आइंस्टीन के अनुसार उनकी अवधारणाओं का  “मिस्टर लियोनार्ड द्वारा पर्वेक्षित फोटोइलेक्ट्रिक इफ़ेक्ट के गुणों के साथ कोई  टकराव भी नहीं” था। अगर बग़ौर देखा जाए तो प्लैंक ने ब्लैकबॉडी रेडीएशन थेरी के माध्यम से केवल एक अंगारा ही रखा था लेकिन,  आइन्स्टायन की  फ़ोटोएलेक्ट्रिक इफ़ेक्ट की सैद्धांतिक व्याख्या ने ऐसी आग लाग लगायी कि क्लासिकल फ़िज़िक्स का पूरा क़िला ही जल कर भस्म हो गया।

      आइन्स्टायन ने वास्तव में ऐसा कुछ इंक़लाबी अभिधारणा प्रस्तुत की थी की 1905 के शोध पत्र के प्रकाशित होने के बाद quantum-jump जैसा मुहावरा सामने आ गया। 

      लेकिन, प्लैंक को आइन्स्टायन की व्याख्या पर एतराज़ था। उनके अनुसार क्वांटम अभिधारणा की उपयोगिता केवल एक गणितीय सुविधा के रूप में थी और इसे मैटर और इनर्जी के बीच इंटरैक्शन के दौरान अर्थात इसके इमिशन और अब्ज़ॉर्प्शन की व्याख्या तक सीमित रखा जाना चाहिए, और इसे भौतिक वास्तविकता के भ्रम से दूर रखना चाहिए।

प्लैंक के इस नज़रिए की वजह से इतिहास में उन्हें reluctant revolutionary (अनिच्छुक क्रांतिकारी) के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। जबकि आइन्स्टायन के अनुसार प्रकाश क्वांटम का कॉन्सेप्ट, वास्तव में प्लैंक के गणितीय सूत्र को भैतिकी का वास्तविकता का धरातल फ़राहम कराता है।

     1906 में प्रकाशित अपने एक लेख में उन्होंने प्लैंक की आपत्तियों का जवाब दिया था। मूल लेख में उनके द्वारा कुछ तल्ख़ शब्दों का इस्तेमाल भी किया गया था जिसे ने मीकाईल बेस्सो (Michele Besso) के अनुरोध पर हटा लिया गया था।

     बेस्सो इटैलियन यहूदी मूल के उनके क़रीबी दोस्त थे और उनके निधन से तीन दिन बाद ही 18 अप्रैल 1955 को वह भी चल बसे थे। 

आइन्स्टायन की प्रकाश क्वांटम अभिधारणा शुरुआती दौर से ही आलोचनाओं के दायरे में आ गयी थी। इसके पीछे तीन सौ से जारी प्रकाश के तरंग नेचर और पार्टिकल नेचर के बीच जारी द्वंद्वात्मक पृष्ठभूमि भी काम कर रही थी।

      प्रकाश क्वांटा को एक भौतिक वास्तविकता के तौर पर पेश करने के आइन्स्टायन के प्रयासों के प्रति प्लैंक का प्रतिरोध बरक़रार था। एक दिलचस्प घटना यह है कि 1907-08 में प्लैंक ने आइन्स्टायन को प्रशिया एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में नियुक्ति के लिए प्रस्तावित किया, लेकिन प्लैंक ने अपने सिफ़ारिशी ख़त में अपनी दुविधा के छिपाये बिना लिखा, “हो सकता है कि वह (आइन्स्टायन) कभी-कभी अपने अनुमान में लक्ष्य से आगे निकल गए हों, उदाहरण के लिए उनकी प्रकाश क्वांटम परिकल्पना को उनके ख़िलाफ़ ज़्यादा तवज्जो नहीं दिया जाना चाहिए।”

       अपनी मृत्यु से ठीक पहले, प्लैंक ने इस तथ्य पर विचार किया कि वह अपनी खोज के निहितार्थों से लंबे समय तक पीछे हट गए थे। यही विडंबना आइंस्टीन के साथ पेश आयी, जिसका ज़िक्र आगे आएगा कि वह भी क्वांटम खोजों के बारे में संदेहजनक हो गाए थे, लेकिन इसके कारण बिलकुल अलग थे।

प्लैंक की भाँति मैक्स लावे (Max Laue) भी केवल इमिशन और अब्ज़ॉर्प्शन के दौरान क्वांटा की भूमिका के क़ायल थे और प्रकाश के “क्वांटा” से निर्मित होने की अभिधारणा के प्रति उन्होंने आइन्स्टायन को सचेत भी किया था।

        स्पष्ट है कि फोटोइलेक्ट्रिक इफ़ेक्ट विषयक आइंस्टीन के सिद्धांत ने जो नियम पेश किए थे उन्हें प्रयोगात्मक परीक्षणों के एक दौर से भी गुज़रना था। कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के प्रमुख भौतिक शास्त्री, रॉबर्ट मिलिकन ने आइन्स्टायन की प्रकाश सम्बंधित क्वांटम थेयोरी पर संदेह व्यक्त करते हुए इसे ग़लत साबित करने के उद्देश्य से प्रयोग शुरू किए।

       मिलिकन रवायती वैज्ञानिक थे और अभी भी “ईथर” के वजूद में यक़ीन रखते थे। 1914 में प्रकाशित उनके प्रायोगिक निष्कर्षों से आइंस्टीन के फोटोइलेक्ट्रिक फ़ोरम्युले तो सत्यापित हो गए लेकिन प्रकाश के क्वांटम सिद्धांत पर उनकी अपनी राय बरक़रार रही।

      वह आइंस्टीन की व्याख्या के बारे में आश्वस्त नहीं थे, उनके अनुसार आइन्स्टायन का  फ़ोरम्युला फोटोइलेक्ट्रिक प्रभाव के व्यवहार को बहुत सटीक रूप से दर्शाता है, लेकिन एक सिद्धांत के तौर पर यह ख़ारिज करने योग्य है। 

       लेकिन समय के साथ आइन्स्टायन की फ़ोटोइलेक्ट्रिक थ्योरी और इसका समीकरण भौतिकशास्त्र में स्वीकार्यता हासिल कर गया। 1926 में क्वांटा का वजूद भी सिद्ध हो गया जिसे आज हम फ़ोटान के रूप में जानते हैं।

1920 के दशक में क्वांटम यांत्रिकी के आगमन के साथ, फोटॉन की वास्तविकता भौतिकी का एक मूलभूत हिस्सा बन गई।

     1922 में आइन्स्टायन को भौतिकी के 1921 के नोबेल ईनाम से नवाज़ा गया था।

      इसके अगले साल, 1923 में  मिलिकन को प्राथमिक विद्युत आवेश के मापन और फोटोएलेक्ट्रिक इफेक्ट पर उनके कार्य के लिए भौतिकी के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया, लेकिन क्वांटम फ़िज़िक्स के विकास के साथ जो सवाल और जवाब पैदा हो रहे थे वह अनेक भौतिक-शास्त्रियों को असहज भी कर रहे थे।

तमाम पिंड/वस्तुएँ चाहे कितना भी गर्म या ठंडे क्यों न हों, लगातार विद्युत चुम्बकीय तरंगों का विकिरण करती रहती हैं। उदाहरण के लिए हम बहुत गर्म वस्तुओं की चमक देखने में इस वजह से सक्षम होते हैं, क्योंकि, वे स्पेक्ट्रम के दृश्य क्षेत्र में विद्युत चुम्बकीय तरंगों का उत्सर्जन करती हैं।    

         हमारा सूर्य, जिसकी सतह का तापमान लगभग 6000 केल्विन है, पीला दिखाई देता है, जबकि अपेक्षाकृत ठंडा तारे बेटेलज्यूज़ की सतह का तापमान 2900 K होने के कारण इसकी सतह लाल-नारंगी रंग की दिखती है। अपेक्षाकृत कम तापमान पर, ठंडी वस्तुएं दृश्य प्रकाश तरंगों का उत्सर्जन करती हैं लेकिन यह तरंगें काफ़ी क्षीण होती हैं जिसकी वजह इन वस्तुओं में प्रदीपन काफ़ी कम होता है।

      हमारे शरीर का तापमान केवल 310 केल्विन है जिसकी वजह से यह पर्याप्त दृश्य प्रकाश का उत्सर्जन नहीं करता है और इसे अंधेरे में नहीं देखा जा सकता। लेकिन हमारा शरीर स्पेक्ट्रम के अवरक्त क्षेत्र (infrared region) में विद्युत चुम्बकीय तरंगों का उत्सर्जन करता है जिसे इन्फ्रारेड-संवेदनशील उपकरणों के साथ इनका पता लगाया जा सकता है। इस मामले में एक साँप को क़ुदरत ने यह सलाहियत दी है।

एक दिये गए तापमान पर किसी वस्तु द्वारा उत्सर्जित विद्युत चुम्बकीय तरंगों की तीव्रता तरंग दैर्ध्य के अनुसार दृश्यमान, अवरक्त या स्पेक्ट्रम के अन्य क्षेत्रों में भिन्न होती है। ब्लैक-बॉडी रेडीएशन के विषय में हमने पढ़ा कि किसी भी तापमान पर वह उस तापमान के अनुरूप एक निश्चित तरंग दैर्ध्य की तरंगों में सर्वाधिक ऊर्जा का उत्सर्जन करता है।

      उससे ऊपर की तरंग दैर्ध्य पर क्रमशः कम मात्राओं में ऊर्जा का उत्सर्जन होता था और इसी प्रकार नीचे की तरंग दैर्ध्य पर भी क्रमशः कम मात्राओं में ऊर्जा निकलती है। अर्थात प्रत्येक तापक्रम के लिये एक निश्चित मध्यम तरंग दैर्ध्य थी जिस पर सर्वाधिक ऊर्जा होती है।

       इस मध्यम तरंग दैर्ध्य से ज्यों-ज्यों दूर खिसकए, चाहे ऊपर की तरफ़ या नीचे की तरफ़, ऊर्जा का उत्सर्जन कम होता जाता है। अगर ब्लैक बॉडी का तापक्रम बढ़ाते जाएँ तो मध्यम तरंग दैर्ध्य  ऊपर चढ़ती जाती है। मध्यम से दोनों तरफ़ हटने पर ऊर्जा जी मात्रा में लगभग सामान्य रूप से गिरावट होती है। वीन ने ऊष्मीय गतिकी के आधार पर ब्लैक-बॉडी रेडीएशन की व्याख्या और गणितीय सूत्री स्थापित करने का प्रयास किया।

      लेकिन, क्लासिक भौतिकी ब्लैक-बॉडी रेडीएशन के व्यवहार की व्याख्या करने में स्पष्ट रूप से असफल साबित हो रही थी। उत्सर्जित रेडीएशन का तरंग तरंग दैर्ध्य/ आवृत्ति (frequency) पर desecrate निर्भरता तत्कालीन नियमों की खुली खिलावरज़ी थी जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता था।

