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‘मुस्लिम समाज के भीतर के सच की ऐतिहासिक पड़ताल करना जरूरी ’-प्रो. हिलाल अहमद 

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[गत 3 मई, 2023 को महाराष्ट्र के पुणे में सत्यशोधक हमीद दलवाई व दिनकरराव जवलकर स्मृति व्याख्यान का आयोजन किया गया। सत्यशोधक मंडल, महाराष्ट्र और मुस्लिम सत्यशोधक विचार के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित इस व्याख्यान के मुख्य वक्ता सीएसडीएस के प्रो. हिलाल अहमद रहे। व्याख्यान का मुख्य विषय था– “मुस्लिम सत्यशोधक विचार और आज के भारत में इसकी प्रासंगिकता”। इस मौके पर मुस्लिम सत्यशोधक मंडल के अध्यक्ष डॉ. शमसुद्दीन तांबोळी और वरिष्ठ सत्यशोधक कार्यकर्ता डॉ. बाबा आढाव आदि मौजूद रहे।

बताते चलें कि हामिद उमर दलवई (29 सितंबर, 1932 – 3 मई, 1977) एक भारतीय पत्रकार, समाज सुधारक, विचारक, कार्यकर्ता, लेखक और मुस्लिम सत्यशोधक मंडल के संस्थापक थे। उन्होंने भारतीय मुस्लिम समुदाय के भीतर कई आधुनिकतावादी और उदार सुधारों  का प्रयास किया।  उन्होंने कई किताबें भी लिखी हैं, जिनमें ‘मुस्लिम पॉलिटिक्स इन सेक्युलर इंडिया’ (1968) भी शामिल है। वहीं दिनकरराव जवलकर (1898-1932) बांबे प्रेसीडेंसी में गैर-ब्राह्मण आंदोलन के नेता व सामाजिक कार्यकर्ता रहे। केशवराव जेढ़े के साथ मिलकर जवलकर ने अपनी किताब ‘देशाचे दुश्मन’ (देश के दुश्मन) में बाल गंगाधर तिलक व विष्णुशास्त्री चिपलूणकर की नीतियों की आलोचना की। जवलकर की पहचान जोतीराव फुले द्वारा स्थापित सत्यशोधक समाज के प्रमुख कार्यकर्ता के रूप में स्थापित है। प्रस्तुत है हिलाल अहमद के संबोधन का संपादित अंश]

हम जिस समाज से आते हैं, वह बोलने वालों का समाज है सुनने वालों का नहीं। मैं कोशिश करूंगा कि कम बोलूं ताकि हम आपस में संवाद कर पाएं। वैसे भी संवाद की यह पद्धति महात्मा फुले की भी है और हामीद दलवाई की भी है। महात्मा फुले की मशहूर किताब ‘गुलामगिरी’ संवाद की शक्ल में लिखी गई है। हम सभी यह भी जानते हैं कि हामीद दलवाई के लेखन में बुनियादी बात संवाद की है। 

आज हम यहां समाजवादी चिंतक और लेखक हामिद दलवाई और महाराष्ट्र में गैर-ब्राह्मणवाद आंदोलन के प्रणेता दिनकरराव जवलकर को याद करने के लिए उपस्थित हुए हैं। हम इन नेताओं को महान मानते है और उनका अनुसरण करना चाहते हैं। लेकिन सवाल यह है कि इन महान विचारकों का अनुसरण कैसे करें? अनुसरण और भक्ति के बीच एक बारीक़-सी रेखा होती है। इस फर्क को हमें हमेशा याद रखना होगा और उन तरीकों को खोजना होगा जिनके ज़रिए हम इन विचारों को अपने आज के संदर्भ में प्रासंगिक बना सकें। 

और अंतिम बात यह कि आज के हमारे क्या सवाल हैं? उन सवालों पर थोड़ी-सी चर्चा होगी। मैं मुस्लिम राजनीति और भारतीय लोकतंत्र का शोधार्थी हूं। लेकिन ज्यादा बातें मैं भारतीय लोकतंत्र पर रखूंगा। मुस्लिम राजनीति पर आप चाहेंगे तो कुछ बातें हम बाद में कर लेंगे। ऐसा करने के पीछे एक कारण है। अपनी किताब ‘मुस्लिम पॉलिटिक्स इन इंडिया’ में हामीद दलवाई जार्ज फर्नांडिस का एक बहुत दिलचस्प उदाहरण देते हैं। वे कहते हैं कि फर्नांडिस कैथोलिक हैं, लेकिन वे हमेशा बात समता की करते हैं। मुझे लगता है कि यह बात मार्के की है। मैं मुसलमान हूं और मुझे गर्व है कि मैं मुसलमान हूं। लेकिन मैं बात समता की करूंगा। मुसलमान की बात होती रहेगी।

