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कश्मीरी पंडितों का इतिहास….काबुल का पहला हिंदू सूबेदार सुखजीवन महाजन

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जावेद शाह खजराना
मेरे पास एक किताब है जिसका नाम “दिल्ली की रोमांचक सत्यकथाएं” है। इसके लेखक विश्वनाथ जी है। इस किताब के पेज नम्बर 138 से 142 तक कश्मीरी पंडितों के उत्थान और पतन पर बहुत-कुछ लिखा है।इसी क़िताब से लफ्ज़ दर लफ्ज़ काम के लायक जानकारी आपकी ख़िदमत में पेश कर रहा हूँ।
कश्मीरी पंडित/ब्राह्मणों को लेकर आजकल अखबार की सुर्खियों से लेकर सोशल मीडया पर अनगिनत पोस्ट चल रही है। अब तो कश्मीर फाईल्स नामक चर्चित फिल्म भी बाज़ार में आ गई है। ऐसे में आपके मन में एक सवाल जरूर उठ रहा होगा कि आखिर ये कश्मीरी पंडित है कौन? आपने शायद ही गुजराती या राजस्थानी पंडित सुना होगा? 
वैसे तो कश्मीर में पंडितों यानि ब्राह्मणों का इतिहास बौध्द काल से लेकर 16वी सदी तक छुटपुट मिलता रहता है लेकिन मैं यहाँ दस्तावेजी सुबूत पर मुख्तसर बात करूँगा।
आइये चलते है 265 साल पहले।मोहम्मद शाह अब्दाली के जमाने की बात है।पंजाब के सियालकोट में एक महाजन परिवार रहता था ।अफगान और हिंदुस्तान की जंगों में उस परिवार में सिर्फ सुखजीवन नाम का लड़का ही बच पाया था। उसके माता-पिता बचपन में ही फ़ौत हो गए थे। लड़का पढ़ने-लिखने में होशियार और फारसी का तो पंडित ही था।
जब सियालकोट में उसकी गुज़र-बसर नहीं हुई ।थोड़ी मूंछे फूटी तो वो कलम-दवात लेकर पेशावर चला आया। पेशावर में वो अब्दाली की कचहरी के सामने फ़टी-सी दरी बिछाकर अपनी कलम-दवात लेकर बैठ गया। दरबार में आने-जाने वालों की पढ़ाई-लिखाई का काम करने लगा। उसकी फारसी की लिखावट मोतियों के समान और लफ़्ज़ों को लिखने का अंदाज़ सबसे निराला था । उसकी लिखावट देखकर बड़े-बड़े फारसीदाँ ताज्जुब में पड़ जाते थे। लिहाज़ा सुखजीवन महाजन आने-जाने वाले दरबारियों की नज़र में चढ़ गया।
एक दिन की बात है।अफगान का शासक मोहम्मद शाह अब्दाली अपनी पेशावर की कचहरी में एक जरुरी दस्तावेज़ से सिर खपा रहा था। घसीट में लिखी फारसी उसके पल्ले नहीं पड़ रही थी। अब्दाली मन ही मन लिखने वाले की सातों पीढ़ियों को कोस रहा था। फिर वज़ीर ने भी अपना दिमाग लगाया। कुछ हाथ ना लगा। हारकर वजीर ने अब्दाली का ध्यान सुखजीवन महाजन की जानिब दिलाया।
सुखजीवन हाज़िर हुआ। उसने बातों-बातों में दस्तावेज़ बांच दिया। अब्दाली इस हिंदू नौजवान की क़ाबलियत से बहुत मुतास्सिर हुआ।तुमने इतनी अच्छी फ़ारसी कहाँ सीखी? अब्दाली ने उत्सुकतावश पूछा
“हुज़ूर बहुत कुछ मदरसे के मौलवी से , दुकान में बाप से फिर दुनिया के धक्के खाकर और बाक़ी सुने घर में रखी किताबों को पढ़कर”
‘वल्लाह तुम इतने गरीब और क़ाबिल शख्स हो। हमारी खुशकिस्मती है जो तुम जैसा क़ाबिल हमारे इलाके में रहता है। हम तुम्हें ऊंचा ओहदा देंगे, ऊंचे खानदान में शादी कराएंगे।’
इस नाचीज पर हुज़ूर की मेहरबानी है लेकिन मैं अपना मजहब नहीं छोड़ सकता। 
अब्दाली ने हँसकर कहा- ‘ओह नहीं’ हम तुम्हे मजहब बदलने को नहीं कह रहे। अब्दाली मज़हब के चक्कर में पड़कर क़ाबलियत की तौहीन नहीं करता। मेरे दरबार में दूसरे भी हिंदू मुलाज़िम हैं। तुम भी उन्ही की तरह रहना।