 इस व्यवधान और संकट को दूर करने के लिए मैक्स प्लैंक ने नयी परिकल्पनाओं का सहारा लिया जो क्रांतिकारी साबित हुईं। 

      प्लैंक का जन्म 23 अप्रैल 1858 होल्स्टीन की रियासत (Duchy) के कील नगर में हुआ था। प्लैंक की माँ एम्मा पैटज़िग उनके पिता जोहान जूलियस विल्हेम प्लैंक की दूसरी पत्नी थीं।उन्हें कार्ल अर्न्स्ट लुडविग मार्क्स प्लैंक के नाम से बपतिस्मा किया गया था।

      बाद में मार्क्स से R विलुप्त हो गया इसकी वजह यह थी कि दस साल की उम्र में जब प्लैंक ने दस्तख़त बनाए तो मैक्स ही लिखा और इसके बाद वह मैक्स प्लैंक के नाम से ही जाने जाते रहे।

कील का क़लमबंद इतिहास 13वीं सदी में शुरू होता है। 1864 तक यह Personal Union के अंतर्गत डेनमार्क के आधीन रहा।

     1866 में इस शहर पर प्रशिया ने कब्जा कर लिया और 1871 में यह जर्मनी का हिस्सा बन गया।

1867 में प्लैंक का परिवार म्यूनिख चला गया, और प्लैंक का दाख़िला मैक्सिमिलियन जिम्नेज़ीयम स्कूल में करा दिया गया। संस्था के एक अध्यापक हरमैन मुलर ने किशोर प्लैंक की रूचि खगोल विज्ञान और यांत्रिकी के साथ-साथ गणित में पैदा कर दी। यह मुलर थे जिनसे प्लैंक ने सबसे पहले ऊर्जा के संरक्षण के सिद्धांत को सीखा।

      प्लैंक को विद्वता विरासत में मिली थी, यद्यपि वह एक कुशल छात्र थे लेकिन कक्षा में वह प्रथम पोज़ीशन कभी हासिल नहीं कर सके। इसी बीच प्लैंक की रूचि संगीत में बढ़ने लगी और वह पियानो पर रियाज़ में काफ़ी समय व्यतीत करने लगा, लेकिन शीघ्र यह अयां हो गया कि संगीत में भविष्य की कोई ज़मानत नहीं है।

       अक्टूबर 1874 में, सोलह वर्ष की आयु में, प्लैंक ने म्यूनिख विश्वविद्यालय में दाखिला लिया और प्रकृति को समझने की इच्छा के कारण भौतिकी को अध्ययन क्षेत्र के रूप में चुना। जिम्नेज़ीयम स्कूलों के कठोर अनुशासन के विपरीत, जर्मन विश्वविद्यालयों में छात्रों को काफ़ी आज़ादी मिली हुई थी।

        यहाँ अकादमिक पर्यवेक्षण (supervision) नहीं था और ना ही इस सम्बंध में कोई ख़ास बंधन था। इसके अतिरिक्त छात्र एक विश्वविद्यालय से अपनी पसंद के दूसरे विश्वविद्यालय में तबादला कर सकते थे। जो विद्यार्थी बेहतर अकादमिक कैरीयर बनाना चाहते थे, वे प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में प्रतिष्ठित प्रोफेसरों की शागिर्दी इख़्तियार कर लेते थे। म्यूनिख़ में तीन साल के बाद,प्लैंक को कैरीयर काउन्सलिंग के दौरान यह बताया गया कि ‘अब शायद ही भौतिकी में अध्ययन लायक़ कुछ है, क्योंकि खोज के लिए कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं बचा था, अलबत्ता कुछ गड्ढे हैं।’ 

     इसका प्रभाव यह हुआ कि प्लैंक बर्लिन विश्वविद्यालय चले गए जिसका शुमार जर्मनी के अग्रणी विश्वविद्यालय में होता था।

       1870-71 के युद्ध में फ्रांस पर प्रशिया के नेतृत्व वाली जीत के मद्देनजर एक एकीकृत जर्मनी के निर्माण के साथ, बर्लिन एक शक्तिशाली नए यूरोपीय राष्ट्र की राजधानी बन गया था। हवेल और स्प्री नदियों के संगम पर स्थित इस शहर को फ़्रांसीसी युद्ध के नतीजे में प्राप्त मुआवज़े ने तेज़ रफ़्तार विकास के रास्ते पर पहुँचा दिया।

नतीजतन बर्लिन जल्द ही लंदन और पेरिस के बराबर जाना जाने लगा और जल्द प्रवासियों का मुख्य आकर्षण बन गया। आज जब हम यह देखते हैं कि यही बर्लिन है जो उन्नीसवीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरुआत में पूर्वी यूरोप में उत्पीड़न और ज़ारिस्ट रूस में जनसंहार से भाग रहे यहूदी समुदाय के महत्वपूर्ण शरण स्थली बन चुका था, तो काफ़ी ता’जुब होता है। इस दौर में आवास काफ़ी महँगा हो जाने की वजह से ग़रीब, बेघर और बेसहारा लोगों को गत्ते के बक्सों से निर्मित घरों में रहने पर मजबूर होना पड़ा था।

       वास्तविकता यह है कि कई लोगों ने बर्लिन पहुंचने पर पाया कि जर्मनी अभूतपूर्व औद्योगिक विकास, तकनीकी प्रगति और आर्थिक समृद्धि के दौर में प्रवेश कर रहा था। प्रथम विश्व युद्ध के समय, एकीकरण और फ्रांसीसी युद्ध से प्राप्त मुआवज़े, आंतरिक शुल्कों के उन्मूलन से बड़े पैमाने पर प्रेरित जर्मनी के औद्योगिक उत्पादन और आर्थिक स्थिति संयुक्त राज्य अमेरिका के बाद दूसरे स्थान पर थी। यह वह समय था जबकि जर्मनी  यूरोप के कुल कोयले का आधा और कुल स्टील का दो-तिहाई से अधिक उत्पादन कर रहा था, और ब्रिटेन, फ्रांस और इटली के कुल योग से अधिक बिजली पैदा कर रहा था।

       यहां तक ​​कि मंदी और चिंता जिसने 1873 के शेयर बाजार में गिरावट के बाद यूरोप को प्रभावित किया, केवल कुछ वर्षों के लिए जर्मन विकास की गति को प्रभावित कर सका था।

       जर्मनी के एकीकरण के साथ जर्मन वासियों की यह प्रबल इच्छा थी कि रियासत (Reich) की राजधानी बर्लिन में एक ऐसा विश्वविद्यालय हो जिसका कहीं “सानी” ना हो। इसके लिये हीडेलबर्ग (Heidelberg) से  जर्मनी के सबसे प्रसिद्ध भौतिक विज्ञानी, हरमन वॉन हेल्महोल्ट्ज़ को दावत दी गयी।

       हेल्महोल्ट्ज़ जो भौतिकी के प्रख्यात विद्वान होने के साथ-साथ एक प्रसिद्ध शरीर विज्ञानी भी थे, ने मानकों से कई गुणा ज़्यादा वेतन के साथ एक  बेहतर और उच्चकोटि के भौतिकी संस्थान की मांग रखी। जब प्लैंक 1877 में बर्लिन पहुँचे तो महत्वकांक्षी संस्थान फ्रेडरिक विल्हेम विश्वविद्यालय का निर्माण किया जा रहा था। यह भवन यूनर डेन लिंडेन पर स्थित एक पूर्व महल पर स्थित था जिसने सामने एक ओपेरा हाउस भी था।

प्लैंक बर्लिन फ्रेडरिक विल्हेम विश्वविद्यालय में एक साल रहे। इस बीच भौतिक शास्त्री हेल्महोल्ट्ज़ और गुस्ताव किरचॉफ़ और गणितज्ञ कार्ल वीयरस्ट्रैस के साये में अपनी तालीम जारी रखी।

   प्लैंक लिखते हैं : “हेल्महोल्ट्ज़ क्लास में कभी भी पूरी तैयारी से नहीं आते थे, धीरे-धीरे बोलते थे,और अक्सर  गलत गणनायें करते थे, जिससे श्रोताओं को ऊब महसूस होती थी, जबकि किरचॉफ सावधानीपूर्वक तैयार किये गये व्याख्यानों के माध्यम से बात करते थे लेकिन वे नीरस थे।”

       जल्द ही प्लैंक की हेल्महोल्ट्ज़ के साथ घनिष्ठता बढ़ गयी। वहाँ रहते हुए उन्होंने क्लॉसियस के लेखों को स्व-अध्ययन के एक कार्यक्रम के माध्यम से समझने का प्रयास किया।

प्लैंक को छात्र जीवन से ही ऊर्जा के संरक्षण के नियम (Law of Conservation of Energy) के विषय में एक जिज्ञासा थी। वह लिखते हैं कि इस नियम ने उन्हें ‘एक इलहाम का सा एहसास दिया, क्योंकि इसमें मानव हस्तक्षेप से इतर पूर्ण, सार्वभौमिक वैधता थी।”

      यह वह क्षण था जब उन्होंने शाश्वत और प्रकृति से निरपेक्ष मौलिक नियमों की खोज के विषय में क़दम बढ़ाना शुरू किये।

प्लैंक ने थर्मोडायनैमिक्स के दूसरे नियम से सम्बंधित क्लॉसियस (Clausius) की थेरी और फ़ॉर्म्युलों का विधिवत अध्ययन किया तो मंत्रमुग्ध हो गये थे। इस नियम में ऊष्मा के स्थानांतरण की दिशा तय करते हुए यह कहा गया था कि ऊष्मा ठंडे स्थान से गर्म स्थान तक अनायास (spontaneously) गति नहीं करेगी।

      प्लैंक ने समझ लिया था कि “अनायास” से क्लॉसियस जो बताना चाह रहा थे उसका उससे भी गहरा महत्व था। तापमान अंतर के कारण ऊर्जा का स्थानांतरण अनेक रोज़मर्रा की घटनाओं में दिखता है, जैसे एक गर्म कप कॉफी ठंडा हो रहीहै और एक गिलास पानी में बर्फ का टुकड़ा पिघल रहा है। लेकिन अगर बाहरी हस्तक्षेप ना हो तो कभी इसका उल्टा देखने को नहीं मिलतानहीं! क्यों नहीं? ऊर्जा के संरक्षण के नियम ने तो एक कप कॉफी को गर्म होने और आसपास की हवा को ठंडा करने, या पानी का गिलास गर्म होने और बर्फ को ठंडा करने से मना नहीं किया। ऐसा क्या था जो ऐसा होने से रोक रहा था?