मैं जब भी हामिद दलवाई को पढ़ता हूं तो मुझे तीन समस्याओं का सामना करना पड़ता है।    

पहली परेशानी यह है कि हामीद दलवाई का लेखन मौलिक तौर पर अनुभव केंद्रित है। वे कहते हैं कि मैं जो लिखता हूं वह मेरे अनुभव से निकला है। दलवाई और मैं अलग-अलग जगह से आ रहे हैं। एक ओर [उनका] दुनिया बदलने का आह्वान है तो दूसरी तरफ [मेरा] वैचारिक संघर्ष। मुझे लगता है कि इन दो परस्पर विरोधाभासी दुनियाओं में सामंजस्य मुमकिन भी है और वांछनीय भी। 

मेरी दूसरी परेशानी दलवाई के लेखन की उग्रता है। चूंकि वे एक्टिविस्ट हैं, इसलिए वह अमल प्रधान हैं। कृत्य की ओर उनका ज्यादा जोर है, इसलिए उनके लेखन में उग्रता का होना स्वाभाविक है। इस उग्रता का सम्मान होना चाहिए। लेकिन जब मैं अपना लेखन देखता हूं तो बिल्कुल उलट है। मेरे लेखन में उग्रता नहीं है। उसके अंदर विश्लेषण है। 

तीसरी दुविधा यह है कि हामिद दलवाई का समाज और दुनिया अलग है। मेरी दुनिया अलग है। हामिद दलवाई के समय में यह संभव है कि हिंदू सांप्रदायिकता और मुस्लिम सांप्रदायिकता को बराबर रखा जाय। लेकिन हमारी दुनिया में हिंदू सांप्रदायिकता अपने चरमोत्कर्ष पर है। जबकि मुस्लिम सांप्रदायिकता का चरित्र अब उतना आक्रामक नहीं है, जितना दलवाई के समय में था। ऐसे में सेक्युलरवाद के अर्थ को अलग तरह से परिभाषित करना होगा। हामिद दलवाई को एक अर्थ में हमसे ज्यादा सहूलियत थी, जो हमें नहीं है। उनके लेखन में जवाहरलाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण के उदाहरण बार-बार आते हैं। याद रखिए यह उस दौर की बात है, जहां जेपी और नेहरू स्वीकार्य हैं। हमारे दौर में न कोई जेपी की बात करता है और नेहरू तो पूरी तरह से अस्वीकार किए जा रहे हैं। यही वजह है कि आज सेक्युलरवाद की बात करने से वे लोग भी घबराते हैं, जो कभी अपने आपको सेक्युलर कहने में गर्व महसूस करते थे। 

हामिद दलवाई ‘मुस्लिम पॉलिटिक्स इन इंडिया’ में बार-बार यह कहते हैं कि मुसलमानों में कोई गांधी पैदा नहीं हुआ। इसका क्या मतलब है? यहां वे पद्धति की ओर इशारा कर रहे हैं। और एक जगह तो उन्होंने काफी विस्तार से उसको लिखा भी है। इसका सीधा अर्थ यह है कि हमें विचारक की पद्धति का पता होना चाहिए। अगर हम उसकी पहचान कर लेंगे तो शायद हम किसी विचार या विचारक का अनुसरण करने की बजाय उनसे इंगेजमेंट या संवाद करना सीख जाएंगे। इस संवाद के लिए एक रुपरेखा का निर्माण करना पड़ेगा। 

अब सत्यशोधक शब्द पर वापस लौटते हैं। मेरे विचार से सत्यशोधक शब्द के चार संभव अर्थ हैं। 

