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*इतिहासनामा : पाश्चात्य ज्योतिष*

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        ~ पवन कुमार ‘ज्योतिषाचार्य’

 प्राचीन समय में बाबुल लोगों (बेबिलोनियनों) का ज्योतिष ज्ञान बहुत बढ़ा-चढ़ा हुआ था। ये लोग टाइग्रिस और यूफटीज नदी के मध्य की तथा समीपवर्ती भूमि में रहते थे। उन्हीं से यवनों (अर्थात ग्रीस देश के निवासियों) को ज्योतिष की प्रारंभिक बातों का ज्ञान हुआ।

    इतना निश्चित है कि तारा-मंडलों में मारों का विभाजन यवनों मे बाबुलों ने पाया। ग्रहों का ज्ञान भी उन्हें बालों से मिला बाबुलों ने ग्रहणों की भविष्यवाणी करने के लिए सैरॉस नामक युग का आविष्कार किया था। यह २२३ चांद्र मासों का (लगभग १८ वर्ष ११ दिन का होता है।

  ऐसे एक युग के ग्रहण आगामी युग में उसी फन में और प्रायः ठीक उतने ही समयों पर होते हैं। इस युग का आविष्कार कब हुआ यह अब कहा नहीं जा सकता, परंतु एक राजा के समय के लेखों से स्पष्ट हो जाता है फिरून ३८०० ईसवी पूर्व में तारा मंडलों के नाम पड़ गये थे, यद्यपि उनमें थोड़ा- बहुत परिवर्तन होता रहा। यवनों को तारा मंडलों का जो ज्ञान मिला और जिसे ऐरेटस नामक कवि ने छंदबद्ध किया अवश्य ही ऐसे तारा- मंडलों का है जो लगभग २८०० ई० पू० में देखे गये होंगे।

     इसका प्रमाण यह है कि जिन तारा-मंडलों का नाम पूर्वोक्त सूची में नहीं है अवश्य ही वे तारा- मंडल होंगे जो उस देश से नहीं दिखायी पड़ते थे। इस प्रकार हम जानते हैं कि तारों का कौन-सा क्षेत्र वहाँ नहीं दिखायी पड़ता था।  दक्षिण ध्रुव रहा होगा। इसलिए हम जानते हैं कि उस समय दक्षिण ध्रुव तारों के बीच कहाँ रहा होगा।

     अब देखने की बात है कि दक्षिण ध्रुव और उत्तर ध्रुव भी तारों के बीच अयन के कारण चला करते हैं और तारों के सापेक्ष उनकी स्थिति जानने से हम बता सकते हैं कि पूर्वोक्त स्थिति किस काल में रही होगी। ऐसे ही विचारों से ऐरेटस के वर्णन से तारामडलों के बनने का काल निर्णय किया गया है।

    ऐरेटस ने २७० ई० पू० में अपने छंद लिखे थे, परंतु तारा मंडलों का विभाजन निस्संदेह लगभग २८०० ई०पू० का है और ४०° अक्षांश के देश में बना है।

*बाबुल में ज्योतिष :*

   मिट्टी के कुछ खपड़े मेसोपोटेमिया (बाबुलों के देश का आधुनिक नाम) से मिले हैं जिन पर तरह-तरह की बातें लिखी हुई हैं। इन्हें पड़ने में भाषा-वैज्ञानिको ने सफलता पायी है। उन खपड़ों से पता चलता है कि दूसरी शताब्दी ई० पू० में मेसोपोटेमिया में ज्योतिष का कितना ज्ञान था। उस समय वहाँ के ज्योतिषियों को ज्ञात था कि शुक्र, बुध, शनि, मंगल और बृहस्पति अपने पुराने स्थान पर श्रमानुसार ८, ४६, ५९, ७९, ८३ वर्षों में लौटते हैं।