क्लॉसियस ने इसका कारण एन्ट्रापी (entropy) से जोड़ते हुए यह समझाया कि प्रकृति में कुछ प्रक्रियाएँ क्यों होती हैं और अन्य क्यों नहीं। ऊर्जा का संरक्षण किसी भी संभावित भौतिक घटना को संतुलित करने का प्रकृति का तरीका है जिसकी प्रकृति एक कीमत की मांग करती है। क्लॉसियस के अनुसार एन्ट्रापी ही यह क़ीमत है।

       किसी भी स्वतंत्र और पृथक प्रणाली में प्रकृति केवल उन प्रक्रियाओं की अनुमति देती है जिनमें एन्ट्रापी या तो समान रही या बढ़ी हुई थी। कोई भी ऐसी प्रक्रिया जो एन्ट्रापी में कमी का कारण बनती है प्रकृति उसकी इजाज़त नहीं देती। सभी वास्तविक, वास्तविक प्रक्रियाएं व्युतक्रमणिय  (irreversible) हैं क्योंकि उनके परिणामस्वरूप एन्ट्रापी में वृद्धि होती है।

       यह प्रकृति का तरीका है कि केवल आदर्श प्रक्रियाएँ जिनमें एन्ट्रापी अपरिवर्तित रहती है, reversible होती हैं। हालांकि, वे व्यवहार में कभी नहीं होते, केवल भौतिक विज्ञानी के दिमाग में होते हैं। ब्रह्मांड की एन्ट्रापी अधिकतम की ओर झुकती है। ऊर्जा के साथ-साथ, प्लैंक का मानना ​​था कि एन्ट्रापी ‘भौतिक प्रणालियों का सबसे महत्वपूर्ण गुण’ है।

अक्टूबर 1878 में, प्लैंक ने अहर्ता परीक्षा उत्तीर्ण की और फरवरी 1879 में अपने शोध पत्र (dissertation)-Über den zweiten Hauptsatz der mechanischen Wärmetheorie (थर्मोडायनैमिक्स के दूसरे नियम पर) लिखा। इसी बीच उन्होंने म्यूनिख के अपने पूर्व स्कूल में कुछ समय गणित और भौतिकी का अध्यापन कार्य भी किया।।

      प्लैंक के लिये निराशा को बात यह रही कि डॉक्टरेट थीसिस को कोई तवज्जोह  नहीं मिली। अनुमोदन की तो बात ही छोड़ दें, यहां तक ​​कि उन भौतिकविदों के बीच भी जो इस विषय से निकटता से जुड़े थे, किसी भी तरह की चर्चा नहीं हुई। हेल्महोल्ट्ज़ ने इसे पढ़ाना भी गवारा नहीं किया। किरचॉफ ने पढ़ा ज़रूर, लेकिन वह इससे असहमत थे। क्लॉसियस, जिनका उन पर इतना गहरा प्रभाव था, ने भी उनके पत्र का जवाब नहीं दिया।

       प्लैंक ने 70 साल बाद भी जब इसको याद किया तो कड़वाहट को छिपा नहीं सके। लिखते हैं, ‘उन दिनों के भौतिकविदों पर मेरे शोध प्रबंध का प्रभाव शून्य था’। लेकिन, प्लैंक के भीतर एक  बाध्यता (compulsion) घर कर चुकी थी जिससे प्रेरित होकर उन्होंने थर्मोडायनामिक्स, विशेष रूप से इसके द्वितीय नियम  को अपने शोध का केंद्र  निर्धारित करते हुए अपना अकादमिक कैरियर शुरू कर दिया।

  न्यूटन के सिद्धांतों पर आधारित भौतिकी दो शताब्दियों से अधिक समय से स्थिर और सम्मोहक बनी हुई थी। लेकिन ब्लैकबॉडी रेडीएशन की व्याख्या देने में इसकी असफलता ने कुछ ही समय में न्यूटोनियन क्लासिकल भौतिकी की विसंगतियों और कमज़ोरियों को सामने ला दिया। न्यूटोनियन प्रभाव  लगभग 250 वर्षों तक चला, फिर 19 वीं सदी के आख़िरी दशक में  में प्रकाशिकी/ऊष्मीय विकिरण के एक दूरस्थ कोने का अध्ययन करते हुए भौतिक वैज्ञानिकों ने यह पाया कि इसकी व्याख्या किसी नये विचार पेश करके ही दी जा सकती है और इन घटनाओं (phenomenon) को समझा जा सकता है कि वास्तव में क्या हो रहा है।   

         यह विचार था “क्वांटम की परिकल्पना”, जो भ्रामक रूप से सरल था लेकिन इस विचार के सहारे वैज्ञानिक न्यूटोनियन दुनिया की नींव को तोड़ने के लिए निकल पड़े। यह पूरा स्ट्रक्चर कैसे ढेर हो गया? इसके जवाब के लिये हमें मैक्स प्लैंक (1858-1947) के जीवन में एक संक्षिप्त चक्कर लगाने की आवश्यकता है, जिन्होंने विज्ञान में क्वांटम की धारणा पेश की।

        दिलचस्प बात यह है कि स्वभाव से वह एक अधिक रूढ़िवादी थे लेकिन नियति ने उनके माध्यम से क्रांतिकारी सोच के विकास की पहली ईंट रखी।

हम आगे बढ़ते हैं,

जर्मन विश्वविद्यालय राज्य नियंत्रित संस्थान थे जहां दो क़िस्म के प्रोफ़ेसर होते थे-असाधारण और साधारण, और दोनों ही शिक्षा मंत्रालय द्वारा नियुक्त और नियोजित सिविल अधिकारी माने जाते थे। 1880 में प्लैंक म्यूनिख विश्वविद्यालय में अवैतनिक व्याख्याता (privatdozent) के तौर पर नौकरी पा गए। उनके क्लास में पढ़ने वाले  छात्रों द्वारा भुगतान की गई फीस ही उनका वेतन था।

       प्लैंक के साथ दिक़्क़त यह थी प्रायोगिक भौतिकी (Experimental Physics) में उनकी कोई रूचि नहीं थी बल्कि मूलतः वह सैद्धांतिक भौतिकी (Theoretical Physics) के आदमी थे, जबकि सैद्धांतिक भौतिकी अभी तक विशिष्ट अध्ययन क्षेत्र (discipline) के रूप में स्थापित नहीं हो सकी थी।

      शायद यही वजह है कि 1900 में जर्मनी में सैद्धांतिक भौतिकी के केवल सोलह प्रोफेसर थे। 

प्लैंक जानते थे कि अपने कैरियर को आगे बढ़ाने के लिये उन्हें भौतिकी में कुछ अलग और विशेष करना होगा। इसी बीच गोटिंगेन (Göttingen) विश्वविद्यालय की ओर से ‘द नेचर ऑफ एनर्जी’ के शीर्षक से एक शोध पत्र के लेखन की प्रतियोगिता आयोजित की गयी।

 अभी वह अपने शोध पत्र की तैय्यारी कर रहे थे कि मई 1885 में उन्हें कील विश्वविद्यालय में एक असाधारण प्रोफेसरशिप की पेशकश की गई। यद्यपि 27 वर्षीय प्लैंक हर लिहाज़ से अहर्ता रखते थे लेकिन उन्हें यह मलाल रहा कि इस नियुक्ति की पीछे शायद कील के भौतिकी प्रमुख और उनके पिता की दोस्ती कारफ़रमा थी, जिसके कारण यह प्रस्ताव आया था।

       उधर गोटिंगेन प्रतियोगिता में केवल तीन पेपर जमा हुए थे। यद्यपि प्लैंक को द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ था लेकिन दो वर्ष गुज़रने के बाद यह घोषणा की गई कि कोई विजेता नहीं होगा। इसकी वजह यह थी गॉटिंगेन संकाय के एक सदस्य और  हेल्महोल्ट्ज़ के बीच किसी विज्ञानीय विवाद में प्लैंक ने हेल्महोल्ट्ज़ का समर्थन किया था।  

        इस पूरे प्रकरण ने हेल्महोल्ट्ज़ का ध्यान प्लैंक और उनके काम की ओर आकर्षित किया। कील में तीन साल से कुछ अधिक समय के बाद, नवंबर 1888 में हेल्महोल्ट्ज़ के समर्थन से प्लैंक को सैद्धांतिक भौतिकी के प्रोफेसर के रूप में बर्लिन विश्वविद्यालय में गुस्ताव किरचॉफ़ (मृत्यु 17 अक्तूबर 1887) की जगह लेने के लिए कहा गया।

1894 में जर्मनी के दो महान भौतिक शास्त्रियों- हेल्महोल्ट्ज़ (73 वर्ष) और ऑगस् कुंड्ट (केवल 55 वर्ष) के आकस्मिक निधन से गम्भीर स्थिति पैदा हो गयी जिसकी वजह से प्लैंक की पदोन्नति कर दी गयी। अब वह सैद्धांतिक भौतिकी के प्रोफ़ेसर सहित PTR की जर्नल “एनालेन डेर फ़िज़ि” (Annalen der Physik) के हवाले से भी अत्यधिक प्रभाव की स्थिति रखते थे।

       दो सहयोगियों की मौत और नए ऊंचे पद व उसकी ज़िम्मेदारियों के दबाव को महसूस करते हुए प्लैंक के लिये ज़रूरी थी कि वह भौतिकी के प्रति मज़ीद अपने को वक़्फ़ कर दें। वह पीटीआर में चल रहे औद्योगिक प्रतिस्पर्धा के चलते ब्लैकबॉडी अनुसंधान कार्यक्रम से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे।

       यद्यपि उनका कार्यक्षेत्र “थर्मोडायनामिक्स” ब्लैकबॉडी द्वारा विकिरणित प्रकाश/ऊष्मा की व्याख्या करने के लिये प्रेरित कर रहा था लेकिन विश्वसनीय इक्स्पेरिमेंटल डेटा की कमी ने प्लैंक को सम्बंधित सूत्र और समीकरण के सटीक रूप को प्राप्त करने की कोशिश करने से रोक दिया था। फिर पीटीआर में एक पुराने दोस्त वीन की सफलता का मतलब था कि वह अब ब्लैकबॉडी की समस्या पर ग़ौर करने से ख़ुद को नहीं बच सकते थे।

वीन द्वारा प्रतिपादित वितरण नियम प्रकाशित करने के बाद, जिसका ज़िक्र पूर्व में हो चुका है, 1896 में, प्लैंक ने इस नियम को थर्मोडायनैमिक्स के सिद्धांत से स्थापित करने की कोशिश की। तीन साल बाद, मई 1899 में, प्लैंक ने थर्मोडायनैमिक्स सम्बंधित Boltzmann के सांख्यिकी और प्रॉबबिलिटी थिरीज़ पर अपना ध्यान केंद्रित किया और ‘वीन के वितरण के नियम” की वैधता और इसकी सीमाओं पर काम करना शुरू कर दिया।