पहला अर्थ है सत्य का शोधन और उसकी निरंतरता

मंचासीन रहते हुए मैं अपने पीछे नहीं देख सकता, और आप अपने पीछे नहीं देख सकते; जबकि हम सब यहीं पर हैं। तो हमारा सच सच भी है और अलग-अलग भी है। इस बात का एक अर्थ यह भी है कि सच की अपनी एक निरंतरता होती है है। सत्य की खोज का मतलब किसी एक खास मुकाम पर पहुंचना नहीं है। यदि ऐसा होगा तो कहीं एक जगह जाकर हम रुक जाएं। सत्य हमारी रोजमर्रा की कोशिश है, जिसकी खोज हर समय जारी रहती है। अगर हमने सत्य की निरंतरता को छोड़ दिया तो फिर सच की हमारी खोज बेमानी हो जाएगी। सत्यशोधक का मेरी नजर में पहला मतलब यही है– सत्य की निरंतरता और उसकी निरंतर खोज।

सत्यशोधन का दूसरा अर्थ सत्य के संदर्भ की पहचान 

जैसे मैंने कहा कि हामिद दलवाई को जब भी मैं पढ़ता हूं, तो मुझे लगता है कि उनका संदर्भ और मेरा संदर्भ अलग है। लेकिन इसके बावजूद न वे गलत हैं, न हम। दूसरे शब्दों में कहें तो सत्य की कोई तयशुदा परिभाषा नहीं होती। बदलते कालखंड में सत्य बदलता रहता है। हामिद दलवाई का सच अलग था और हमारा सच अलग है। सत्य के संदर्भ की पहचान, सत्यशोधक पद्धति की दूसरी शर्त है।

प्रो. हिलाल अहमद

सत्यशोधन का तीसरा अर्थ सत्य की ऐतिहासिकता  

हमें इतिहास के दो अर्थों को समझना ज़रूरी है। इतिहास का पहला अर्थ है– बीते कल की घटनाओं और उनके परिणामों की पुनरावृत्ति। “हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ” यानी इतिहास स्वयं को दुहराता है। इतिहास की यह एक लोकप्रिय और सर्वमान्य व्याख्या है। लेकिन इसमें एक समस्या है। समय के हर कालखंड की अपनी एक विशिष्टता होती है और प्रत्येक घटना एक विशेष संदर्भ के गर्भ से उपजती है। अगर हम वैसी ही किसी घटना के होने की उम्मीद करने लगें जो किसी खास समय और काल में हुई थी, तब हम न सिर्फ अपने वर्तमान के साथ नाइंसाफी कर रहें होंगे बल्कि यह इतिहास की ऐतिहासिकता का भी अपमान होगा। इसलिए ‘हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ’ जैसे चालू मुहावरे से बचना चाहिए। 

इतिहास का एक और सारगर्भित अर्थ भी है। वर्तमान हमेशा अतीतनिष्ठ होता है। हमारे आज में घटने वाली परिघटनाएं और प्रक्रियाएं ऐतिहासिक होती हैं। अपने आज के सत्य को जानने के लिए हमें उन प्रक्रियाओं के इतिहास को समझना होगा, जिनके पारस्परिक अंतर्संबंधों के टकराव से हमारा वर्तमान निर्मित हुआ है। महात्मा फुले ने जब ‘गुलामगिरी’ लिखी तो उन्होंने उन प्रक्रियाओं का इतिहास समझने की कोशिश की, जिनके माध्यम से उनके युग में गुलामी की अवधारणा का सत्य निर्मित हो रहा था। यही बात हामिद दलवाई के लेखन भी देखने को मिलती है। इसीलिए जब भी हम सत्यशोधन की बात करें तो हमें उसकी ऐतिहासिक पड़ताल करना जरूरी है, ताकि हमें अपने आज का घटित होता इतिहास समझ आ सके। 

सत्यशोधन का चौथा आयाम– सत्यशोधन का खुलापन

सत्यशोधन का चौथा आयाम है– सत्यशोधन का खुलापन। सत्यशोधन के लिए तार्किक खुलापन अनिवार्य शर्त है। दरअसल, सत्यशोधन एक ऐसी अवधारणा है, जिसके इस्तेमाल के लिए किसी तरह की विभाजक रेखा खींचने की ज़रूरत नहीं है। सत्य का शोधन कई बार हमारे उन मूल्यों और धारणाओं के खिलाफ भी जा सकता है, जिन्हें हम सार्वभौमिक और शाश्वत मानते हों। इसलिए यह ज़रूरी है कि हर एक सामाजिक मूल्य, धारणा, धर्म और विश्वास आलोचना की परिधि में लाए जाएं। 

