इंद्रनील शुक्ला
बंगालियों की मनपसंद तीखी-चटपटी चिकन करी यानी मुरगीर झोल में एक क्रांतिकारी का हाथ लगा और वह देखते-देखते जापानियों की पसंदीदा डिश बन गई। नाम पड़ा नाकामुराया करी। तब से 90 साल से ज्यादा बीत चुके हैं, लेकिन आज भी जापान में इसकी मकबूलियत बनी हुई है। चावल के साथ नाकामुराया करी का लुत्फ लेते जापानियों को हर कहीं देखा जा सकता है, लेकिन इसकी शुरुआत नाकामुराया बेकरी से हुई और धीरे-धीरे दूसरे रेस्तरां भी इसे बनाने लगे।
एक बंगाली डिश के जापान में मशहूर होने का इतिहास बहुत दिलचस्प है। तकरीबन एक सदी पुराना। भारतीय स्वतंत्रता सेनानी रास बिहारी बोस का नाम आपने सुना ही होगा। वही जिन्होंने विदेशी जमीन पर आजाद हिंद फौज खड़ी की और बाद में उसकी कमान नेताजी सुभाषचंद्र बोस के हाथों सौंप दी। लेकिन, हम यहां रास बिहारी बोस के भारत की आजादी में योगदान की नहीं, बल्कि उनके खाना पकाने के हुनर की बात करेंगे।
23 दिसंबर 1912 को भारत में ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड हार्डिंग की हत्या की कोशिश हुई। दिल्ली में उन पर बम फेंका गया। इस हमले में वायसराय बाल-बाल बचे। तफ्तीश में पता चला कि घटना के मास्टरमाइंड बंगाली क्रांतिकारी रास बिहारी बोस हैं। पुलिस और खुफिया एजेंसियां उनकी तलाश में जुट गईं। तब अंडरग्राउंड रहते हुए वह गदर आंदोलन से जुड़ गए, लेकिन यह आंदोलन नाकाम रहा। बहुत से क्रांतिकारी गिरफ्तार कर लिए गए। अलबत्ता, बोस अंग्रेज सरकार की आंखों में धूल झोंकने में सफल रहे।
रवींद्रनाथ टैगोर के रिश्तेदार की झूठी पहचान के सहारे वह जहाज पर सवार होकर जापान चले गए, 1915 में। पहले वह पोर्ट सिटी कोबे पहुंचे और फिर वहां से तोक्यो। वहां उन्होंने हिंदुस्तान की आजादी की लड़ाई से हमदर्दी रखने वाले एशियाई नेताओं से मुलाकात की। उन्हें प्रभावशाली दक्षिणपंथी नेता मित्सुरू तोयामा से खास तौर पर मदद मिली। उन्हीं की मदद से बोस को तोक्यो के कारोबारी और घनी आबादी वाले इलाके शिन्जुकु में एक सुरक्षित आश्रय मिला, जो था नाकामुराया बेकरी का बेसमेंट।
एक बंगाली भला कितने दिन बंगाली खाने से दूर रह सकता था। एक दिन उन्होंने पूरे मन से बंगालियों का पसंदीदा ‘मुरगीर झोल’ पकाया। उन्होंने ना सिर्फ उसे खुद खाया, बल्कि बेकरी के मालिक और उन्हें पनाह देने वाले पति-पत्नी आइजो सोमा व कोक्को सोमा को भी खिलाया। रास बिहारी बोस की सोमा परिवार से नजदीकी बढ़ती गई और उन्होंने आइजो और कोक्को की बड़ी बेटी तोशिको से शादी कर ली। तब तक बंगाली ‘मुरगीर झोल’ इस परिवार के भोजन का हिस्सा बन चुका था। रास बिहारी बोस और तोशिको का साथ ज्यादा लंबा नहीं रहा। शादी के सात साल बाद ही वह अपने पीछे दो बच्चों को छोड़कर इस दुनिया से चली गईं। इस घटना के दो साल बाद बोस ने अपने ससुर के साथ नाकामुराया बेकरी की ऊपरी मंजिल पर एक छोटा-सा रेस्तरां खोला, जहां की खासियत थी टिपिकल बंगाली ‘मुरगीर झोल’।
इस डिश को ग्राहकों के बीच लोकप्रिय होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। देखते-देखते बोस के रेस्तरां की लोकप्रियता आसमान छूने लगी। इनमें उन अखबारों का भी बड़ा योगदान है, जिन्होंने बोस के ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष और तोशिको के साथ उनकी मोहब्बत की कहानी के बारे में जमकर लिखा। जापानी नागरिकों के बीच बोस की ‘इंडो-करी,’ क्रांति और प्रेम का प्रतीक बन गई। ताज्जुब की बात तो यह है कि आज इतने बरसों बाद भी रास बिहारी बोस की रेसिपी से बनी इस चिकन करी की कद्र जापान में जरा भी कम नहीं हुई है। दही, प्याज, अदरक, लहसुन वाले झोल या तरी में आज भी पहले की तरह ही सीझे हुए आलू के टुकड़े डाले जाते हैं।
प्रोफेसर ताकेशी नाकाजिमा अपनी किताब ‘बोस ऑफ नाकामुराया’ में लिखते हैं, ‘रास बिहारी बोस की यह कोशिश थी कि जापानी यह जानें कि जो करी वे खा रहे हैं वह असल में एक उपनिवेश के लोगों का खाना है। इसकी लोकप्रियता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जापानी राइस-करी के मुकाबले यह आठ गुना दाम पर बिकती थी, लेकिन उसकी मांग कम नहीं हुई! आज इतने बरसों बाद भी नाकामुराया फूड कंपनी रास बिहारी बोस की ओरिजिनल रेसिपी से तैयार इंडियन करी बेच रही है। 2001 से यह डिब्बाबंद होकर जापान के कोने-कोने में पहुंच रही है। कंपनी की प्रॉसेस्ड फूड डिविजन साल में ढाई से तीन अरब येन का डिब्बाबंद खाना बेचती है, जिसमें से लगभग आधी बिक्री बोस की रेसिपी वाली इंडियन करी की है।’