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दिल्ली समझौता और भारतीय संविधान में अनुच्छेद 35A जोड़ने के पीछे का इतिहास

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*कश्मीर समस्या के पीछे का सच**भाग 6

*अजय असुर*

भारत की नागरिकता को जम्मू और कश्मीर के निवासियों के लिए भी खोल दिया गया था अर्थात जम्मू और कश्मीर के नागरिक भी भारत के नागरिक मान लिए गये थे। अर्थात जम्मूकश्मीर के नागरिकों को दोहरी नागरिकता का अधिकार। भारतीय संविधान के मूलभूत अधिकार राज्य पर भी लागू होंगे और सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का मूलभूत अधिकारों के साथ-साथ अंतरराज्यीय और केन्द्र व राज्य के बीच विवादों के संबंध में राज्य तक विस्तार किया जायेगा। ये समझौता अब्दुला शेख और पण्डित नेहरू के बीच हुआ। ये समझौता और अनुच्छेद 35A किन परिस्थियों में हुआ/जोड़ा गया और कैसे हुआ इसको समझने का प्रयास करते हैं।

भारत सरकार ने कश्मीरी सरकार पर दबाव डालना जारी रखा कि वह भारतीय संविधान की अधिक से अधिक धाराएँ वहाँ लागू करना स्वीकार करे और अंततः शेख अब्दुल्ला को भारत सरकार के आगे झुकना पड़ा। इस प्रकार 1952 में भारत और जम्मू-कश्मीर सरकार के बीच एक समझौता होता है, इसे “दिल्ली एग्रीमेंट 1952” का नाम दिया जाता है। इस समझौते में कुल 8 शर्तें थी जो निम्नवत है-

i. जम्मू और कश्मीर संविधान सभा द्वारा उठाए गए एक समान और सुसंगत रुख को देखते हुए कि विलय के साधन में निर्दिष्ट सभी मामलों के अलावा अन्य सभी मामलों में संप्रभुता राज्य में बनी हुई है, भारत सरकार ने सहमति व्यक्त की, जबकि की अवशिष्ट शक्तियां जम्मू और कश्मीर के अलावा अन्य सभी राज्यों के संबंध में केंद्र में निहित विधायिका, बाद के मामले में वे राज्य में ही निहित थे।

ii. दोनों सरकारों के बीच यह सहमति हुई कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 5 के अनुसार, जिन व्यक्तियों का जम्मू और कश्मीर में अधिवास है, उन्हें भारत का नागरिक माना जाएगा, लेकिन राज्य विधायिका को विशेष अधिकार प्रदान करने के लिए कानून बनाने की शक्ति दी गई थी और 1927 और 1932 की ‘राज्य विषय अधिसूचनाओं’ के मद्देनजर ‘राज्य विषयों’ पर विशेषाधिकार: राज्य विधायिका को ‘राज्य विषयों’ के लिए कानून बनाने का भी अधिकार था, जो 1947 की सांप्रदायिक अशांति के कारण पाकिस्तान गए थे। उनके कश्मीर लौटने की घटना।

iii. जैसा कि भारत के राष्ट्रपति को राज्य में उतना ही सम्मान मिलता है जितना वह भारत की अन्य इकाइयों में करता है, उससे संबंधित संविधान के अनुच्छेद 52 से 62 राज्य पर लागू होने चाहिए। यह भी सहमति व्यक्त की गई कि सजा आदि की छूट, क्षमा और छूट देने की शक्ति; भारत के राष्ट्रपति में भी निहित होगा।

iv. संघ सरकार इस बात से सहमत थी कि संघ के ध्वज के अतिरिक्त राज्य का अपना ध्वज होना चाहिए, लेकिन राज्य सरकार द्वारा यह सहमति व्यक्त की गई कि राज्य ध्वज संघ ध्वज का प्रतिद्वंद्वी नहीं होगा; यह भी माना गया कि जम्मू में संघ के झंडे की स्थिति और स्थिति समान होनी चाहिए और कश्मीर शेष भारत की तरह, लेकिन राज्य में स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े ऐतिहासिक कारणों से, राज्य ध्वज को जारी रखने की आवश्यकता को मान्यता दी गई थी।

v. सदर-ए-रियासत की स्थिति के संबंध में पूर्ण सहमति थी, हालांकि सदर रियासत को राज्य विधानमंडल द्वारा चुना जाना था, उन्हें भारत के राष्ट्रपति द्वारा उनकी स्थापना से पहले मान्यता दी जानी थी; अन्य भारतीय राज्यों में राज्य के प्रमुख द्वारा नियुक्त किया गया था। राष्ट्रपति और उनके नामित व्यक्ति के रूप में थे, लेकिन प्रमुख के रूप में नियुक्त किए जाने वाले व्यक्ति को उस राज्य की सरकार के लिए स्वीकार्य व्यक्ति होना चाहिए, कोई भी व्यक्ति जो राज्य सरकार को स्वीकार्य नहीं है, उसे राज्य के प्रमुख के रूप में राज्य पर नहीं थोपा जा सकता है। कश्मीर के मामले में अंतर केवल इस तथ्य में निहित है कि सदर-ए रियासत पहले स्थान पर सरकार और भारत के राष्ट्रपति के नामित होने के बजाय राज्य विधानमंडल द्वारा ही चुने जाएंगे। सदर-ए-रियासत की शक्तियों और कार्यों के संबंध में निम्नलिखित तर्क परस्पर सहमत थे-