एक उदहारण से यह बात साफ की जा सकती है। हामिद दलवाई कहते हैं हिंदू सांप्रदायिकता की पहचान के लिए यह जरूरी है कि मुस्लिम सांप्रदायिकता को भी लक्षित किया जाय। यह बात दलवाई के समय में बिलकुल सही है। यह उनका सत्य है। लेकिन वर्तमान समय में चीजें बदल गई हैं। एक ओर हिंदू सांप्रदायिकता राष्ट्रवाद के नाम पर अपने को स्थापित कर चुकी है, वहीं मुस्लिम सांप्रदायिकता अब पीड़ित मानसिकता में बदल चुकी है। आज की सांप्रदायिक राजनीति का सत्य इस नए विरोधाभास में है। यही कारण है कि हमें दलवाई के सत्य से आगे जाना है। तर्कों के खुलेपन के साथ खिलवाड़ करना सत्यशोधन के मार्ग में आने वाली का सबसे बड़ी रुकावट है। 

मुस्लिम सत्यशोधक क्या है?

अब सवाल यह उठता है कि मुस्लिम सत्यशोधक क्या है? इसका स्पष्टीकरण जरूरी है। मुस्लिम शब्द आखिर सत्यशोधक के साथ कैसे लगाया गया, इसके इतिहास में जाने की भी जरूरत नहीं है। मुझे लगता है कि इस शब्द की आज की प्रासंगिकता क्या है, यह जानना जरूरी है। गांधी हिंदू धर्म के बारे में एक दिलचस्प बात कहते हैं। वे कहते हैं कि मेरा हिंदू होना न कोई दुर्घटना है और ना ही यह कोई सौभाग्य की बात है। यह एक परिघटना है। बस हो गई। 

मैं अपने आपको मुसलमान मानता हूं, क्योंकि मैं एक मुस्लिम परिवार में पैदा हुआ। न तो मैं यह मानकर चल रहा हूं कि मेरे ऊपर अल्लाह ने बहुत बड़ा अहसान कर दिया; और ना ही मैं यह मानकर चल रहा हूं कि हाय, आखिर मैं मुसलमान क्योंकर पैदा हुआ। मेरा मुस्लिम होना कोई दुर्घटना नहीं है और ना ही कोई बहुत बड़ा इत्तेफाक। यह एक परिघटना है। मैंने अपनी किताब ‘अल्लाह नाम की सियासत’ में तर्क दिया है कि मुसलमान होना मेरा लेबुल है। इस लेबुल की पसंदगी या नापसंदगी मेरी नहीं है। यह लेबुल मैंने नहीं चुना। यह मुझे दे दिया गया। जैसे भारत में पैदा होना मैंने नहीं चुना, जैसे पुरुष होना मैंने नहीं चुना इत्यादि। ऐसी बहुत सारी चीजें थीं, जो हो गईं। मेरा मुस्लिम वजूद इन सब परिघटनाओं से बना है। मुझे इनसे नफरत नहीं हैं। मेरा काम मुस्लिम समाज के भीतर के सच को जानना है, उसके अंदर जो बिगाड़ है, उसका विरोध करना है और उसमें सुधार की संभावनाएं खोजना है। यही विचार हामिद दलवाई के भी हैं। वे बार-बार यह तर्क देते है कि वे एक मुसलमान क्यों हैं और उनका इस्लाम क्या है। 

मुख्य बात यह है कि मैं मुस्लिम समाज में पैदा हुआ हूं और मुझे इस समाज की अच्छाइयां और बुराइयां दोनों की जानकारी है। इसीलिए इस समाज की बुराइयों के लिए भी मैं उतना ही जिम्मेदार हूं जितना कि समाज की अच्छाई के लिए। यह मुस्लिम समाज वृहत्तर भारतीय समाज का हिस्सा है, इसलिए भारतीय समाज की अच्छाइयों और बुराइयों के लिए भी मैं उतना ही जिम्मेदार हूं जितना कि मुस्लिम समाज की अच्छाइयों और बुराइयों के लिए। इसलिए मुझे यह कहने का पूरा हक है कि अगर कोई हिंदू गलत काम करता है तो मैं मुसलमान होकर उसे रोक सकता हूं। और इसी तरह से किसी भी सत्यशोधक हिंदू के लिए ये जरूरी है कि वह मुसलमान की गलत बात को गलत कहे। मुस्लिम सत्यशोधक का विचार वास्तव में यही है।  