    इन युगों की लंबाई से ही स्पष्ट है कि बाबुल लोग सैंकड़ों वर्ष पहले से ही ग्रहों का नियमित रूप से वेध करते रहे होंगे। प्रति वर्ष पंचांग (खपड़ों पर खुदे अक्षरों में) प्रकाशित किया जाता था, जिसमें अमावस्या का दिनांक दिया जाता था, और यह भी कि चंद्र-दर्शन कब होगा; ग्रहणों का दिनांक और ब्योरा भी पहले से बता दिया जाता था; तारों का उदय अस्त और ग्रहों की स्थितियाँ भी प्रकाशित होती थीं।

      उनका नाक्षत्र वर्ष सच्चे मान से कुल ४३ मिनट अधिक था। पादरी एफ एक्स ० क्यूगलर ने एक महत्वपूर्ण बात का पता लगाया है कि बाबुलों के चांद्र मास आदि का काल ठीक उतना ही था जितना प्रसिद्ध यवन ज्योतिषी हिपार्कस का, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि हिपाकंस ने इनका ज्ञान वस्तुतः बाबुलों से पाया था; वह इनका स्वयं आविष्कारक न था।

 वैविलोनिया से ज्योतिष का ज्ञान ग्रीस में लगभग सातवीं शताब्दी ई० पू० में अच्छी तरह पहुँचा। लगभग ६४० ई० पू० में एक बाबुल विद्वान ने कोस द्वीप में पाठशाला खोली और थेल्स नामक यवन संभवतः उसका शिष्य था। पाइथागोरस ने (लगभग ५३० ई० पू० में) बँबिलोनिया, मिस्र देश और भारतवर्ष आदि देशों में पर्यटन करके, तथा निजी खोज से ज्योतिष तथा गणित का विशेष ज्ञान प्राप्त किया।

     यह वही गणितज्ञ है जिसके नाम से पाइथागोरस का प्रमेय प्रसिद्ध है—ज्यामिति का यह प्रमेय बताता है कि समकोण त्रिभुज में कर्ण पर बना वर्ग दोष भुजाओं पर बने वर्गों के योग के बराबर होता है। पाइथागोरस का मत था कि पृथ्वी अंतरिक्ष में बेलाग टिकी है, अन्य किसी पिंड या पदार्थ या जीव पर आश्रित नहीं है। उसके शिष्यों की पुस्तकों से प्रत्यक्ष है कि वे यह मानते थे कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती रहती है।

     अरिस्टार्कस का (लगभग २८०-२६४ ई० पू० में) सिद्धांत या कि सूर्य स्थिर है और पृथ्वी तथा अन्य ग्रह उसकी परिक्रमा करते हैं, परंतु आर्किमिडीज ने इस सिद्धांत को भ्रमपूर्ण बताया। यूडॉक्सस ने (४०८-३५५ ई० पू० में) इसका भी प्रायः शुद्ध सिद्धांत बनाया कि क्यों ग्रह बराबर एक दिशा में चलने के बदले आगे-पीछे चलते हैं।

     कुछ अन्य ज्योतिषियों ने इसमें थोड़ा-बहुत संशोधन किया, परंतु इस विषय पर अपोलोनियस (लगभग २५०-२२० ई० पू० में) वह सिद्धांत बना लिया था जो सूर्य सिद्धांत में भी है और अपोलोनियस के समय से लगभग १८०० वर्षों तक ठीक समझा गया। अरिस्टिलस और टिमोरिस ने (लगभग ३२०-२६० ई०पू० में) तारों की स्थितियाँ नाप कर तारा-सूचियाँ बनायीं। अरिस्टार्कस ने सूर्य और चंद्रमा की दूरियों का अनुपात जानने की भी एक रीति का वर्णन किया जो सिद्धांततः ठीक है परंतु प्रयोग में बहुत अच्छा परिणाम नहीं देता।

     एरॉटॉसथिनिज ने रविमार्ग और वियुक्त के बीच के कोण को नापा और उसकी नाप में कुल ५ कला की अशुद्धि थी। उसने पृथ्वी के व्यास की भी गणना दो स्थानों से ध्रुव के उन्नतांशों को नाप कर किया l।