1- राज्य का मुखिया राज्य के विधानमंडल की सिफारिशों पर संघ के राष्ट्रपति द्वारा मान्यता प्राप्त व्यक्ति होगा।

2- वह राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त पद धारण करेगा।

3- वह राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर के तहत लिखित रूप में अपने पद से इस्तीफा दे सकता है।

4- पूर्वगामी प्रावधानों के अधीन, राज्य का मुखिया अपने कार्यालय में प्रवेश करने की तारीख से पांच साल की अवधि के लिए पद धारण करेगा।

5- बशर्ते कि वह अपने कार्यकाल की समाप्ति के बावजूद, तब तक पद पर बने रहेंगे जब तक कि उनका उत्तराधिकारी अपना पद ग्रहण नहीं कर लेता।

vi. मौलिक अधिकारों के संबंध में, पार्टियों के बीच सहमत कुछ बुनियादी सिद्धान्तों को प्रतिपादित किया गया था;  यह स्वीकार किया गया कि राज्य के लोगों को मौलिक अधिकार होने चाहिए।  लेकिन राज्य को जिस अजीब स्थिति में रखा गया था, उसे देखते हुए, भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों से संबंधित पूरे अध्याय को राज्य पर लागू नहीं किया जा सकता था, जो प्रश्न निर्धारित किया जाना बाकी था कि क्या मौलिक अधिकारों पर अध्याय राज्य के लिए लागू भारत के संविधान के राज्य संविधान का एक हिस्सा बनना चाहिए।

vii. भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के संबंध में, यह स्वीकार किया गया था कि कुछ समय के लिए, राज्य में न्यायिक सलाहकारों के बोर्ड के अस्तित्व के कारण, जो राज्य में सर्वोच्च न्यायिक प्राधिकरण था, सर्वोच्च न्यायालय को होना चाहिए था केवल अपीलीय क्षेत्राधिकार।

viii. “आपातकालीन शक्तियों” के संबंध में बहुत चर्चा हुई; भारत सरकार ने अनुच्छेद 352 को लागू करने पर जोर दिया, जिससे राष्ट्रपति को राज्य में एक सामान्य आपातकाल की घोषणा करने का अधिकार मिला; राज्य सरकार ने तर्क दिया कि युद्ध या बाहरी आक्रमण की स्थिति में रक्षा पर अपनी शक्तियों (संघ सूची में आइटम 1) के प्रयोग में, भारत सरकार के पास कदम उठाने और आपातकाल की घोषणा करने का पूरा अधिकार होगा लेकिन राज्य प्रतिनिधिमंडल था तथापि, राष्ट्रपति द्वारा आंतरिक अशांति के कारण सामान्य आपातकाल की घोषणा करने की शक्ति का प्रयोग करने के विरुद्ध है। 

राज्य के प्रतिनिधिमंडल के दृष्टिकोण को पूरा करने के लिए, भारत सरकार ने निम्नलिखित शब्दों को जोड़कर कश्मीर के लिए अपने आवेदन में अनुच्छेद 352 के संशोधन के लिए सहमति व्यक्त की।

“लेकिन अनुरोध पर या राज्य सरकार की सहमति से आंतरिक अशांति के संबंध में।” खंड (1) के अंत में दोनों पक्षों ने सहमति व्यक्त की कि वित्तीय आपातकाल से निपटने वाले राज्य के संविधान और 360 के निलंबन से संबंधित अनुच्छेद 356 का आवेदन आवश्यक नहीं था।

इस समझौते को पढ़कर एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि कश्मीरी अवाम को अपने हक-हुकूक की बात रखने और किसी भी नीति का विरोध करने की स्वतंत्रता नहीं है। केन्द्र व राज्य सरकार के विरोध को हमेशा ही देशद्रोह के रूप में और पाकिस्तान के साथ निष्ठा के रूप में दलाल मीडिया द्वारा खबर दिखाया जाता रहा है, जिससे लोगों के दिलों में एक धारणा बन गयी कि ये जो विरोध-प्रदर्शन कर रहें हैं ये पाकिस्तान द्वारा फंडिंग किये हुए राष्ट्रद्रोही लोग हैं। समय-समय पर कश्मीरियों ने अपने हक-हुकूक के लिये हिंसक और गैर हिंसक दोनों ही प्रकार से जबरदस्त तरीके से विरोध प्रदर्शन कर सरकार के प्रति अपने रोष का इजहार किया है परंतु इन विरोध-प्रदर्शनों को हर बार अमानवीय तरीके से निर्ममतापूर्वक दमन किया गया। यह दमन सिर्फ कश्मीर के अन्दर ही नहीं भारत के हर कोने में किया गया है।