आज के सवाल और सत्यशोधक विचार 

अगर हम दोबारा सत्यशोधन के चार आयामों पर लौटें तब एक और सवाल पैदा होता है। यह बहुत ही ज्यादा दिलचस्प सवाल है। हम मानकर चलते हैं कि हम अपने आज को जानते हैं। यही कारण है कि हम अक्सर एक चीज में फर्क नहीं करते। अंग्रेजी में अगर कहूं तो यह बात ‘व्हाट इज एंड व्हाट ऑउट टू बी’ पर जा कर रुकती है। मतलब यह कि अपने आज की बात करते हुए ‘हम आज क्या हैं’ की बात करने के बजाय ‘आज कैसा होना चाहिए’ की बात करने लगते हैं। इसकी वजह यह है कि हमारा समाज जवाबदाता समाज है। जिम्मेदारी लेने वाला समाज नहीं है। हमारा समाज जवाब दे सकता है। लेकिन हमारे आज का मूल सवाल क्या है? हम इस बात को खोजने से कतराते हैं। 

यही फर्क हामिद दलवाई और हमारे बीच में है। यही फर्क महात्मा फुले और हमारे बीच में है। वो लोग अपने सवालों के प्रति बड़े सचेत थे। वे सवाल ढूंढ़ रहे थे और हम जवाब ढूंढ़ रहे हैं। हमें इससे बचना पड़ेगा। हम जवाब नहीं ढूंढ़ेगें, पहले हमें सवाल पता होना चाहिए और ज्यादातर समय हम अपना इस विषय पर बर्बाद करते हैं कि क्या होना चाहिए, और खासतौर से राजनीति के बारे में हम यह मानकर चलते हैं कि हम राजनीति जानते हैं। लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। मुझे लगता है कि इस बात को अच्छी तरह से कुरेदने की जरूरत है। 

अब बारी है सवालाें की तो पहला सवाल है लोकतंत्र की प्रासंगिकता का, दूसरा सवाल है आर्थिक बराबरी का, तीसरा सवाल है धर्म और सेक्युलरवाद का और चौथा सवाल समाज की नैतिकता का है। 

लोकतंत्र का सवाल

आज इस अवसर पर मुझे जो भेंट दी गई है, वह संविधान की प्रस्तावना है। यह हमने कबसे बांटनी शुरू की है? मेरा मत है कि गत तीस साल से। नब्बे के दशक के बाद संविधान पहले से ज्यादा प्रासंगिक हो गया। संविधान हमारे लोकतंत्र का प्रमुख प्रतीक कैसे बना? फिर दोबारा मैं ऐतिहासिक पड़ताल पर आता हूं। वैसे भी हामिद दलवाई के लेखन में संविधान का ज़िक्र बहुत कम आता है। 

भारत में लोकतंत्र के दो अर्थ हैं। हमारे राष्ट्रवादी आंदोलन के ज़माने में कहीं न कहीं पर एक चीज पर सहमति थी कि हमें एक आजाद लोकतांत्रिक देश होना है। अगर हम संविधान सभा की बहसों को देखें और खासतौर पर डॉ. आंबेडकर के संदर्भ में, तो डेमोक्रेसी या लोकतंत्र को एक माध्यम माना गया है, जिसके द्वारा एक व्यापक सामाजिक परिवर्तन हासिल करना है।  

भारतीय संविधान की रूपरेखा के दृष्टिकोण से देखें तो लोकतंत्र साधन है और संविधान उसका मूर्त स्वरूप। 1950 के दशक में लोकतंत्र के इस विचार पर सहमति दिखती है। नेहरू के लिए लोकतंत्र समाजवादी ढंग का समाज बनाने का जरिया बना तो जेपी के लिए समाजवाद का और वामपंथियों के लिए क्रांति की वैचारिक आधारशीला। जेपी की एक दिलचस्प किताब है– ‘द रिकंस्ट्रक्शन ऑफ़ इंडियन पोलिटी’ जो उन्होंने 1951 में लिखी। इस किताब में लोकतंत्र के नज़रिए से संविधान की आलोचना की गई है। यानि संविधान एक दस्तावेज़ के रूप में तो है लेकिन उसकी पूजा नहीं होती है। लोहिया के विचारों में भी यह बात है। तो आखिर लोकतंत्र, जो 1990 से पहले तक एक साधन माना जा रहा था, उसके मायने कैसे बदल गए। 