*हिपार्कस :*

   इसमें संदेह नहीं कि यवन ज्योतिषियों में सबसे महान हिपाकंस और टालमी थे। हिपार्कस का जन्म कब हुआ या मृत्यु कब हुई इसका ठीक पता नहीं हैं, परंतु उसका काल लगभग १४६-१२७ ई० पू० था। उसकी गणना प्रसिद्धतम प्राचीन ज्योतिषियों और गणितज्ञों में होती है। उसका जन्म स्थान नीशिया था।

     १६१ से १४६ ई० पू० में वह अलेक्जेंडिया’ में ज्योतिष वेध किया करता था और उसके पहले अपनी जन्मभूमि में उसकी पुस्तकें अब अधिकांश लुप्त हो गयी है। परंतु हमें उसके विषय में जानकारी स्ट्रेबो ( प्रथम शताब्दी ई० पू०) और मिश्र के महान ज्योतिषी टालमी के लेखों से प्राप्त होती है।

     टालमी ने अपनी पुस्तक सिनटैक्सिस में बार-बार हिवास की चर्चा की है और कई स्थानों पर तो हिपार्कस के वाक्यों का ज्यों-का-त्यों उद्धरण दिया है। सिनटैक्सिस का नाम पीछे ऐलमैजेस्ट पड़ गया, क्योंकि अरब वाले इसे अल मजस्ती कहते थे। यह ग्रंथ कोपरनिकस (१४७३-१५४३ ई०) और केपलर (१५७१-१६३० ई०) के समय तक वेद-पुराण की तरह अकाट्य समझा जाता था, और इसी से यह सुरक्षित रह गया।

     टालमी ने हिपार्कस की बड़ी प्रशंसा की है और सदा बताने की चेष्टा की है कि कितनी बातें उसे हिपार्कस से मिलीं, परंतु बहुत से स्थानों में संदेह बना ही रह जाता है कि कितना अंश हिपार्कस से मिला और कितना स्वयं टालमों का नया काम है। जान पड़ता है कि हिपाकंस ने कई एक छोटी-छोटी पुस्तिकाएं फुटकर विषयों पर लिखी थीं, परंतु संपूर्ण ज्योतिष पर किसी ग्रंथ की रचना नहीं की थीं। इसके विपरीत सिनटॅक्सिस में सब बातों का पूरा विवेचन था, ज्योतिष राशियों के मान पहले से बहुत अच्छे थे, और पुस्तक बहुत अच्छे ढंग से लिखी गयी थी।

      संभवतः इसी कारण से हिपाकंस की कृतियों का आदर कम हो गया और समय पाकर वे लुप्त हो गयीं । टालमी हिपार्कस के लगभग ३०० वर्ष बाद हुआ था। ज्योतिष के प्रमुख प्रश्नों के उत्तर हिपाकंस ने दे दिये थे। टालमी ने उनको परिष्कृत किया, त्रुटियों की पूर्ति की और नवीन सारणियाँ बनायीं।

हिपाकंस ने ज्योतिष के प्रमुख ध्रुवांकों को निर्धारित कर दिया था, जैसे सायन और नक्षत्र वर्षों की लंबाइयाँ, चांद्रमास की लंबाई, पाँचों ग्रहों के संयुति-काल, रवि- मार्ग की तियंयता (तिरछापन) जिसे प्राचीन भारत के ज्योतिषी परम क्रांति कहते थे, चंद्रमार्ग की तियंवता, सूर्य-कक्षा का मंदोच्च (जहाँ सूर्य हमसे दूरतम रहता है), सूर्य-कक्षा की उत्केंद्रता (अथवा चिपटापन), चंद्रमा का लंबन (अथवा दूरी); और इन सभी राशियों के मान प्रायः ठीक थे।

