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‘गोदान’ का होरी अब बीमारी से नहीं मरता ! आत्महत्या करता है !

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-श्रवण गर्ग 

मुंशी प्रेमचंद की जयंती के अवसर पर कवि-पत्रकार मित्र ध्रुव शुक्ल ने कथा सम्राट के विशाल रचना संसार से ढूँढकर कुछ सवाल ‘अपने आप से पूछने के लिए’ सार्वजनिक किए हैं।पूछे गए सवालों में एक यह भी है कि ‘गोदान के होरी का क्या हुआ ?’ उन्होंने यह भी जानना चाहा है कि हम प्रेमचंद को क्या जवाब देंगें ?

पिछले साल आज के ही दिन लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार विजयबहादुर सिंह के आमंत्रण पर विदिशा में पंडित ‘गंगाप्रसाद पाठक ललित कला न्यास’ द्वारा प्रेमचंद जयंती पर आयोजित एक संगोष्ठी में ‘पत्रकारिता और लोक समाज’ विषय पर बोलने का अवसर मिला था।अपनी बात प्रेमचंद के अंतिम उपन्यास ‘गोदान’ से प्रारम्भ की थी।प्रेमचंद ने यह अद्भुत उपन्यास अपने निधन से दो वर्ष पूर्व 1936 में लिखा था।उन्हें तब तक शायद आभास हो गया था कि आने आने वाले भारत में उनके होरी का क्या हश्र होने वाला है ! विदिशा संगोष्ठी में सिर्फ़ ‘गोदान’ को लेकर जो कहा था उसे संक्षिप्त रूप में पहली बार बाँट रहा हूँ (संगोष्ठी के मूल विषय पर जो विचार व्यक्त किए गए थे वे अतिरिक्त हैं।):

हम चाहें तो शर्म महसूस कर सकते हैं कि साल 1936 से 2021 के बीच गुजरे 85 सालों के बीच मुंशी प्रेमचंद द्वारा ‘गोदान’ में उकेरे गए पात्रों और उनके ज़रिए उठाए गए सवालों में कुछ नहीं बदला है।सिर्फ़ पात्रों के नाम ,उनके चेहरे और स्थान बदल गए हैं।शेष वैसा ही है।देश के जीवन में ग्रामीण भारत या तो ‘गोदान’ के समय जैसा ही है या और ख़राब हो गया है।पत्रकारिता और साहित्य के केंद्र में ग्रामीण के बजाय शहरी भारत हो गया है।

‘गोदान’ उपन्यास में प्रेमचंद का मुख्य पात्र होरी बीमार होकर मरता है, आज का होरी आत्महत्या कर रहा है। उसे सिंघु बॉर्डर पर बैठकर आंदोलन करना पड़ रहा है। वह पुलिस-प्रशासन की लाठियाँ और गोलियाँ झेल रहा है।क़र्ज़ में डूबकर जान देने वाले हज़ारों किसानों के चेहरों में होरी की शक्ल तलाश की जा सकती है। ‘गोदान’ में वर्णित ज़मींदार की भूमिका सरकारों ने ले ली है और तहसीलदार-पटवारी उसके वसूली एजेंट हो गए हैं।

अखबारी दुनिया में भी कुछ नहीं बदला है।’गोदान’ में उल्लेखित ‘बिजली’ पत्र के राय साहब जैसे मालिक-सम्पादक व्यवस्था में आज भी न सिर्फ़ उसी तरह उपस्थित हैं बल्कि ज़्यादा ताकतवर हो गए हैं। वे अब होरी की ही तक़दीर नहीं सरकारें बनाने-गिराने की हैसियत में पहुँच गए हैं। ‘गोदान’ की ही तरह सौ या हज़ार ग्राहकों का चंदा भरकर या विज्ञापनों के दम पर आज भी खबरें ‘गोदान’ की तरह रुकवाई-छपवाई जा सकतीं हैं। धर्म और सत्ता की राजनीति के बीच हुई साँठगाँठ ने पत्रकारिता को विज्ञापन और चंदा वसूल करने की मशीन में तब्दील कर दिया है।होरी की मौत मीडिया की नज़रों से ग़ायब है। किसानों को बाँटे जाने वाले नक़ली बीजों और उर्वरकों की तरह ही नक़ली खबरें भी राजनीति के ज़मींदारों के द्वारा राय साहबों के अख़बारों की मदद से जनता को बेची जा रहीं हैं।

मुंशी प्रेमचंद के ‘गोदान’ में जिस गाय की अतृप्त आस में होरी को अंतिम साँस लेना पड़ती है वह गाय इस समय सत्ता की साँस बन गई है।चिंता होरी के मरने की नहीं है ,गाय अगर छूट गई तो सत्ता की साँस उखड़ जाएगी।समूची राजनीति को होरी के जन-जल-जंगल-ज़मीन-जानवर से विमुख कर गाय-गोबर-गोमूत्र के चमत्कार में केंद्रित कर दिया गया है।

मुंशी प्रेमचंद को हम कुछ भी जवाब देने की स्थिति में नहीं बचे हैं।

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