       बोल्ट्जमैन का मानना ​​​​था कि गैसों के मैक्रोस्कोपिक गुण, जैसे कि दबाव, आयतन (volume) और तापमान, यांत्रिकी (mechanics) और प्रॉबबिलिटी (probability) के नियमों द्वारा नियंत्रित सूक्ष्म  (माइक्रोस्कोपिक) घटनाओं की अभिव्यक्तियां हैं।

       1808 में डाल्टन की अटामिक थेरी के बाद न्यूटन के नियमों के आधार पर किसी गैस के अणुओं की गति की व्याख्या देना मुश्किल था। 1860 में स्कॉटिश भौतिक विज्ञानी जेम्स क्लर्क मैक्सवेल ने अणुओं के वेग को मापे बिना अणुओं की गति को पकड़ लिया था।

आँकड़ों और प्रोबबिलिटी का उपयोग करते हुए, मैक्सवेल ने वेगों के  संभावित वेग वितरण पर काम किया। सांख्यिकी और प्रोबबिलिटी के आधार पर मैक्सवेल गैसों के अनेक गुणों की व्याख्या करने में सफल थे। बोल्ट्जमैन ने आगे बढ़कर इसका उपयोग करते हुए गैसों के काईनेटिक सिद्धांत को समझाया। इसके बाद एंट्रोपी को डिसॉर्डर से जोड़ कर थर्मोडायनामिक्स के दूसरे नियम की एक सांख्यिकीय व्याख्या विकसित की।

      बोल्ट्जमैन के इस सिद्धांत के अनुसार एन्ट्रापी किसी सिस्टम की अवस्था की संभावना की माप है।

       परमाणु सिद्धांत को अब तक चाहे जितनी बड़ी सफलता मिली हो लेकिन इस सम्बंध में जर्मनी के वैज्ञानिक हल्क़ों में एक संशय की स्थिति बनी हुई थी। प्लैंक जैसे कई लोग थे, जिन्होंने थर्मोडायनामिक्स के प्रति अणु गति के दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं किया था। 

1882 में प्लैंक ने लिखा, ‘आखिरकार इसे (atomic theory) निरंतर पदार्थ की धारणा के पक्ष में छोड़ना होगा।’ अठारह साल बाद, 1900 तक प्लैंक अटामिक थेरी के अस्तित्व के पक्ष में प्रमाणों को निर्विवादित नहीं मानते थे और अभी भी परमाणुओं में विश्वास नहीं करता थे। लेकिन मैक्स्वेल के विद्युत चुंबकत्व के सिद्धांत से वह इतना जानते थे कि एक निश्चित आवृत्ति पर दोलन (oscillate) करने वाला विद्युत आवेश केवल उसी आवृत्ति का विकिरण उत्सर्जित और अवशोषित करता है।

        इसलिए उन्होंने ब्लैकबॉडी की दीवारों को विशाल दोलनकारी (oscillating) व्यूह (arrays) के तौर पर पेश किया। यद्यपि प्रत्येक दोलनकारी केवल एक आवृत्ति का उत्सर्जन करता है लेकिन सामूहिक रूप से वे ब्लैकबॉडी के भीतर पाई जाने वाली आवृत्तियों की पूरी रेंज का उत्सर्जन करते हैं। 

      इस मक़ाम पर इक्स्पेरिमेंटल वैज्ञानिकों के योगदान पर चर्चा ज़रूरी है :

      ब्लैक-बॉडी रेडीएशन की समस्या के हल की दिशा को निर्धारित करने में प्रायोगिक भौतिकज्ञों का अहम योगदान है.

       विज्ञान और गणित की शब्दावली में “राशि” का कॉन्सेप्ट समझना ज़रूरी है। मोटे तौर पर इन्हें चर और अचर के रूप में बाँटा गया है। अचर से मतलब स्थिर या constant से है। चर राशियों को भी स्वतंत्र चर (independent variables) और परतंत्र चर (dependent variables) में बाँटा गया है।

       उदाहरण स्वरूप  एक वृत्त की परिधि उसकी त्रिज्या r पर निम्न प्रकार से निर्भर करती है- 

P = 2πr, यहाँ r एक स्वतंत्र चर है जबकि P एक परतंत्र चर है क्योंकि इसका मान त्रिज्या r के मान पर निर्भर है। 

       यदि दो चर राशियाँ x (स्वतंत्र चर) तथा y (परतंत्र चर) किसी नियम ‘f’ के द्वारा इस प्रकार संबद्ध (related) हो कि x के प्रत्येक मान के लिये y का एक निश्चित एवं अद्वितीय (unique) मान प्राप्त हो तो y को x का फलन (function) कहते हैं। जिसे y= f (x) द्वारा निरूपित करते हैं। 

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भौतिकविदों ने पिंडों द्वारा उत्सर्जित विकिरण सम्बंधित चिंतन शुरू कर दिया था। सर्वप्रथम गुस्ताव रॉबर्ट किरचॉफ (1824-1887) ने 1860 में ऊष्मा विकिरण का पूर्ण सैद्धांतिक व्याख्या देने का प्रयास किया था जिसके मूल में एक आदर्श ब्लैक-बॉडी की धारणा थी।

       उसी पेपर में, किरचॉफ ने बताया कि कैसे प्रयोगात्मक रूप से एक ब्लैक-बॉडी का निर्माण किया जाता है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि किरचॉफ ने यह भी दिखाया कि तरंग लंबाई λ और तापमान Τ के लिये उक्त पिंड की उत्सर्जन शक्ति e (λ, T) और उसकी अवशोषण शक्ति a (λ, T) का अनुपात एक सार्वत्रिक फलन (Universal Constant) है। अपने शोध पत्र में किरचॉफ ने अंतिम निष्कर्ष निकाला कि “इस सार्वत्रिक फलन को खोजना भविष्य का अत्यंत महत्व का कार्य है.”

        1890 का दशक एक ऐसा समय था जब जर्मनी में एक छोटा लेकिन ज़हीन समूह ब्लैकबॉडी रेडीएशन की प्रकृति पर प्रयोगशाला में कुछ अलग तरह से काम कर रहा था। लेकिन अफ़सोस की थीअरेटिकल भौतिक शास्त्रियों के मुक़ाबले इस समूह के ऐतिहासिक योगदान की चर्चा नहीं के बराबर होती है। अगर, चर्चा होती भी है तो उसे  एक मामूली फुटनोट से अधिक महत्व नहीं दिया जाता और अगर उन्हें याद किया जाता है तो केवल सम्बद्ध थीअरेटिकल भौतिक शास्त्रियोंके संदर्भ से आगे नहीं बढ़ा जाता।

      वीन के अतिरिक्त, हम में से कौन आज तत्कालीन जर्मन प्रयोगात्मक भौतिकविदों – फ्रेडरिक पाश्चेन, ओटो रिचर्ड लम्मेर (1860-1925), अर्न्स्ट  प्रिंगशेम (1859-1917), हेनरिक रूबेन्स (1865-1922), और फर्डिनेंड कुर्लबाम (1857-1927) के 1900 तक के वर्षों में उनके द्वारा किए गए ऐतिहासिक कार्यों के विषय में जानकारी रखता है? 

इस अवधि में इन्फ्रारेड क्षेत्र की तरंग दैर्ध्य (wavelength) के लिए अल्प मात्रा के विकिरण का पता लगाने की क्षमता के विकास और प्रयोज्य ब्लैकबॉडी के निर्माण ने ऊष्मीय विकिरण की जाँच और मापन में अभूतपूर्व सटीकता की सम्भावनायें पैदा कर दीं थीं जिसने थीअरेटिकल भौतिक शास्त्रियों के लिये आसानियाँ पैदा कर दीं।

      उसी समय जब वीन (जो भौतिकी के दोनों क्षेत्रों में बराबर का दख़ल रखते थे), लॉर्ड रेलीग, थिएसेन और प्लैंक ब्लैक-बॉडी रेडीएशन की समस्या पर सैद्धांतिक रूप से काम कर रहे थे तो उनके लिये पर्याप्त और सटीक डेटा जर्मन प्रायोगिक भौतिकज्ञों के ज़िम्मे था।

      यहाँ प्रायोगिक भौतिकज्ञों द्वारा प्राप्त निष्कर्ष दूसरे पक्ष की प्रगति के लिए प्रेरणा का काम किया कर रहे थे। 

       किरचॉफ के बाद प्रयोगों और पर्यवेक्षण में  प्रगति बहुत धीमी थी, जो मोटे तौर पर ऊष्मीय विकिरण के तालुक़ मापन की खराब स्थिति को दर्शाती थी।

1880 में अमेरिकी खगोल शास्त्री सैमुअल पियरपोंट लैंगली (1834-1906) द्वारा बोलोमीटर के निर्माण के बाद हालात में सुधार हुआ और ऊष्मा के स्पेक्ट्रल डिस्ट्रिब्यूशन के मापन पद्धति में  सटीकता और आत्मविश्वास पैदा हुआ। बोलोमीटर की क्षमताओं में निरंतर सुधार एक महत्वपूर्ण प्रारंभिक कदम था।

       इस दिशा में पहली बार 1892 में लम्मेर और कुर्लबाम ने और कुछ साल बाद लुम्मेर और प्रिंगशेम ने  आगे के सुधार किये गए।

      1895 में वीन और लम्मेर ने प्रयोज्य  ब्लैकबॉडी का निर्माण किया जो लगभग पैंतीस साल पहले किरचॉफ द्वारा प्रस्तावित आदर्श रेडिएटर की सैद्धांतिक धारणा पर आधारित था।

      एक ब्लैकबॉडी स्रोत की रचना  में किरचॉफ ने गुहा (cavity) का उपयोग करने का प्रस्ताव रखा था। जिसके एक छोटे से छेद के माध्यम से गुहा बाहर की ओर ऊष्मा संप्रेषित करेगी और यह विकिरण सैद्धांतिक रूप से  “ब्लैक” तस्वुर किया जाएगा।  किरचॉफ ने उत्सर्जित रेडीएशन को cavity radiation (जर्मन-Hohlraumstrahlung) के रूप में संदर्भित किया था।

1895 में लम्मेर और वीन ने जो निर्माण किया, वह आश्चर्यजनक रूप से, बिल्कुल ऐसा ही था – जो काली दीवारों से घिरा था और एक समान रूप से गर्म होने में सक्षम था। इसके छोटे छिद्र से उत्सर्जित विकिरण लगभग काले पिंड से उत्सर्जित के समान था।

      लैंगली के बोलोमीटर में मज़ीद संशोधनों के साथ, इंफ़्रारेड से आगे के क्षेत्र में फैली तरंग दैर्ध्य के विकिरण की माप के लिये संवेदनशीलता में वृद्धि हो गयी थी। इसके साथ बर्लिन में नव-निर्मित PTR में जर्मन प्रायोगिक भौतिकज्ञों का काम काफ़ी तेज़ी से बढ़ने लगा। इस डिवाइज़ का सबसे पहला काम स्टेफ़न-बोल्ट्ज़मैन नियम का परीक्षण करना था।