      अवश्य ही उसने बहुत-सी बातें बाल्दी’ (कैल्डियन) लोगों से सीखी थी, परंतु स्पष्ट है कि उसने स्वयं इन राशियों को नापा था और कई एक के नवीन तथा अधिक सच्चे मान दिये थे। हिपाकंस गोले पर तारों (नक्षत्रों) का चित्र बनाकर उनका अध्ययन करता था। इस गोले को हम खगोल कहेंगे। तारा-मंडलों के वर्णन में जो नवीन बातें हिपाकंस ने बतायीं कौन-सा तारा किन तारों के सीध में है; किस तारा-मंडल की आकृति किस प्रकार की है; इत्यादि सब खगोल देखकर बताये हुए जान पड़ते हैं।

     इसकी विशेष संभावना जान पड़ती है कि हिपार्कस किसी-न-किसी प्रकार के याम्योत्तर यंत्र का प्रयोग करता था। आधुनिक याम्योत्तर यंत्र में एक दूरदर्शी इस प्रकार आरोपित रहता है कि वह केवल याम्योत्तर【’शिरोबिंदु और उत्तर तथा दक्षिण विदुओं से जमाने वाले समतल को याम्योत्तर कहते हैं】में चल सके।आधुनिक वेवशालाओं का यह प्रधान यंत्र है।

     अवश्य ही हिपार्कस के याम्योत्तर यंत्र में दूरदर्शी के बदले केवल सरल नलिका रही होगी। हिपार्कस ने बहुत से वेघ किये जो इतने शुद्ध थे कि आश्चर्य होता है कि कैसे उन यंत्रों से वह इतनी सूक्ष्मता प्राप्त कर सका। उसने सूर्य और चंद्रमा की गतियों का प्रायः सच्चा सिद्धांत बना लिया था, परन्तु ग्रहों के कभी आगे, कभी पीछे, चलने के सिद्धांत में पूरी सफलता नहीं पायी थी। उसके काम को टालमी ने पूरा किया। हिपाकंस ने भी बरिस्टार्कस की यह बात नहीं मानी कि सूर्य निश्चल है और पृथ्वी तथा ग्रह उसकी प्रदक्षिणा करते हैं।

*अयन का आविष्कार :*

     हिपाकंस के आविष्कारों में से निस्संदेह अयन का पता लगाना अत्यंत महत्त्व- पूर्ण था। जब वसंत ऋतु में दिन रात बराबर होते हैं तब खगोल पर तारों के बीच सूर्य की स्थिति को वसंत विषुव कहते है।

     वसंत विषुव तारों के बीच स्थिर नहीं रहता—वह चलता रहता है; इसी चलने को अयन कहते है। जब हिपार्कस ने अपने बेघों को तुलना टिमोकैरिस के वेधों से की तो उसे तुरंत पता चल गया कि अवश्य ही वसंत विषुव पीछे मुंह (अर्थात सूर्य के चलने से उलटी दिशा में चलता रहता है। वसंत विषुव के सापेक्ष सूर्य के एक चक्कर लगाने को सायन वर्ष कहते है, तारों के सापेक्ष एक चक्कर लगाने को नाक्षत्र वर्ष कहते हैं। दोनों में २० मिनट २३ सेकंड का अन्तर है।

     हिपार्कस को इन दोनों वर्षों का भेद ज्ञात था । भार- तीय ज्योतिषियों को इनका भेद ७०० वर्ष पीछे वराहमिहिर के समय में भी ज्ञात नहीं हुआ। वस्तुतः, भारत के अधिकांश पंचांग आज भी सावन वर्ष की अवहेलना करते हैं।

     अयन के कारण वसंत विषुव का स्थान बहुत धीरे-धीरे ही बदलता है। वसंत विषुव आकाश का एक चक्कर लगभग २६००० वर्षों में लगा पायेगा। सूर्य के व्यास के बराबर (अर्थात लगभग बाघा अंश) हटने में वसंत विषुव को लगभग ३६ वर्ष लग जाता है। यही कारण है कि अयन का पता लगाना कठिन है।

