~ अनामिका, प्रयागराज
कुण्डली का चौथा भाव हृदय है। यह हृदय साक्षात् ब्रह्म है।
“एष प्रजापतिर्यद् हृदयमेतद् ब्रह्मतत् सर्वं तदेतत्।
त्र्यक्षरं हृदयमिति ह।
इत्येकमक्षरमभिरन्त्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद।
द इत्येकमक्षरं ददत्यस्मै स्वाश्चान्ये च य एवं वेद।
यमित्येकमक्षरमेति स्वर्ग लोकं य एवं वेद।”
~बृहदारण्यक उपनिषद् (५।३।१)
एषः प्रजापतिः यद् हृदयम् एतद् ब्रह्म एतत् सर्वम् तद् एतत्। त्रि अक्षरम् हृदयम् इति। इति एकम् अक्षरम् अभिहन्ति अस्मै स्वः च अन्ये च यः एवम् वेद द इति एकम् अक्षरम् ददति अस्मै स्वः च अन्ये च यः एवम् वेद। यम् इति एकम् अक्षरम् एति स्वर्गम् लोकम् यः एवम् वेद।
जो हृदय है, वह प्रजापति है। यह ब्रह्म है। यह सर्व है। हृदय तीन अक्षर वाला है। ‘ह’ यह एक अक्षर है। जो ऐसा समझता है, उसके प्रति स्वजन और अन्य जन बलि समर्पण करते हैं। ‘द’ यह एक अक्षर है। जो ऐसा जातना है, उसे स्वजन और अन्यजन देते रहते हैं। ‘य’ यह एक अक्षर है। जिसे इसका ज्ञान है, स्वर्गलोक को वह जाता है।
“तद् वै तदेतदेव तदास सत्यमेव स यो हतं महद् यक्ष प्रथमजे वेद सत्यं ब्रह्मेति जयतीमाल्लोकाञ्जित इन्वसावसद्य एवमेतत् महद् यक्ष प्रथमजं वेद। सत्यं ब्रह्मेति सत्य होव ब्रह्म। “
(बृहदारण्यक उपनिषद् ५ । ४ । १)
तद् वै तद् एतद् एव तद् आस सत्यम् एव सः यः ह एतम् महद् यक्षम् प्रथमजम् वेद सत्यम् ब्रह्म इति जयति इमान् लोकान् जितः इत् नु असौ असत् यः एवम् एतत् महद् यक्षम् प्रथमजम् वेद। सत्यम् ब्रह्म इति सत्यम् हि एव ब्रह्म।
वही, वह हृदय ब्रह्म ही था जो कि सत्य है। जो भी इस महत् यक्ष प्रथमज को यह सत्य ब्रह्म है’ ऐसा जानता है, वह इन लोकों को जीत लेता है। सब कुछ उसके अधीन हो जाता है। उसका शत्रु असत् हो जाता है। इस प्रकार प्रथमोद्भूत इस महान् यक्ष को जो ‘सत्य ब्रह्म’ समझता है, वह निश्चय ही सत्य-ब्रह्म होता है।
यहाँ यक्ष का अर्थ है-पुरुष / चेतनतत्व। पुरुष/ इस प्रकार, कुण्डली में चतुर्थ भाव हृदय होने से साक्षात् सत्य है। यह सत्य ब्रह्म है। यही यक्ष/ चेतन पुरुष है। जो बसको जानता है, वह चतुर्थ भाव को जानता है। जो चतुर्थ भाव को जानता है, वह सुख को जानता है। सुख जानते ही वह समाधिस्थ हो जाता है।
“शेते सुखं कस्तु समाधिनिष्ठः।”
सुख से कौन सोता है ? समाधिस्य ।
~शंकराचार्य (प्रश्नोत्तरी, ४)
यह तीन अक्षरों वाला हृदय तीन सूत्रों वाले यज्ञोपवीत से स्पर्शायमान होता है अर्थात् तीन गुणों वाली मूलाप्रकृति से आवृत रहता है। मायाछन्न ब्रह्म को ईश्वर कहते हैं। कार्य भेद से यह ईश्वर तीन-ब्रह्मा, विष्णु, शिव है। हृदय के तीन अक्षरों में ये ही तीन अक्षर तत्व है। इस अक्षर तत्व को जो जानता है, उसे मेरा प्रणाम।
चतुर्थ भाव सुख है। सुख है, संत संग में। संत की महिमा का गान वेद करता है, तो और शास्त्रों की बात हो क्या?
“न सज्जनाद् दूरतरः क्वचिद् भवेत् भजेत साधून् विनयक्रियान्वितः ।”
~योग वसिष्ठ (निर्वाण प्रकरण उत्तरार्ध १८।३४)
संत से कभी दूर नहीं रहना चाहिये. विनयपूर्वक साधुजनों की सेवा सुश्रूषा करनी चाहिये। संत मात्र वह है जो सत्य में स्थित हो चुका है.