1990 के दशक में राज्य का स्वरूप बदल जाता है। राज्य ने यह मानना छोड़ दिया है कि लोकतंत्र साधन है। राज्य का अब मानना है कि लोकतंत्र साध्य है। 

इसी काल में सरकारों ने यह कहना शुरू किया कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। अब तो नौबत यह आ गई है कि हमने दावा कर दिया है कि भारत दरअसल दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र ही नहीं, बल्कि वह लोकतंत्र की मां है। दूसरे शब्दों में हम यह कह रहे हैं कि हमारा समाज चाहे जो भी हो, जैसा भी हो, हमें अपने लोकतंत्र पर गर्व करना है। 

लोकतंत्र की इस नई परिभाषा का दूसरा परिणाम यह हुआ कि हमारी राजनीति ले-देकर चुनाव तक सीमित हो गई है। अब हर बात चुनाव पर होती है। याद रखिए हमारा चुनाव तंत्र ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम’ से संचालित है। अगर दो लोग चुनाव लड़ रहे हैं और उसमें एक को 51 प्रतिशत मत मिल जाएं और दूसरे को 49 प्रतिशत मत मिले तो पहला व्यक्ति जीत जाएगा। इस तरह जो जीता वो सिकंदर जैसे चालू राजनीतिक मुहावरे सार्वजानिक विमर्शों पर हावी हो जाते हैं। और जो लोग जीतने वाली विचारधारा से असहमत होते हैं, उनके विरोध को नज़रंदाज़ करने की प्रक्रिया तेज़ हो जाती है। यही कारण है कोई दल विशेष सिर्फ 33 प्रतिशत वोट लेकर देश में सरकार बनाता है और मीडिया कहना शुरू कर देता है कि अब निर्णायक नेता आ गया है। 

आर्थिक बराबरी

मेरा दूसरा सवाल है आर्थिक बराबरी का। याद रखिए कि हमारे संविधान में दो चीजें हैं– नियम और सिद्धांत। इनमें विरोधाभास भी होता है। इन्ही विरोधाभासों के कारण संविधान की सकारात्मक राजनीति पैदा होती है। 

अगर हम संविधान के अंदर झांकें, खासतौर से प्रस्तावना और नीति निर्देशक तत्वों को देखें तो एक चीज साफ हो जाती है। संविधान एक लोकहितकारी राज्य का तसब्बुर देता है सामाजिक बराबरी सुनिश्चित हो। लेकिन सामाजिक बराबरी करते हुए संविधान यह कतई नहीं कहता कि आर्थिक बराबरी की बात नहीं होगी। संविधान में वर्णित राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत बार-बार हमें यह बात याद दिलाते हैं कि राज्य आर्थिक-सामाजिक बराबरी को स्थापित करने का प्रयास करेगा। सब आर्थिक रूप से बराबर हैं और सभी का संसाधनों पर बराबर का हक है। लेकिन 1991 के बाद जो भारत में राज्य आया उसने इस बात को दरकिनार कर दिया। यह कहा जाने लगा कि अब राज्य आर्थिक क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करेगा। 

एक तरफ संविधान यह कह रहा है कि हमें आर्थिक और सामाजिक तौर पर बराबरी बनानी है तो दूसरी तरफ राज्य यह कह रहा है कि हमें सामाजिक-आर्थिक बराबरी के लिए काम नहीं करना है, बल्कि बाजार के लिए रास्ते आसान बनाने हैं। तब क्या उपाय हो? 