       इसकी शुरुआत में अगस्त लुडविग एडुआर्ड फ्रेडरिक श्लेइरमाकर (1857-1953) और अन्य लोगों द्वारा इस नियम की ऐसी वस्तुओं/पिंडों के लिए पुष्टि की गई थी जो पूरी तरह ब्लैक नहीं थे, और कुछ साल बाद लम्मेर- प्रिंगशेम, लम्मेर-कुर्लबाम और कुर्लबाम द्वारा एक ब्लैकबॉडी के लिए इस नियम की पूरी तरह से पुष्टि की गई थी।

1895 के ही आसपास  हनोवर के Technischen Hochschule में अवैतनिक (Privatdozent) तौर पर  काम कर रहे, और बाद में हेनरिक वानर के सहायक पाश्चेन ने ब्लैकबॉडी रेडीएशन सम्बंधित शोध प्रयास शुरू किए।

      पाश्चेन को उम्मीद थी कि उसके प्रयोग और शोध उसे अनुभवजन्य रूप (Empirically) से किरचॉफ के सार्वत्रिक फलन (Universal Function) को नियंत्रित करने वाले नियम की खोज की ओर ले जाएँगे। 

पाश्चेन ने 400 से 1400 K तक के तापमान  के बीच 1 μm से 8 µm के बीच की wavelength अर्थात निकट से मध्य इंफ़्रारेड स्पेक्ट्रम के ऊर्जा वितरण को मापने और समझने का प्रयास किया। इस प्रक्रिया में पाश्चेन ने वीन के विस्थापन नियम (displacement law) की पुष्टि करते हुए  1896 में ब्लैकबॉडी के ऊर्जा वितरण नियम सम्बंधित अनुभवजन्य (Empirical) सूत्र का प्रस्ताव रखा जो कि वीन के स्वतंत्र रूप से प्रस्तावित सैद्धांतिक नियम (Theoretical Law) के लगभग समान था।

      यद्यपि वीन ने वितरण फलन की स्थापना के मूल में अणुओं के कंपन्न (Vibration) से विकिरण की परिकल्पना थी, किंतु लॉर्ड रेलीग ने इसे “अनुमान” से ज़्यादा अहमियत नहीं दी। लेकिन, कम तापमान पर जो डेटा सामने था  उसके आधार पर पाश्चेन के पास यह मानने का अच्छा कारण था कि वीन के नियम के रूप में एक ब्लैकबॉडी के लिए स्पेक्ट्रल वितरण फलन (spectral distribution function)  की खोज कर ली गयी है।

पाश्चेन के प्रायोगिक डेटा और शोध के अतिरिक्त वीन के विस्थापन के नियम (displacement law) की सैद्धांतिक भौतिकी के आधार पर पुष्टि प्लैंक द्वारा भी जल्द ही किये जाने के आसार पैदा होने लगे थे।

       प्लैंक ने वीन के नियम को पूरी तरह से अलग तरीक़े से स्थापित किया कि कैसे वीन प्रकाश के विद्युत चुम्बकीय सिद्धांत के आधार पर तर्कों का उपयोग करके अपने परिणाम पर पहुंचे। हालांकि, वीन की तरह, प्लैंक ने भी कुछ हद तक मनमानी की थी और इस वजह से वीन की तरह उनको भी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा था।

       इसलिए किरचॉफ द्वारा किसी सार्वत्रिक फ़ंक्शन को ज्ञात करने की आशा जल्दी ही फीकी पड़ गई। जैसा कि अब हम जानते हैं कि पाश्चेन के प्रयोगात्मक डेटा और वीन के प्रस्तावित वितरण फ़ंक्शन सूत्र में सहमति की वजह अपेक्षाकृत कम तापमान पर किए गए प्रयोग थे और इस रेंज में वीन और प्लैंक के फार्मूले के बीच का अंतर एक प्रतिशत से भी कम है, जो उस समय प्राप्त होने वाली प्रायोगिक त्रुटि की सीमा के भीतर है। 

1896 में लम्मेर और प्रिंगशेम ने ब्लैकबॉडी द्वारा इंफ़्रारेड के रीजन में उत्सर्जित तरंग दैर्ध्य के स्पेक्ट्रम का अध्ययन शुरू कर दिया। इस दिशा में उन्होंने एक कैविटी रेडिएटर का उपयोग करते हुए, जिसे गत वर्ष लम्मेर-वीन ने बनाया था, पाश्चेन की तरह उनके प्रयोग 600 K से 1600 K के तापमान सीमा के भीतर 1 µm से 6 µm तक की तरंग दैर्ध्य पर केंद्रित थे।

       उनके अनुसंधान ने तत्काल इच्छित परिणाम दिये और यह स्पष्ट हो गया था कि निश्चित ही बहुत जल्द इस समस्या से सम्बंधित सफल परिणाम सामने आयेंगे। लेकिन, जैसे-जैसे लम्मेर और प्रिंगशेम ने  ब्लैकबॉडी के तापमान की ऊपरी सीमा के ओर अनुसंधान को आगे बढ़ाया, उनके प्रयोगात्मक निष्कर्ष व डेटा और वीन द्वारा अनुमानित वितरण फ़ंक्शन के बीच व्यवस्थित अंतर सामने आने लगा, लेकिन उन्होंने सफ़र जारी रखा।

गणितज्ञ और भौतिक शास्त्री, पॉल रुडोल्फ यूजीन जाह्नके के साथ काम करते हुए, लम्मेर ने अनुभवजन्य रूप से (Emprically) एक वितिरण फलन (distribution function)  का प्रस्ताव रखा जो वीन के प्रस्तावित रूप से थोड़ा अलग था, लेकिन प्राप्त डेटा के साथ ज़्यादा क़रीब था।

      दोनों ही फलनों की सत्यता की जाँच के लिये लम्मेर ने प्रिंगशेम के साथ अनुसंधान और अपने प्रयोगात्मक कार्यक्रम को फिर से शुरू किया था।

इस बार PTR में  उन्होंने 12 μ m से 18 μm तक की इंफ़्रारेड से आगे की तरंग दैर्ध्य पर नवीन प्रयोग करते हुए जो डेटा प्राप्त किए उनसे यह क़तई तौर पर साबित हो गया कि वीन का विस्थापन नियम लंबी तरंग दैर्ध्य और उच्च तापमान सीमा में मान्य नहीं था। इस प्रतिष्ठित संस्थान में रूबेन्स और कुर्लबाउम के नेतृत्व में स्वतंत्र रूप से काम करने वाला एक दूसरा समूह भी था जिनके प्रायोगिक निष्कर्षों का प्लैंक और ब्लैकबॉडी रेडीएशन के लिए उनके नियम की खोज के मार्ग पर सीधा प्रभाव पड़ने वाला था। 

       1898 में रूबेन्स ने अपने सहयोगी एमिल अस्किनास (1873-1909) के साथ किए गए प्रयोगों में एक ठोस क्रिस्टल की सतह से कई प्रतिबिंबों की एक श्रृंखला के रूप में प्राप्त ऊष्मीय विकिरण में 51.2 µm की सीमा तक की अवरक्त किरणें (Far infrared) के उत्पादन में हासिल प्रारंभिक सफलता ने अन्य सम्भावनाओं के प्रति आश्वस्त कर दिया।

       1900 तक रूबेन्स ने अपने सहयोगी कुर्लबौम के साथ काम करते हुए, 24 µm, 31.6 µm और 51.2 µm की लंबी तरंग दैर्ध्य पर 350 K से 1773 K तक के तापमान के लिए ब्लैकबॉडी रेडीएशन के लिए वर्णक्रमीय वितरण (Spectral Distribution) के अध्ययन से लुम्मेर और प्रिंगशेम की तरह, उन्होंने भी यह पाया कि वीन का वितरण नियम बड़ी तरंग दैर्ध्य व उच्च तापमान सीमा में मान्य नहीं था। यह अवलोकन अत्यंत महत्वपूर्ण था जिसने वीन की सीमाओं को निर्धारित कर दिया।

      लेकिन, इस से महत्वपूर्ण यह था कि इसने उस दिशा पर भी सीधा और गहरा प्रभाव डाला जिसे प्लैंक को ब्लैकबॉडी रेडीएशन की सैद्धांतिक समझ के लिये अपनाना था।

रूबेन्स और कुर्लबौम के कार्य की रिपोर्ट सबसे पहले 19 अक्टूबर, 1900 को ड्यूशेन फिजिकलिस्चेन गेसेलशाफ्ट (जर्मन फिजिकल सोसाइटी) के सामने पेश की गई थी। जिसने लम्मेर और प्रिंगशेम के समान  उच्च तापमान सीमा पर लम्बी तरंग दैर्ध्य के लिये वीन के वितरण नियम की विफलता की पहले ही पुष्टि कर दी थी।

      अगर केवल एक टीम के माध्यम से यह सब सामने आता तो रूबेन्स और कुर्लबौम को ब्लैकबॉडी रेडीएशन की समस्या के हल के लिए किरचाफ के काल से खोजे जाने वाले वितरण फलन (distribution function) के लिए और अधिक प्रयोगात्मक साक्ष्य चाहिये होते। 

इस बात के पर्याप्त साक्ष्य हैं कि प्लांक ने रेडीएशन थ्येरी सम्बंधित अपना अध्ययन वीन के विकिरण नियम की व्युत्पत्ति (derivation) से काफी पहले शुरू कर दिया था। हम यह कह सकते हैं दोनों ही स्वतंत्र रूप से समानांतर ब्लैक-बॉडी रेडीएशन की व्याख्या और उसके गणितीय सूत्र की तलाश में कोशां थे।

       7 अक्तूबर 1931 को अपने मित्र रॉबर्ट वुड को लिखे एक पत्र में वह लिखते हैं कि वह 1894 से ही पदार्थ और विकिरण के बीच संतुलन की समस्या से जूझ रहे थे। इस पत्र में वर्णित इस तथ्य की पुष्टि 28 जून 1894 को प्रशिया एकेडमी ऑफ साइंस में उनके इस विषय पर दिये गए उद्घघाटन भाषण से भी होती है। प्लैंक के इस विषय पर अध्ययन का बड़ा हिस्सा प्रशिया एकेडमी ऑफ साइंस में 1897 और 1899 के बीच पांच शोध पत्रों की एक श्रृंखला के रूप में प्रकाशित हुआ था, जिसे भौतिकशास्त्र के इतिहासकार  ‘द पेंटालॉजी’ के रूप में संदर्भित करते हैं।

       प्लैंक ने अपने सिद्धांत में विद्युत चुम्बकीय अनुनादक अर्थात इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेज़ोनेटर (electromagnetic resonator) को केंद्र में रखा।