1952 के दिल्ली समझौते के बाद ही 1954 का विविदित कानून ‘अनुच्छेद 35A’ बनाया गया था। भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने 14 मई 1954 को एक आदेश पारित किया। आदेश के जरिये संविधान में अनुच्छेद 35A जोड़ा गया। जिसमें जम्मूकश्मीर राज्य विधानमण्डल को “स्थायी निवासी” परिभाषित करने तथा उन नागरिकों को विशेषाधिकार प्रदान करने का अधिकार को लेकर था। 35A के जरिए भारतीय नागरिकता को जम्मू-कश्मीर की राज्य सूची का मामला बना दिया। जिसके तहत जम्मू-कश्मीर में स्थायी निवासियों को पारभाषित करने की जिम्मेदारी राज्य की विधानसभा को दी गई। इसके मुताबिक आर्टिकल 35A संविधान में शामिल प्रावधान है जो जम्मू और कश्मीर विधानमंडल को यह अधिकार प्रदान करता है कि वह यह तय करे कि जम्मू और कश्मीर का स्थायी निवासी कौन है और किसे सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में विशेष आरक्षण दिया जायेगा, किसे संपत्ति खरीदने का अधिकार होगा, किसे जम्मू और कश्मीर विधानसभा चुनाव में वोट डालने का अधिकार होगा, छात्रवृत्ति तथा अन्य सार्वजनिक सहायता और किसे सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों का लाभ मिलेगा। आर्टिकल 35A में यह प्रावधान है कि यदि राज्य सरकार किसी कानून को अपने हिसाब से बदलती है तो उसे किसी भी कोर्ट में चुनौती नही दी जा सकती है। अनुच्छेद 35A, जम्मू-कश्मीर को राज्य के रूप में विशेष अधिकार देता है। इसके तहत दिए गए अधिकार ‘स्थाई निवासियों’ से जुड़े हुए हैं। इसका मतलब है कि जम्मूकश्मीर राज्य सरकार को ये अधिकार है कि वो आजादी के वक्त दूसरी जगहों से आए शरणार्थियों और अन्य भारतीय नागरिकों को जम्मू-कश्मीर में किस तरह की सहूलियतें दे अथवा नहीं दे। भारत के किसी अन्य राज्य का निवासी जम्मूकश्मीर का स्थायी निवासी नही बन सकता है और इसी कारण वहां वोट नहीं डाल सकता है और किसी गैर कश्मीरी व्यक्ति को कश्मीर में जमीन खरीदने के रोकता था तब तक जब तक राज्य सरकार ना चाहे यानी राज्य सरकार की मर्जी पर था कि किसको कश्मीर का नागरिक का दर्जा दे तभी वो राज्य ने वोट डाल सकता है और राज्य की जमीन भी खरीद सकता है और वंहा की लड़की से शादी भी कर सकता है। अनुच्छेद 35A के तहत अगर जम्मूकश्मीर की कोई लड़की किसी बाहर के लड़के से शादी कर लेती है तो उसके सारे अधिकार खत्म हो जाते हैं. साथ ही उसके बच्चों के अधिकार भी खत्म हो जाने का प्रावधान था। इस अनुच्छेद 35A को 5 अगस्त 2019 को निरस्त कर दिया गया जिसके साथ में ही ये सारी बंदिशें भी खत्म हो गयीं।

आर्टिकल 35A को लेकर सबसे बड़ी आपत्ति तो उसकी संवैधानिक वैधता को लेकर थी। इसे संविधान में जोड़ते समय संसदीय तौर-तरीके का पालन नहीं किया गया। संसद की मंजूरी तो दूर की बात है, इसे संसद के सामने कभी पेश तक नहीं किया गया। सीधे राष्ट्रपति के आदेश से इसे संविधान में जोड़ दिया गया, जबकि संविधान संशोधन के लिए संसद की मंजूरी जरूरी होती है। संविधान का अनुच्छेद 368 (i) संविधान में संशोधन का अधिकार सिर्फ संसद को देता है और इस गैर संवैधानिक तरीके से जोड़े गये अनुच्छेद को जनसंघ समेत सभी विपक्षी दल इस पर किसी तरह का कोई विरोध नहीं किया क्योंकि सभी दल एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। सभी दल जनविरोधी हैं, इनको सिर्फ अपने हित से मतलब है जनहित से कोई भी लेना-देना नहीं है।

*शेष अगले भाग में…*

*अजय असुर*

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