भारत में कोई भी राजनीतिक दल बिना लोकहित की बात किये राजनीति नहीं कर सकता। याद रखिए आरक्षण केवल एक सकारात्मक कार्रवाई है। जबकि संविधान में इसके दस तरीके हैं। वर्ष 1991 के बाद आरक्षण के अलावा राज्य ने सामाजिक संबंधों को अलग तरीके से संबोधित करना शुरू किया। एक तरफ यह कहना शुरू किया कि अगर आप व्यक्ति हैं तो आप बाजार के नियमों से ही केंद्रित होंगे। वर्ष 1991 से लेकर नरेंद्र मोदी के आने से पहले तक कहा जा रहा था कि बाजार अपने आपको स्वयं नियंत्रित कर लेगा। लेकिन यह बहुत बड़ी भ्रांति है। कोई भी बाजार पूंजीवादी व्यवस्था में अपने आपको स्वयं नियंत्रित नहीं करता, उसके लिए राज्य के हस्तक्षेप की जरूरत होती है। चाहे वह स्पेशल इकोनॉमिक जोन (एसईजेड) हो या मनरेगा जैसी योजना हो। सवाल है कि हम क्या करेंगे जो सामाजिक रूप से पिछड़े तबके हैं? क्या हम सभी को अलग से संबोधित करेंगे? फिर कहा जाएग कि हम सच्चर आयोग बना देंगे या हम रंगनाथ मिश्रा कमेटी बना देंगे ताकि भाषाई न लड़ें। 

दुखद यह कि हम ऐसा कहेंगे और एकदम से बाबा साहब डॉ. आंबेडकर को प्रतीक चिह्न बना देंगे। और याद रखिए कि बाबा साहब डॉ. आंबेडकर का बहुत बड़ा दुरुपयोग भी इस देश में लगातार चल रहा है और वह भी 1991 के बाद से। इसी दौर में डॉ. आंबेडकर को भारत रत्न सम्मान दिया गया। इसके पीछे की राजनीति हमें भूलना नहीं चाहिए। [मनरेगा के तहत] मात्र सौ दिन जिंदा रहने का अधिकार है? सिद्धांत की बात है। सिद्धांत क्या यह होगा कि सौ दिन जिंदा रखने के लिए काम देंगे और सौ दिन बाद घर वापस जाने का संदेश दे दिया जाएगा। अगर ऐसा है तो कहीं आपके सिद्धांत में गड़बड़ है। ये मामला अब बीजेपी का नहीं है। यह मामला नरेंद्र मोदी का नहीं है। मामला पोलिटिकल क्लास का है। 

धर्म का सवाल

अब तीसरा सवाल वो शायद अप्रासंगिक लगे शायद ज्यादा दिलचस्प लगे क्योंकि वो धर्म से जुड़ा है। धर्म, मार्क्स ने कहा था अफीम है, लेकिन आगे भी कुछ कहा था। एक दिन दिल्ली मेट्रो में यह नजारा दिखा कि कोच में अनेक युवा सफर कर रहे थे। अचानक मेरी नजर उन हाथों पर पड़ी जिनकी उंगलियों में ज्योतिष के आधार पर निर्धारित अंगुठियां थीं और दूसरे हाथ में मोबाइल फोन। अधिकांश हॉलीवुड की फिल्में देख रहे थे। तो असलियत यही है कि मजहब ऐसा ही होता है। 

एक उदाहरण यह भी कि अब मृत्यु के संस्कार को भी उत्सव में बदल दिया गया है। हिंदू धर्म में ब्रह्मभोज जैसी कुरीतियां और भव्य होती जा रही हैं। वहीं मुसलमानों में भी बदलाव आया है। यह इसके बावजूद कि इस्लाम बुतपरस्ती का विरोध करता है। लेकिन हर एक मुल्ला उस वक्त का अपना वीडियो बनाकर डालता है जब कोई दफन किया जाता है। कब्रिस्तान के अंदर वीडियोग्राफी होती है। अगर हम यह कहें कि अभी रेडिकल हिंदुत्व बन रहा है तो इसका मतलब यह जानिए कि पूरे समाज में रेडिकलिज्म पनपना शुरू हो चुका है। ये नैतिकता का ह्रास है। हम राजनीति में इतने ज्यादा आंखें मिचकर खड़े हैं कि अभी भी यह लग रहा है कि इस इलेक्शन में यह हो जाएगा तो ऐसा हो जाएगा। बिल्कुल नहीं होगा। अगर मान लीजिए कल को कांग्रेस और राहुल गांधी भी आ जाते हैं तो वो भी राम मंदिर जाएंगे, वे भी यही करेंगे। क्योंकि मैं सुधारक नहीं हूं इसलिए मुझे नहीं मालूम कि इसका हल क्या है। यह हम सब को मिलकर सोचना पड़ेगा।

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