1862-64 में जेम्स क्लर्क मैक्सवेल (1831 – 1879) ने विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र (इलेक्ट्रो मैग्नेटिक फ़ील्ड) के लिए समीकरण विकसित किए और भविष्य के लिये सुझाव दिये कि किसी भी क्षेत्र (इलेक्ट्रिक या मैग्नेटिक) में परिवर्तन से दूसरे क्षेत्र का निर्माण होता है इस परिवर्तन से एक तरंग (वेव-wave) पैदा होती है जिसमें इलेक्ट्रिक और मैग्नेटिक फ़ील्ड एक दूसरे के लंबवत होते हैं और वेव की दिशा के लंबवत भी होते हैं।

       मैक्सवेल ने यह भी भविष्यवाणी की थी कि ऐसी विद्युत चुम्बकीय तरंगों की चाल प्रकाश की चाल के बहुत करीब होगी।

1880 के दशक के अंत में हेनरिक हर्ट्ज द्वारा पेश किए गए ऑसिलेशन डाईपोल ने लगभग सभी भौतिक शास्त्रियों को आश्चर्यचकित कर दिया, जो मानते थे कि विद्युत चुम्बकीय तरंगें प्रयोगशाला में उत्पन्न नहीं की जा सकतीं। 

      हर्ट्ज़ियन ऑसिलेटर की विशेषताओं ने तुरंत प्लैंक का ध्यान आकर्षित किया, और उन्होंने इसके विश्लेषण के लिए दो महत्वपूर्ण पेपर पेश किए। 

पहले पेपर में प्लैंक ने उन स्थितियों का परीक्षण किया जबकि एक डाइपोल विशेष आवृत्ति के अपने दोलन (oscillate) को केवल ऊर्जा के अवशोषण से स्थिर रखता है।इस मक़ाम पर वह ऊर्जा संरक्षण पर आधारित एक तर्क का उपयोग करते हुए  प्लैंक ने निष्कर्ष निकाला कि ओसिलेटर (oscillator) वास्तव में एक रेज़ॉनेटर (resonator) है जो समान आवृत्ति के क्षेत्र घटकों के साथ अधिकतम स्थिति तक पहुँच जाता है।

       दूसरे पेपर भाग में, प्लैंक ने अपने विश्लेषण के परिणामों का संक्षेप में सर्वेक्षण किया जिसमें वह जोर देकर कहते हैं कि उनका दृष्टिकोण केवल थर्मल संतुलन में है।

      अपनी खोज के पहले चरण में 4 फरवरी 1897 को, प्लैंक ने प्रशिया एकेडमी ऑफ साइंस में रेडीएशन की इर्रिवेरसीबिल (irreversible) प्रक्रियाओं पर एक संक्षिप्त पत्र पढ़ा। 

इस विषय पर प्लैंक के विचारों की चर्चा हम कर चुके हैं कि 1879 में पूरा हुआ प्लैंक का डॉक्टरेट शोध प्रबंध, एन्ट्रापी की अवधारणा पर केंद्रित था और उसके बाद काफ़ी अरसा तक वह  कैनेटिक सिद्धांत के सख़्त आलोचक भी रहे। इसके  दो मुख्य कारण थे- सबसे पहले का आधार सम्बद्ध गणितीय जटिलताएँ थीं दूसरे यह कि इस सिद्धांत में परमाणु परिकल्पना और प्रयिकता (probability) का चोली-दामन का साथ था। जिसकी वजह से थर्मोडायनैमिक्स के दूसरे नियम की सांख्यिकीय व्याख्या ज़रूरी हो जाती है।

       यद्यपि प्लैंक भौतिकी में प्रायिकता के प्रयोग के पूर्ण रूप से  विरोधी  नहीं थे, वह इस तरह के निष्कर्ष से सहमत नहीं थे। उनका एतराज़ यह था कि सांख्यिकीय गणित का उपयोग केवल उस अवस्था में किया जा सकता है कि जब आपके पास कोई सूचना ना हो। इस अवस्था में उचित मेकैनिक्स का उपयोग ही सही दिशा में ले जाता है।

       यह भी तथ्य है कि प्लैंक के विरोध के बावजूद, उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में, काईनेटिक सिद्धांत इर्रिवेरसीबिलिटी की प्रकृति को समझने का एकमात्र व्यवस्थित प्रयास समझा जाता था और प्लैंक की मौलिक परियोजना एक वैकल्पिक दृष्टिकोण को आगे लाना था।

       बोल्ट्जमैन ने प्लैंक के कथित रूढ़िवादी  कार्यक्रम का जवाब देने की ज़रूरत को महसूस करते हुए उनकी अप्रोच की सबसे अधिक और तीखी मुख़ालिफ़त करना ज़रूरी समझा, जिसका एक तर्कसंगत आधार था। 

उनके तर्कों के मूल में परमाणुओं या अणुओं के बीच टक्कर का सिद्धांत था जिसमें एक-दूसरे से टकराने से कण काईनेटिक ऊर्जा का आदान-प्रदान होता है। जिसे मैक्रोस्कोपिक रूप से ऊष्मा के रूप में माना जाता है। अंततः, ऊष्मा माइक्रोलेवल पर कणों की गति का एक रूप है। इस विषय पर भी मैक्स्वेल का महत्वपूर्ण काम नज़र आता है, जिसके अनुसार गतिमान कणों में एक ऊर्जा/वेग का वितरण होता है जिसका औसत स्थिर रहता है। यह वितरण ऊष्मीय संतुलन का एक विशेष गुण होता है। 

      1872 में अपने एक शोध पत्र में बोल्ट्जमैन ने दिखाया कि, उपयुक्त परिस्थितियों में, मैक्सवेल का वितरण वास्तव में एकमात्र संतुलन वितरण है। लेकिन, 1877 में उन्होंने थोड़ी नरमी दिखाते हुए विचार व्यक्त किया कि “संतुलन” तमाम सम्भव अवस्थाओं में सबसे सम्भव स्थिति है।

       लेकिन जब किरचोफ़ के सैद्धांतिक भौतिकी विषयक व्याख्यान प्रकाशित हुए तो बहैसियत एक सम्पादक प्लैंक ने ऊष्मा के सिद्धांत के खंड को कुछ इस तरह सम्पादित किया कि अणुओं के मध्य टक्कर की सम्भावना से सम्बंधित अभिधारणा (Stosszahansatz) का खुला उल्लंघन हो रहा था तो बोल्ट्जमैन आपत्ति करने से ख़ुद को नहीं रोक सके, और प्लैंक की प्रतिक्रिया बोल्ट्जमैन द्वारा उठायी गयी आपत्ति का संतोषजनक उत्तर नहीं दे सकी।

        विवाद संस्था की जर्नल Annalen der Physik के मुख्य सम्पादक तक पहुँचा और बोल्ट्जमैन ने माँग रखी कि उनके पत्रों और लेखों का बिना एडिट किए हुए तत्काल प्रकाशन सुनिश्चित किया जाए। 

कुछ सप्ताह बाद प्लैंक ने अपना दूसरा शोध पत्र पेश किया जिसमें उन्होंने बोल्ट्जमैन की आपत्तियों का उत्तर देने का प्रयास किया था जिसमें उन्होंने अपने ऑसिलेटर के केंद्र पर ऊर्जा की तीव्रता के अनंत होने की धारणा पेश की जो आगे काफ़ी उपयोगी सिद्ध हुई। 18 नवम्बर को बोल्ट्जमैन ने उत्तर में पत्र लिखे लेकिन जिसमें उन्होंने प्लैंक से मज़बूत विश्लेषण की माँग की जिसने प्लैंक को अपनी पूरी थ्योरी पर “नज़र ए सानी” कारने को मजबूर कर दिया।

      1898 में प्लैंक ने तीसरा पेपर पेश किया लेकिन बोल्ट्जमैन ने एक बार फिर ऐसे मज़बूत एतराज़ उठाए कि प्लैंक को अपनी दिशा बदलने के लिये मजबूर होना पड़ा।

       Boltzmann के शदीद विरोध की वजह से प्लैंक ने अपनी पूरी थ्योरी पर दुबारा से काम करना शुरू किया। 14 जुलाई 1898 ने अपना  चौथा शोध पत्र पेश किया जो पूर्व के पत्रों  की तुलना में बहुत लंबा था लेकिन निरन्तरता बरक़रार रखने के लिये इस पत्र के सेक्शन और गणितीय समीकरणों की संख्या को तीसरे पत्र से आगे जारी रखी गयी।

 प्लैंक ने दो कान्सेप्ट्स पर काम शुरू किया: रेडीएशन की तीव्रता और रेज़ॉनेटर की औसत ऊर्जा, जबकि पहले प्लैंक ने हर्ट्ज़ वेक्टर का उपयोग करके विद्युत चुम्बकीय प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया था। अब वह माइक्रस्कापिक पोटेंशियल के स्थान पर रेडीएशन की तीव्रता की बात करते हैं। 

      उनके अनुसार इस तीव्रता और रेज़ॉनेटर ऊर्जा के बीच, एक विद्युत चुम्बकीय संपर्क होता है, जिसे पिछले पेपर में पोटेंशियल और डाइपोल मोमेंट के संदर्भ में वर्णित किया गया था। इस प्रकार प्लैंक ने रास्ता बदल दिया और इस का अध्ययन किया  कि रेडीएशन की तीव्रता का रेज़ोनेटर ऊर्जा द्वारा कैसे निर्धारण होता है।

       इस पेपर का अंतिम भाग वीन के सूत्रीकरण की तरह रेडीएशन की थर्मोडायनैमिक्स पर कलाम करता है। रेडीएशन दो हिस्सों में दो विभिन्न सीधी रेखाओं में गति करता है जिनकी ध्रुवीय (polarisation) अवस्थाएँ अलग-अलग हैं। इस आधार पर रेडीएशन की तीव्रता को दो मुख्य भागों में परस्पर लंब ध्रुवीय अक्षों में विभक्त किया जा सकता है।इसके साथ प्लैंक ने ऊर्जा संरक्षण की गणना को ध्यान में रखा।

अपने पाँचवें पेपर में इर्रेवेरसिबिलिटी के पक्ष में रखे गए तर्कों को व्यवस्थित किया। इस पेपर में प्लैंक ने एंट्रपी (Entropy) की अभिधारणा को स्वीकार किया और इस आधार पर एम्पिरिकल तरीक़े से एक गणितीय सूत्र का ख़ाका पेश किया गया। इस फ़ोरमूले में कुछ सार्वत्रिक स्थिरांक (universal constants) की सम्भावनाओं का मत प्रस्तुत किया ताकि विमीय संतुलन (Dimensional balance) बनाया जा सके। सबसे रोचक बात यह है कि प्लैंक रेडीएशन एंट्रपी को प्रभाषित नहीं कर सके लेकिन इसके महत्व के क़ायल ज़रूर हो गए।

