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घर वापसी

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दोष उनका नहीं
नितांत अपना है
मावस को
कभी पूनम
होने नहीं दिया

खुले आसमान तले रहा तो रहा
कार्डबोर्ड का
एक घर तक बनने नहीं दिया

अब न पाठक हैं
न समीक्षक
फूल रोज
रोज की तरह जरूर खिलता है
और अदेखा जहां तहां झड़ता रहता है
पखवाड़े तक गंभीर चर्चा चलती है
हिंदी में हस्ताक्षर की औपचारिकता पूरी ईमानदारी से पूरी होती है
और फिर लंबी शीत निद्रा के उदास दौर में सब सो जाते है
बात नार्वे तो दूर दिल के करीब
दिल्ली तक पहुंचते पहुंचते रह जाती है

आदतन सुबह का अखबार
बाहर फेंका का फेंका रह जाता है
दीवार पर टंगा टीवी न जाने कब से बंद
किसी चैनल के खुलने के इंतजार में है
शहर का यह बेढब तौर तरीका
तस्तरी के चमच और कांटों बीच आज भी फंसा है

फिर भी अपना बीपी
मैं रोज जांचता हूं
और सामान्य पाता हूं
नमक खाने की पूरी छूट है
और चाय तो चाय है

नर्सरी के हरे पौधे देख कर
रश्क जरूर होता है
जंगल का ही सही
आखिर मैं भी आदमी हूं
लेकिन ईंट और सीमेंट की
दीवार पर उगने के अपने मजे हैं
इस तरह पूरी दुनिया नजर में रहती है

मेरे शिकार में हरा सांप
केसरिया गिरगिट दोनों शामिल हैं
और यही मेरे सुबह शाम का पौष्टिक आहार है

किला जितना भव्य
दिवाली कितनी भी दिव्य क्यों न हो
मेरी अयोध्या की घर वापसी
नामुमकिन है
जल समाधि की कायरता मैं दुहरा नहीं सकता

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