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‘विलाप की दीवार’ की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि*

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(अरबियों – यहूदियों के बीच सुरमण्डल की तलाश)

      ~ पुष्पा गुप्ता 

    फिलस्तीन एक छोटा-सा देश है। यह यहूदियों, ईसाइयों और मुसलमानों की पवित्र भूमि मानी जाती है। इसके ज़्यादातर निवासी अरब, मुसलमान रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटें तो बीते जमाने में फिलस्तीन यहूदियों का छोटा-सा कबीला था।

    बाइबिल के पुराने अहदनामे (तौरात) में इनकी कहानी कही गयी है। यहूदियों को बार-बार जीता गया और उन्हें ग़ुलाम भी बनाया गया। बाइबिल में यहूदियों के विलाप-गीत मिलते हैं। 

येरूशलम को अपने मन में बसाये यहूदी लोग पूरी दुनिया में बिखर गये। वे जहां भी गये उन्हें अजनबी माना गया। इन्हें अलग मुहल्लों (गैटो) में बसाया गया। यहूदी कौम में बड़े वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ, लेखक और सफल व्यापारी हुए हैं।

     कई बड़े साम्यवादी भी यहूदी रहे हैं। उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षों में वे फिर फिलस्तीन में बसने चले आये। यहां उनके पहले से अरब, मुसलमान और ईसाई रहते ही थे। फिलस्तीन में यहूदियों के बसते जाने से यहां रहने वाली कौमों से उनकी व्यापारिक प्रतियोगिता भी होने लगी। 

      यह आर्थिक प्रतियोगिता ही अरबों और यहूदियों के बीच संघर्ष का मुख्य कारण बनी। यहूदियों की बढ़ती हुई दौलत ने उनके और अरबों के बीच कड़वाहट भी पैदा की।

      यहूदियों ने फिलस्तीन में ब्रिटिश उपनिवेश के दिनों में अरबों की आज़ादी का विरोध भी किया था। पर सबसे बड़ी उलझन उस दीवार को लेकर थी जो ‘विलाप की दीवार’ कहलाती है। बीते समय में यह दीवार हिरोद मंदिर के परकोटे का हिस्सा थी। यहूदियों के लिए यह पवित्र जगह रही है।

    बाद में इस जगह पर अल अक्सा मस्जिद भी बन गयी और यह दीवार मस्जिद में ओझल-सी हो गयी।

बाइबिल के पुराने अहदनामे का एक अंश नौहा कहलाता है। यहूदी लोग इसे पढ़कर इसी ‘विलाप की दीवार’ के पास प्रार्थना करते हैं। येरुशलम को आवाज़ देते हैं। मुसलमानों को इस पर एतराज़ होता रहा है।

      बीते जमाने में फिलस्तीन में ब्रिटिश उपनिवेश के रहते अंग्रेज ही यहूदियों को अरबों के ख़िलाफ़ भड़काते रहते थे। फिलस्तीन की आज़ादी के लिए अरबों की पहल को यहूदियों ने ठुकराया भी है। यहूदियों का यह बर्ताव अरबों और ईसाइयों को पसंद नहीं आया।

     इतिहास की किताबों में फिलस्तीन में अरब राष्ट्रीयता, यहूदियों का जाइयनवाद ( यहूदी येरुशलम को जाइयन कहते हैं और उसे स्वर्ग मानते हैं) और ब्रिटिश साम्राज्य के बीच टकराहटों का उल्लेख मिलता है जो बाद में और बढ़ती गयीं।

यह एतिहासिक तथ्य है कि जर्मनी में नात्सियों ने यहूदियों को बड़ी संख्या में मध्य-यूरोप से खदेड़ दिया था। यही कारण है कि वे फिलस्तीन में बसते चले गये। फिलस्तीन में यहूदियों के बढ़ते प्रभाव से यहां रहने वाले अरबों को अपनी चिन्ता भी होने लगी कि कहीं हम पर यहूदियों की हुकूमत न आ जाये।

     दोनों के बीच लड़ाई ठनती रही और इन्हीं दोनों के बीच से कुछ लोग अपने गुट बनाकर उग्र आक्रोश और आतंक के पक्षधर भी बन गये। वे एक-दूसरे से बदले भी लेने लगे।