     हिपार्कस ने टिमोकॅरिस और अपने वेबों की तुलना से अयन का आभास तो पा लिया, परंतु उसे पूर्ण विश्वास तभी हुआ जब उसने और भी पुराने, खाल्दी लोगों के, वेधों से अपने वेधों की तुलना की। उसने अनुमान किया कि वसंत विषुव एक वर्ष में ३६” (छत्तीस विकला) है, परंतु वस्तुतः यह एक वर्ष में लगभग ५०” चलता है।

     हिपार्कस ने तारों की सूची भी बनायी जिसमें लगभग ८५० तारों का उल्लेख था और इसमें प्रत्येक तारे की स्थिति भोगांश (लॉजिट्यूड) और शर (लॅटिट्यूड) देकर बतायी गयी थी। इस सूची का उद्देश्य संभवतः यह रहा होगा कि यदे कोई नवीन तारा कभी दिखायी पड़े तो उसका निश्चित पता चल सके, क्योिं हिपाकंस के समय में वृश्चिक राशि में एक नवीन तारा वस्तुतः दिखायी पड़ा था, जिसका उल्लेख चीन के ज्योतिषियों ने किया है (१३४ ई० पू०)।

    हिपार्कस की सूची को, थोड़ा-बहुत संशोधन करके, टालमी ने प्रकाशित किया। हिपार्कस ने कोणों की जीवाओं के भी मान दिये थे【जीवा और ज्या का संबंध यह है कि जीवा थ २ ज्या १/२थ ।】

    उसके गणितीय तथा भौगोलिक कार्यों के विवेचन की यहाँ आवश्यकता नहीं जान पड़ती।

*टालमी :*

टालमी अलेक्जेंड्रिया (मिश्र देश) का निवासी था। उसका पूरा नाम क्लों- डियस टॉलिमेइयस था, जो अंग्रेजी में संक्षिप्त होकर टालमी हो गया है। वह प्रसिद्ध ज्योतिषी, गणितज्ञ और भौगोलिक था।

     उसके जन्म अथवा मृत्यु- काल का ठीक पता नहीं है, परंतु एक प्राचीन यवन लेखक के अनुसार उसने टालेमेइस हरमाई नामक यवन नगर में जन्म लिया था। इतना अच्छी तरह ज्ञात है कि वह सन १२७ ईसवी से सन १४१ या १५१ ई० तक वेध करता रहा । अरबी लेखकों के अनुसार टालमी ७८ वर्ष की आयु में मरा । यहां टालमी के गणित और भूगोल विषयक कार्यों पर विचार न किया जायगा।केवल उसके ज्योतिष संबंधी कार्यों पर संक्षेप में विवेचन किया जायगा।

     हिपार्कस ने समतल और गोलीय त्रिकोणमिति के कुछ प्रमेयों का आविष्कार किया था और उसने ज्योतिष के सिद्धान्तों की उत्पत्ति में सहायता ली थी। टालमी ने इस विषय का ऐसा पूर्ण और दोषरहित विवेचन दिया कि लगभग १४०० वर्षों तक कोई दूसरा लेखक उसके आगे न बढ़ सका।

    आकाशीय पिंडों के चलने का टालमीय सिद्धान्त भी इसी प्रकार लगभग इतने ही समय तक सर्वमान्य बना रहा। टालमी की गणितीय तथा ज्योतिष कृतियाँ जिस पुस्तक में एक साथ छपी हैं उसका नाम यवनों ने मैथमेटिके सिनटैक्स रक्खा, जिसका अर्थ है गणित-संहिता।

     अरब वालों ने प्रशंसापूर्ण नाम खोज कर इसे मजस्ती कहा जिसमें वे अरबी उपसर्ग अल लगा दिया करते थे । इसी से इस पुस्तक का नाम अंग्रेजी तथा कई अन्य यूरोपीय भाषाओं में अलमैजेस्ट पड़ गया। सिनटैक्सिस इसका अर्थ हुआ ग्रंथराज।