सुखजीवन महाजन खुश होकर ताज़ीम में झुक गया।अब्दाली आज बहुत खुश था। उसने सुखजीवन से धर्म, राजनीति और साहित्य पर खूब चर्चा की । उसकी क़ाबलियत को पहचानकर उसे काबुल का सूबेदार बना दिया। मरहबा 
सुखजीवन पहला हिंदू था जो काबुल का सूबेदार बना।वो भी अब्दाली के ज़माने में। जिसे कट्टरपंथी माना जाता है। सुखजीवन ने काबुल की सूबेदारी ईमानदारी से सम्भाली।
कुछ दिनों बादअब्दाली ने सन 1758 में दिल्ली से कश्मीर छीन लिया।वहां मैनेजमेंट की जरूरत पेश आई। इस नए जीते हुए परदेस में बहुत ही क़ाबिल और सुलझे हुए सूबेदार की जरूरत थी लिहाज़ा अब्दाली ने सुखजीवन महाजन को याद किया।
कश्मीर का सूबेदार बनते ही सुखजीवन अपनी मदद के लिए बहुत-से क़ाबिल ब्राह्मणों (पंडितों) को लेकर कश्मीर चला गया। ये 1758 की बात है। यही से कश्मीरी पंडितों की कहानी शुरू होती है।
अब्दाली फिर पंजाबियों और मराठाओं से लड़ने में मशरूफ़ हो गया। अब्दाली मराठाओं से पानीपत की ऐतिहासिक जंग जीता। ऐसे में चार साल बाद 1762 में मौका मिलते ही सुखजीवन ने बगावत कर दी और खुद को कश्मीर का स्वतंत्र राजा घोषित कर दिया। 
उसने कश्मीर से सारे अफगान पठानों को मार भगाया। सुखजीवन को अपनी स्वतन्त्रता घोषित करने के सम्बंध में कश्मीर के सभी ब्राह्मणों और मुसलमानों का समर्थन हासिल था क्योंकि कश्मीरी हिन्दू-मुसलमान हिंदुस्तान के नजदीक रहना पसंद करते थे। सुखजीवन महाजन भी पंजाब सियालकोट से था इसलिए कश्मीरी उसे अपना हिंदुस्तानी भाई मानते थे।
सुखजीवन महाजन की हरकत का पता लगते हीअब्दाली ने अपने जाँबाज सेनापति नूरुद्दीन को कश्मीर हमला करने भेजा। सुखजीवन अब्दाली की सेना के आगे टिक नहीं सका और जंजीरों में जकड़कर अब्दाली के सामने हाज़िर किया गया।
भरे दरबार में अब्दाली ने नमकहरामी करने वाले सुखजीवन को खूब खरीखोटी सुनाई। दोनों में गर्मागर्म बहस हुई। सुखजीवन की नमकहरामी से अब्दाली नाराज और ग़मज़दा हुआ।
फिर अब्दाली का इशारा पाते ही 2 अफगानी जल्लाद सुखजीवन की छाती पर सवार हो गए और उसकी दोनों आंखें निकालकर उसके ज़िस्म के टुकड़े-टुकड़े कर दिए
जिन पंडितों /ब्राह्मणों ने सुखजीवन का साथ देकर अब्दाली से बगावत की थी। अब्दाली ने उन पंडितों से चिढ़कर उनका क़त्ल करवा दिया। इस हादसे से अब्दाली को कश्मीरी पंडितों से चिढ़ हो गई। कश्मीर में तब तक कुछ हज़ार ही पंडित बच पाए थे बाकी जातियाँ तो इस्लाम में घुल-मिल गई थी। कश्मीर में पंडित असुरक्षित महसूस करने लगे। कश्मीर से उनका पलायन होने लगा।
अब्दाली ने कश्मीर में ब्राह्मणों के खिलाफ जो जेहाद छेड़ा उसके नतीजे में कश्मीर घाटी में हिंदू आबादी गायब-सी हो गई। औसत दर 10 से 5 फ़ीसदी हो गई। जब तक कश्मीर अफगानों के हाथ में बना रहा यही हालात रहे।
बरसों बाद अब्दाली के पोते शाह शुजा को जब कश्मीर में कैद कर लिया गया तब उनकी बेग़म ने पंजाब के शेर महाराजा रणजीत सिंह को कोहिनूर का लालच दिया कि मेरे शौहर को आज़ाद करा दो मैं आपको बेशक़ीमती कोहिनूर तोहफ़े में दूँगीपंजाब के शेर के हाथ सुनहरी मौका लगा।
कोहिनूर और कश्मीर दोनों रणजीत सिंह की किस्मत में लिखे थे। लिहाज़ा कश्मीर वापस हिंदुस्तान के हिस्से में आ गया और बेशक़ीमती कोहिनूर महाराज रणजीत सिंह की झोली में।
अब कश्मीर फिर हिंदुस्तान में था।कश्मीरी पंडितों ने दौबारा चैन की सांस ली।

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