     यह हालत देखकर ब्रिटिश सरकार ने इन मामलों की जांच करके यह सुझाव दिया कि फिलस्तीन को तीन क्षेत्रों में बांटकर सबसे बड़ा हिस्सा अरबों को और समुद्र के करीब का छोटा हिस्सा यहूदियों को दे दिया जाये। येरुशलम सहित तीसरा क्षेत्र अंग्रेजों के हाथ में रहे।

     बटवारे के इस प्रस्ताव पर अरबों और यहूदियों ने एतराज किया पर बाद में यहूदी इस पर अमल करने को तैयार हो गये, अरब नहीं हुए। फिर ब्रिटिश उपनिवेश के ख़िलाफ़ एक राष्ट्रीय आंदोलन की तेज हवा बही और अंग्रेजों के ज़ुल्म सहते हुए भी फिलस्तीन के बड़े क्षेत्र पर अरब राष्ट्रवादियों का कब्जा भी हो गया।

 अरबों पर अंग्रेजों के बेइंतहा अत्याचार के ख़िलाफ़ दुनिया के मुसलमानों और ग़ैर मुसलमानों ने आवाज़ भी उठायी।

     जवाहरलाल नेहरू अपनी किताब ‘विश्व इतिहास की झलक’ में दुख प्रकट करते हुए कहते हैं कि — 

‘अरब और यहूदी दो सतायी हुई कौमें आपस में एक-दूसरे से टकरा रही हैं। इसलिए इनके साथ हरेक की सहानुभूति होना लाज़मी है।

       फिलस्तीन की तरफ़ यहूदियों के खिंचाव की वजह हरेक समझ सकता है। (— वहां उनके ‘विलाप की दीवार’ है) पर हमें यह न भूलना चाहिए कि लाज़िमी तौर पर फिलस्तीन एक अरबी देश है।

     दोनों कौमों की भलाई इसी में है कि एक-दूसरे के वाजिब हितों को बेजा तौर पर छीने बिना आपसी सहयोग के साथ रहें। फिलस्तीन का भविष्य अरब-यहूदी सहयोग की पक्की नींव पर ही बनाया जा सकता है।’

    विश्व का जीवन हमारी हथेलियों पर खिंची रेखाओं की तरह सदियों से आपस में उलझा हुआ है। उसकी उलझनों को पूरी तरह कोई कहां सुलझा सका है।

अपने हितों को सबसे आगे रखकर जो महाशक्तियां हस्तक्षेप करती रहती हैं वे तो पांच अंगुलियों से ज़्यादा नहीं हैं। कुछ देशों में अब तक किये गये उनके हस्तक्षेप उनकी विफलताओं का ही प्रमाण दे रहे हैं।

     अकेली पांच अंगुलियां कभी कोई पकड़ नहीं बना सकतीं जब तक उन्हें हथेलियों का सहारा न हो। अक्सर एक-दूसरे से हाथ मिलाकर अपने-अपने देश लौट जाते नेताओं को हम देखते ही रहते हैं और मन ही मन सोचते रह जाते हैं कि इनके मन आपस में क्यों नहीं मिल पाते? राजनीतिक और मानवीय मन के बीच दूरी क्यों बनी रहती है?

   हम भारत के लोग अपील करें कि सेनाएं और उग्रवादी पीछे हटें क्योंकि असहाय बूढ़े, बच्चे और स्त्रियां बमों और क्रूरता का शिकार हो रहे हैं, भूख, प्यास से मर रहे हैं। घायल इलाज के बिना तड़प रहे हैं। अस्पतालों पर बम गिर रहे हैं। विस्थापित लोग राहत खोजते भटक रहे हैं।

     जिन स्त्रियों और बच्चों को उग्रवादियों ने बंधक बनाकर अपनी ढाल बना लिया है वे उनकी क़ैद में घुट रहे हैं। सब रास्ते अवरुद्ध हैं। —-  हम प्रार्थना करें कि ‘विलाप की दीवार’ के इस पार और उस पार से अमन का राग गूंजने लगे। राजनीतिक रूप से संकुचित होती जाती  दुनिया में एक बड़ी इन्सानी बिरादरी ही जीवन को बचा सकती है। हमारी नीति गुटनिरपेक्ष सह-अस्तित्व की है।

   (संदर्भ: जवाहरलाल नेहरू की कृत ‘विश्व इतिहास की झलक’)

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