*सिनटैक्सिस :*

सिनटॅक्सिस अर्थात अलमंजेस्ट के प्रथम खंड में पृथ्वी, उसका रूप, उसका बेलाग स्थिर रहना, आकाशीय पिंडों का वृत्तों में चलना, कोण जीवाओं की गणना करने की रीति, कोण जीवाओं की सारणी, रविमार्ग की तियंक्ता, उसे नापने की रीति, और फिर ज्योतिष के लिए आवश्यक समतल तथा गोलीय त्रिकोणमिति और अंत में रेखांश तथा भोगांश से विषुवांश तथा क्रांति जानने की रीति और आवश्यक सारणी, ये सब बातें दी हुई हैं।

     खंड २’ में खगोल संबंधी कुछ प्रश्नों का उत्तर है, जैसे किसी अक्षांश पर महत्तम दिनमान क्या होगा, इत्यादि। खंड ३ में वर्ष की लंबाई और सूर्य कक्षा की आकृति आदि की गणना विधि का विवेचन है, जिसमें सिद्धांत मुख्यतः यह है कि सूर्य ऐसे वृत्त में चलता है जिसका केन्द्र किसी अन्य वृत्त पर चलता है।

     इस खंड के प्रथम अध्याय में टालमी ने यह भी बताया है कि सिद्धांत ऐसा होना चाहिए जो सरलतम हो और वेध प्राप्त बातों के विरुद्ध न हो, और ऐसे वेधों में जिनमें सूक्ष्मता की आवश्यकता है उन वेधों को चुनना चाहिए जो दीर्घ कालों पर लिये गये हों; इससे वेघों की त्रुटियों का विशेष दुष्परिणाम न पड़ेगा।

     खंड ४ में चांद्र मास की लंबाई और चंद्रमा की गति बतायी गयी है। खंड ५ में ज्योतिष यंत्र की रचना, सूर्य तथा चंद्रमा के व्यास, छाया की नाप, सूर्य की दूरी आदि विषय हैं l। खंड ६ में चंद्रमा और सूर्य की युतियों तथा ग्रहणों पर विचार किया गया है।

    खंड ७ और ८ में तारों तथा अयन पर विचार किया गया है। खंड ७ में उत्तरी तारा-सूची है और खंड ८ में दक्षिणी तारा-सूची। दोनों में कुल मिलाकर १,०२२ तारे दिये गये हैं। प्रत्येक तारे के भोगांश और शर बताये गये हैं, और चमक भी। खंड ८ में आकाशगंगा का भी वर्णन है। खंड ९ से १३ तक में ग्रह संबंधी बातें बतायी गयी हैं।

*सिनटैक्सिस के भाष्य :*

   सिनटॅक्सिस पर कई भाष्य लिखे गये हैं। पंपियस की यवन भाषा में लिखी टीका (जो केवल खंड ६ और अंशतः खंड ५ पर हैं ) अब भी प्राप्य हैं। अलेक्जें- ट्रिया के थियन का भाष्य ग्यारह खंडों में है।

    थियन लगभग सन ४०० ई०  में था, परंतु उसकी पुस्तक १५३८ ई० में प्रकाशित हुई। सन ८२७ में सिनटॅक्सिस का उल्था अरबी भाषा में किया गया। इसके बाद कई नवीन अरबी अनुवाद हुए और इनमें से एक अनुवाद का लैटिन अनुवाद सन १९७५ में हुआ। यवन भाषा से लैटिन अनुवाद १४५१ में हुआ। हाइवर्ग ने टालमी की कृतियों का प्रामाणिक संस्करण १८९९-१९०७ में प्रकाशित कराया।

      इसके पहले कई संस्करण और अनुवाद छप चुके थे, जिनका ब्योरा इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में मिलेगा। एक जरमन अनुवाद १९१२-१३ में छपा।

   अलमैजेस्ट यवन ज्योतिष का उच्चतम शिखर था। टालमी के बाद डेढ़ हजार वर्ष तक कोई बड़ा ज्योतिषी हुआ ही नहीं; केवल भाष्यकार हुए।

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