        इसके बाद प्रायोगिक डेटा के आधार पर वीन के वितरण नियम की सत्यता के परखे जाने का एक दौर शुरू होता है। फरवरी 1899 की शुरुआत में लम्मेर और प्रिंगशेम  ने जर्मन फ़िज़िकल सोसाइटी को लंबी तरंग दैर्ध्य पर वीन के नियम से मामूली विचलन के बारे में बताया। उसी वर्ष गर्मियों के अंत में, रूबेन्स भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचे, लेकिन उनका मानना ​​​​था कि प्रयोग में मान्य त्रुतियों के कारण थ्योरी और प्रायोगिक निष्कर्षों में अंतर सम्भव था। 

19 सितंबर 1899 को प्लैंक ने म्यूनिख में जर्मन वैज्ञानिकों की बैठक में अपना पेपर  प्रस्तुत किया। इसके बाद उन्हें बोल्ट्जमैन से कुछ मौखिक टिप्पणियां मिलीं जिसे शामिल करते हुए वह Annalen der Physik के लिए अपना पेपर भेज रहे थे कि लम्मेर और प्रिंगशेम के प्रयोगों के नए परिणाम आ गए जिनके अनुसार  उच्च ताप ( 1646 K) पर डेटा और वीन के नियम में विचलन अभी भी बरक़रार थे।

       प्लैंक ने बिना परेशान हुए प्रायोगिक समस्याओं के दृष्टिगत पेपर के फ़ुटनोट में इनका ज़िक्र कर किया लेकिन कोई भौतिक शास्त्री प्लैंक के मत से सहमत नहीं हुआ।

       2 फरवरी 1900 को जर्मन फ़िज़िकल  सोसाइटी की एक महत्वपूर्ण बैठक में एक अन्य वैज्ञानिक, मैक्स थिसेन ने प्रायोगिक नतीजों के आधार पर एक गणितीय सूत्र दिया जिसमें संभावित वितरण फलनों (फ़ंक्शन्स) शामिल थे। लेकिन, थिसेन सूत्र को सिद्ध करने और किसी सैद्धांतिक डेरिवेशन को पेश करने में असमर्थ रहे।

       उसी बैठक में, लम्मेर और प्रिंगशेम ने नवीनतम प्रयोगों पर आधारित एक रिपोर्ट पेश की जिसमें 12 माइक्रॉन और 18 माइक्रॉन के बीच और 85 K और 1800 K के बीच के तापमान अंतराल में एक ब्लैक-बॉडी के व्यवहार का परीक्षण किया गया था। 

उनके निष्कर्ष के आधार पर यह तय पाया कि वींन -प्लैंक के स्पेक्ट्रल समीकरण ब्लैक-बॉडी रेडीएशन की सटीक व्याख्या देने में पूरी तरह असमर्थ हैं। लेकिन प्लैंक के लिए अभी भी ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं थी क्योंकि वह समझ रहे थे कि इस अपरिपूर्णता के लिए केवल फ़ोर्मुले में एक मामूली समायोजन की आवश्यकता है.

        दरअस्ल प्लैंक अपने शोध पत्रों में वर्णित सैद्धांतिक दोषों के बारे में अधिक चिंतित थे। वीन द्वारा पेश किए गाए नियम को, एंट्रॉपी की अभिधारणा के सरलतम रूप के आधार पर सही ठहराने के प्लैंक के प्रयास की लम्मेर और प्रिंगशेम  द्वारा अपने नवंबर 1899 के पेपर, में आलोचना की जा चुकी थी। 

       उन्होंने वीन के नियम के पक्ष में एन्ट्रापी सूत्र के अनुकूल होने सम्बंधित गणितीय आधार पर प्रमाण माँगा जो प्लैंक प्रदान नहीं कर सकते थे। इसके बजाय प्लैंक ने एक अलग मार्ग का अनुसरण करते हुए एक पेपर प्रस्तुत किया। यह पेपर  Annalen der Physik के मार्च अंक में छपा था जिसे बाद में “मार्च पेपर” के नाम से जाना जाता है।

       प्लैंक का मुख्य विचार रेडीएशन फ़ील्ड को थर्मोडायनामिक प्रणाली के रूप में प्रस्तुत करते हुए​​​​ एन्ट्रॉपी के लिए एक गणितीय सूत्र प्राप्त करने के लिए विशेष धारणाओं को जोड़ना था, लेकिन, यह आसान नहीं था।

अगस्त 1900 में पेरिस में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय भौतिकी सम्मेलन में वीन ने रेडीएशन थ्योरी पर पेपर प्रस्तुत किया, जिसमें बहुत गहराई के साथ विश्लेषण प्रस्तुत किया था। पेपर पढ़ने के बाद वीन ने प्लैंक के मार्च पेपर के तर्कों की आलोचना शुरू कर दी। प्लैंक के पास वीन की आपत्तियों पर प्रतिक्रिया देने का समय नहीं था, और उन्होंने सूत्र के डेरिवेशन की समीक्षा करना जारी रखा।

       इसके साथ यह भी हुआ कि सितंबर 1900 के अंत में हेनरिक रूबेन्स और फ्रेडरिक कुर्लबौम ने 200 डिग्री सेल्सियस से 1500 डिग्री सेल्सियस के तापमान पर 0.3 मिमी से 0.06 मिमी की तरंग दैर्ध्य के बीच वीन के नियम का परीक्षण किया। इन लंबी तरंग दैर्ध्य में, उन्होंने पाया कि सिद्धांत और प्रायोगिक डेटा के बीच का अंतर इतना अधिक था कि यह केवल एक चीज का प्रमाण हो सकता था-“डीप इंफ्रारेड रेंज” में वीन के नियम की विफलता। 

       जर्मन फ़िज़िकल  सोसाइटी की अगली बैठक शुक्रवार, 5 अक्टूबर 1900 को थी, जिसमें वे अपने पेपर में परिणाम की घोषणा करना चाहते थे। लेकिन, वे पेपर तैयार नहीं कर सके तो उन्होंने दो सप्ताह बाद होने वाली अगली बैठक तक प्रतीक्षा करने का निर्णय लिया।

      रूबेन्स और प्लैंक में गहरी दोस्ती थी, वह अच्छी तरह जानते थे कि प्लैंक परिणाम सुनने के लिए उत्सुक होंगे।

रविवार, 7 अक्तूबर को प्लैंक ने पश्चिम बर्लिन के ग्रुनेवाल्ड के समृद्ध उपनगर में स्थित अपने शानदार विला में रूबेन्स और उनकी पत्नी को दोपहर के भोजन के लिए आमंत्रित किया। दोनों दोस्तों के बीच होने वाली चर्चा जल्द ही भौतिकी और ब्लैकबॉडी की समस्या में बदल गई।

       रूबेन्स ने प्लैंक से यह तथ्य साझा किया कि उनके नवीनतम डेटा के आधार यह साबित हो चुका है कि लंबी तरंग दैर्ध्य और उच्च तापमान पर वीन का नियम विफल रहा है। उन्होंने खुलासा किया उनके प्रयोगों में यह पाया गया कि गुणनफल λT का मान जैसे ही एक निश्चित मान तक पहुँचता है वीन के नियम का पालन ख़त्म हो जाता है, और तीव्रता तापमान के समानुपाती हो जाती है, जिसका अर्थ है कि रेडीएशन वितरण नियम बिल्कुल भिन्न होना चाहिए।

       दोस्त के जाने के बाद प्लैंक ने ब्लैक-बॉडी रेडीएशन सम्बंधित सूत्र की स्थापना पर गणितीय काम शुरू कर दिया। रूबेन्स से चर्चा के दौरान तीन बिंदु उभरे थे- पहला यह कि वीन का नियम छोटी वेवलेंथ से पैदा इंटेन्सिटी के लिये सही है, दूसरे यह कि यह इंफ़्रारेड क्षेत्र में विफल है और तीसरे यह वीन का विस्थापन नियम सही है.

        प्लैंक ने अपने अनुभव और अनुमान के सहारे एक गणितीय सूत्र तैयार कर लिया। इस सूत्र में दो मूलभूत स्थिरांक की आवश्यकता थी, एक तापमान से संबंधित और दूसरा विकिरण आवृत्ति से संबंधित। पहला Boltzmann constant के नाम से और दूसरा प्लैंक स्थिरांक (Planck Constant- h) के नाम से जाना जाता है।

       ऐसा नहीं है कि यह सूत्र तमाम आपत्तियों का संतोषजनक उत्तर फ़राहम करता था, फिर भी प्लैंक ने एक नोट तैय्यार किया और आधी रात में स्वयं पोस्ट आफ़िस से रुबेन्स को पोस्ट किया। दो दिन बाद रुबेन्स उनके घर पर मौजूद थे, इस ख़ुशख़बरी के साथ कि प्लैंक का सूत्र उनके डेटा से तक़रीबन पूरी तरह मसावी (matching) है।

19 अक्तूबर 1900 को जर्मन फ़िज़िकल सोसाइटी की बैठक में ब्लैकबॉडी रेडीएशन सम्बंधित प्लैंक द्वारा गणितीय सूत्र की औपचारिक घोषणा पूरे घटनाक्रम का पहला चरण था। जिसके बाद प्लैंक के सामने एक मुश्किल लक्ष्य था। रूबेन्स के व्यक्तिगत सम्पर्कों के बाद, प्लैंक ने महसूस किया कि उनके मार्च पेपर का अधिकांश हिस्सा क़ाबिल ए क़ुबूल नहीं है। जिसके लिये अक्टूबर और दिसंबर के बीच, प्लैंक ने दूसरा रास्ता तलाशना शुरू किया।

       प्लैंक ने  सबसे पहले अपने प्रस्तावित वितरण नियम (Distribution Lawe) को थर्मोडायनामिक आधार देने के लिए अपने पूर्व के तर्कों को संशोधित करने का प्रयास किया।

       इस दूसरे चरण में, प्लैंक ने बोल्ट्जमैन के 1877 सिद्धांत के समानांतर एन्ट्रापी परिभाषा के औपचारिक गुणों पर काम करना शुरू करते हुए “मार्च पेपर” के कुछ तर्कों का भी इस्तेमाल किया। इसके अर्थ का स्पष्ट विचार होने से पहले प्लैंक ने गणित सम्बंधित कॉम्बीनेटरियल फ़ोर्मुले (combinatorial formula) को स्थापित किया जो उन्हें तीसरे चरण में ले आया जहां उन्होंने इसके इस्तेमाल से ऑसिलेटर्स की एक प्रणाली के सबसे प्रभावी अनुकूलन का पता लगाने की कोशिश की।

       इसके बाद रूबेन्स द्वारा प्रदान किए गए प्रयोगात्मक डेटा पर काम करते हुए, और बाद में पासचेन द्वारा पुष्टि की गई, प्लैंक ने विद्युतचुंबकीय क्षेत्र और ब्लैक बॉडी कैविटी के भीतर कंपनकारी (vibrating) ‘ऑसिलेटर्स’ के बीच किसी सम्बंध के संदर्भ में काम शुरू कर दिया था।

       ‘ऑसिलेटर्स’, जिन्हें प्लैंक ने मूल पेपर्स में रेज़ोनेटर के तौर पर परिचित कराया था, वर्तमान में इन्हें कैविटी  की सामग्री (cavity material) में मौजूद ऐटमों के अति-उत्तेजित इलेक्ट्रॉन के रूप में जाना जाता है। इन ऑसिलेटर्स का प्राथमिक उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि अब्ज़ॉर्प्शन (अवशोषण) और इमिशन (उत्सर्जन) की एक सतत, गतिशील प्रक्रिया के माध्यम से संभावित रेडीएशन की फ़्रीक्वन्सीयों (आवृत्तियों) के बीच ऊर्जा का उचित संतुलन बना रहे।

 इस कठिन उद्देश्य के लिये प्लैंक ने भले ही कई अलग-अलग विधियों से समझने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने पाया कि वह हमेशा अपने प्रतिद्वंद्वी बोल्ट्जमैन के सांख्यिकीय (statistical) तरीकों के बिना किसी फ़ॉर्म्युले को हासिल नहीं कर सकेंगे, गणनाओं का तरीक़ा उन्हें उसे उस दिशा में ले जा रहा था जिस दिशा में वह नहीं जाना चाहते थे। 

       एक गैस की एन्ट्रापी की गणना के लिए बोल्ट्जमैन ने यह परिकल्पना दी थी कि इसकी कुल उपलब्ध ऊर्जा को ‘बकेट्स’ (buckets) की एक श्रृंखला में व्यवस्थित किया जा सकता है।

        सबसे कम ऊर्जा वाले बकेट की ऊर्जा ε, अगली ऊर्जा  2ε, इसकी अगली ऊर्जा 3ε और आगे इसी प्रकार निर्धारित की गई थी। इस प्रक्रिया में ऊर्जा स्वयं निरंतर परिवर्तनशील रहती है। इसके बाद बोल्ट्जमैन ने इन्हें इस तरह बक्सों में रखने की सलाह दी ताकि प्रत्येक ऊर्जा सीमा में मोलीक्युलस की संख्या की गणना कर के उनके विभिन्न संभावित पर्म्यूटेशनों की गणना की जा सके।

        बोल्ट्जमैन का तर्क था  कि अधिकतम एन्ट्रापी हेतु गैस की सबसे संभावित अवस्था वह होगी जिसमें उपलब्ध ऊर्जा के लिए संभावित पर्म्यूटेशनों की संख्या सबसे अधिक होगी। गैस ऊर्जा के सबसे संभावित वितरण के साथ संभावित पर्म्यूटेशनों की अधिकतम संख्या की तुलना करके एन्ट्रापी की गणना आसानी से की जा सकती थी।

ये तमाम परिकल्पनाएँ प्लैंक और बोल्ट्जमैन के बीच गतिरोध का कारण बनी हुईं थीं, लेकिन, अब प्लैंक के लिए यह स्वीकार करना ज़रूरी था कि वह एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे थे। उन्होंने “होनी” के आगे सर ख़म कर दिया- ऊर्जा के वितरण में स्टेटिसटीकल तरीक़ों और प्रॉबबिलिटी का समावेश अब उनकी थ्योरी में अपरिहार्य था।

      यद्यपि ब्लैक-बॉडी कैविटी रेडीएशन की समस्या इस सवाल से पूरी तरह से असंबंधित प्रतीत होती है कि गैस परमाणुओं या अणुओं से बनी है या नहीं, लेकिन अब प्लैंक ने परमाणुवादियों (अटोमिसट) के सांख्यिकीय तरीक़े को अपना लिया।

प्लैंक का स्टेटिसटीकल तरीक़ा थोड़ा भिन्न था। बोल्ट्जमैन ने distinguishable molecules के अनेक सम्भावित बकेट्स के पर्म्यूटेशनों को नज़र में रखा था जबकि प्लैंक  ने विभिन्न ऑसिलेटरों को indistinguishable समझते हुए क़दम बढ़ाए।

        प्लैंक ने पाया कि वह ब्लैकबॉडी रेडीएशन के डिस्ट्रिब्यूशन के लिए अपने सूत्र को तभी प्राप्त कर सकते हैं कि जब ऑसिलेटर ऊर्जा के पैकेटों को अवशोषित और उत्सर्जित करते हैं जो उनके ऑसिलेशन  की फ़्रीक्वन्सी के समानुपाती होते हैं। 

प्लैंक ने जिन अभिधारणाओं का उपयोग करके सूत्र प्राप्त किया उन्हें संक्षेप में दो बिंदुओं के आधार पर बयान किया जा सकता है-

1. एक ब्लैक बॉडी रेडिएशन चैंबर/कैविटी न केवल रेडीएशन से बल्कि मोलीक्यूलर आकार के साधारण हार्मोनिक ऑसिलेटर्स या रेज़ोनेटर से भी भरा होता है।

    इसमें से निकलने वाली ऊर्जा फ़्रीक्वन्सी पर निम्न सूत्र के अनुसार पर निर्भर करती है :

E= nhγ 

जहां γ ऑसिलेटर की आवृत्ति है, 

h प्लैंक स्थिरांक है और 

n एक संख्या है जो कोई भी अभिन्न मान ले सकती है, 

2- γ फ़्रीक्वन्सी का ऑसिलेटर केवल hγ के गुणांक की मात्रा में ऊर्जा को रेडीएट या अब्ज़ॉर्ब कर सकता है।

यह कान्सेप्ट्स अपने चरित्र में सबसे क्रांतिकारी थे, जो सरल शब्दों में बताते हैं कि रेडीएशन और पदार्थ के बीच ऊर्जा का आदान-प्रदान लगातार नहीं हो सकता बल्कि केवल छोटी इकाइयों के गुणकों में शून्य, hγ, 2 hγ, ,,, nhγ के मानों के गुणांक में सम्भव है जिन्हें प्लैंक ने क्वाँटा का नाम दिया।

       इस प्रकार प्लैंक, जो अब तक अटॉमिक दृष्टिकोण के आलोचक थे पूर्ण रूप से इसके समर्थक बन गए थे। 

शुक्रवार, 14 दिसंबर 1900 को शाम 5 बजे बर्लिन विश्वविद्यालय के भौतिकी संस्थान के कमरे में बैठे जर्मन फ़िज़िकल सोसाइटी के सदस्यों, जिनमें, रूबेन्स, ल्यूमर और प्रिंगहैम मौजूद थे, के सामने प्लैंक ने अपना पेपर “Zur Theorie des Gesetzes der Energieverteilung im Normalspektrum’, – सामान्य स्पेक्ट्रम के ऊर्जा वितरण कानून के सिद्धांत पर, पढ़ना शुरू किया।

         ‘सज्जनों!, कई हफ़्ते पहले मुझे एक नए समीकरण की ओर आपका ध्यान आकर्षित करने का सम्मान मिला था जो मुझे सामान्य स्पेक्ट्रम के सभी क्षेत्रों में रेडीएशन ऊर्जा के वितरण के नियम को व्यक्त करने के लिए उपयुक्त लग रहा था।’ इसके बाद अपने बेसिक कॉन्सेप्ट के आधार पर गणितीय सूत्र पेश किया।

      E= nhγ के विषय पर उन्होंने कहा, ‘इसलिए हम मानते हैं- और यह पूरी गणना का सबसे आवश्यक बिंदु है-ऊर्जा समान फिनाइट पैकेजों की एक निश्चित संख्या से बनी है।’ 

14 दिसंबर 1900 को व्यापक रूप से उस तारीख़ को माना जाता है जिस दिन क्वांटम क्रांति शुरू हुई थी। लेकिन, वास्तव में, प्लैंक ने अभी तक यह नहीं पहचाना कि उसका समीकरण E= nhγ,  भौतिकी की संरचना की एक मौलिक खोज का प्रतिनिधित्व करता है।

     1918 में मैक्स प्लैंक की उनके योगदान ke लिए फ़िज़िक्स में नोबल इनाम से नवाज़ा गया था।

यहाँ पर प्लैंक के पुत्र इर्विन का ज़िक्र ज़रूरी है। जिनका शुमार नाज़ी विचारधारा के विरुद्ध एक मुखर आवाज़ के रूप में किया जाता है। जुलाई केस में उन्हें भी एक अपराधी मान कर 23 जनवरी 1945 को मौत की सज़ा सुना कर गोली मार कर हत्या कर दी गयी थी।

       इर्विन बताते हैं कि जब वह सात साल के थे तो एक सुबह वह अपने पिता के साथ ग्रुनेवाल्ड फ़ॉरेस्ट की ओर जा रहे थे।उनके पिता ने कहा: ‘आज मैंने न्यूटन की तरह महत्वपूर्ण खोज की है।’

      जब उन्होंने वर्षों बाद कहानी सुनाई, तो इरविन को ठीक से याद नहीं था कि सैर कब हुई थी। शायद दिसंबर के व्याख्यान से कुछ समय पहले की बात है।

इस बात का ज़िक्र भी ज़रूरी है कि भारतीय भौतिक विज्ञानी सत्येंद्र बोस ने दिखाया था कि ब्लैकबॉडी रेडीएशन के लिये गणितीय सूत्र विद्युत चुम्बकीय तरंगों के विचार का उपयोग किए बिना प्रकाश को एक गैस के रूप में मान कर प्राप्त किया जा सकता है। 

       प्लैंक ने बाद में बोल्ट्जमैन के प्रति कृतघ्न होते हुए अपने फ़ोर्मुले में उनके नाम पर दूसरा कॉन्स्टैंट k-बोल्ट्जमैन कॉन्स्टैंट शामिल किया जिसे उन्होंने अपने शोध में ब्लैकबॉडी फॉर्मूला तक पहुँचाया था।

      प्लैंक ने 1905 और 1906 में नोबेल पुरस्कार के लिए बोल्ट्जमैन को नामित भी किया लेकिन शायद तब तक बहुत देर हो चुकी थी। बोल्ट्जमैन लंबे समय से खराब स्वास्थ्य – अस्थमा, माइग्रेन, नज़र के दोष और एनजाइना से त्रस्त थे। लेकिन इनमें से कोई बीमारी ऐसी नहीं थी कि वह अवसाद में चले जाएँ।

     सितंबर 1906 में, ट्राइस्टे के पास डुइनो में छुट्टी के दौरान, उन्होंने खुद को फांसी लगा ली, वह 62 वर्ष के थे।

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