“सुलभी दुर्जनाश्लेषो दुर्लभः सत्समागमः।”
( योग वसिष्ठ वैराज्ञ प्रकरण २६।२२)
दुर्जनों का मिलना बहुत सुलभ है, सत्पुरुषों (संतों) का मिलना बहुत कठिन है।
“सकृत् सतां संगतं लिप्सितव्यं ततः परं भविता भव्यमेव।”
~महाभारत (उद्योगपर्व १०।२३)
एक बार संत का संग अवश्य करना चाहिये। उसके बाद तो फिर कल्याण होने वाला है।
“न चाऽफलं सत्पुरुषेण संगतम् ।”
(महाभारत वनपर्व २९७ / ३० )
“संसारेऽस्मिन् क्षणार्धोऽपि सत्संग: शेवधिर्नृणाम् ।”
~भागवत (११ । २ । ३० )
इस संसार में आधे क्षण का भी सत्संग मनुष्यों के लिये महान् निधि होता है ।।
रुनानाक कहते हैं :
“संत सरनि जो जनु परै, सो जनु उधरन हार।
संत की निन्दा नानका, बहुरि बहुरि अवतार ॥
~सुखमनी साहिब
मैं सब सन्तों की जय बोलता हूँ तथा कुण्डली में विद्यमान सन्त तत्व का सम्यक् निरुपण करता हूँ। कुण्डली में चौथा भाव सन्त स्थानहै। यह कैसे ? चौथा भाव सुख है। सुख का एक मात्र हेतु है-सत्वगुण। है जिसमें सत्व गुण की अतिशयता वा प्रधानता है, वह सन्त है। सहस्रनाम में, विष्णुः। सुखदः।
सृष्टि के विकासक्रम में सात्विक अहंकार से मन की उत्पत्ति होती है। मन ही ब्रह्म है (मनो वै सः) । सन्ततो ब्रह्म है हो। चौथा भाव मन है। अतः ब्रह्म सन्तः = मनः चौथा भाव हृदय है। सन्त का हृदय नवनीत समान होता है। हृदय में ब्रह्म का वास होता है। सन्त ब्रह्म स्वरूप है। इसलिये चौथा भाव सन्त है।
सुख का मूल सन्तोष है और दुःख का मूल उसके विपरीत है।
“सन्तोषमूलं हि सुखं दुःखमूलं विपर्ययः।”
~ महाभारत (वनपर्व २३३|४)
सन्तोष सर्वप्रथम स्वर्ग है तथा परम सुख है।
“संतोष व स्वर्गत संतोष परमं सुखम्।”
~महाभारत (शान्तिपर्व २१।२)
“यो वौ भूमा तत् सुखम्। नात्ये सुखमस्ति भूमैव सुखम्।भूमात्वेव विजिज्ञासितव्य इति। यदा वै सुखं लभते अथ करोति। नासुखं लब्ध्वा करोति। सुखमेव लब्ध्वा करोति। सुखं त्वेव विजिज्ञासितव्यमिति।”
~छान्दोग्योपनिषद् (७ |२३।१)
जो भूमा है वही सुख है। जो अल्प है वह सुख नहीं है।
भूमा (ब्रह्म) ही सुख है। इसलिये भूमा को जानने का यत्न करना चाहिये।
जब मनुष्य सुख पाता है, तभी काम करता है। वह दुःख प्राप्त कर काम नहीं करता। वह सुख पाकर ही कार्य करता है। अतः सुख को ही जिज्ञासा करनी चाहिये-सुख क्या है ? इसे जानने का प्रयत्न करना चाहिये.
सुख क्या है ?
“सर्वमात्मवशं सुखम्।”
~मनुस्मृति (४।१६०)
सुख के रहस्य को जो जानता है, वही चतुर्थ भाव का चक्षुष्मत है। चतुर्थ भाव के तल में उसी की दृष्टि जाती है जो विष्णु का चिन्तन करता है। तस्मै वैष्णवाय नमः।
कुण्डली में चौथा भाव जातक के आवास निवास स्थान से संबंध रखता है। इस प्रकार, यह भाव गृह स्थान / गृह सुख का प्रतीक है। लग्न को भी गृह कहते हैं। किन्तु इस गृह का अर्थ है-शरीर। शरीर में आत्मा का निवास रहता है। अतः यह शरीर आत्मा का घर है। यह शरीर, मन्दिर नाम से अभिहित होता है। मन् + इदिर शरीर में मन वसता है। अतः यह मन्दिर है। इस शरीर के रहनेके लिये स्थान की आवश्यकता होती है। यह शरीर जहाँ रहे सोये, जागे, खाये, पिये तथा अन्य क्रिया कलाप करे, वह इसका आवास है, निवास है, भवन है, प्रासाद है, मन्दिर है, गृह है। शरीर (लग्न) से चौथा स्थान सुख है। अतएव सुख स्थान ही निवास / घर है। वास्तु देवता को प्रसन्नता अप्रसन्नता अर्थात् गृह सुख की प्राप्ति अप्राप्ति का विचार इस चतुर्थ भाव से करना चाहिये। जातक किस प्रकार के घर में रहेगा, कैसा घर बनवायेगा, उसके भाग्य में घर का सुख है कि नहीं इन सब प्रश्नों का उत्तर चतुर्थ भाव को देख-परख कर दिया जाता है।
घर का निर्माण स्त्री के लिये किया जाता है। बिना घर के स्त्री सुख क्षीण होता है। बिना ली के घर में सुख नहीं मिलता।
“न गृहं गृहमित्याहुः गृहिणी गृहमुचयते।”
~महाभारत (शांतिपर्व १४४।६ )
गृह को गृह नहीं कहा जाता, गृहिणी को ही गृह कहा जाता है।
“वृक्षमूलेऽपि दयिता यदि तिष्ठति तद् गृहम्।”
~पंचतंत्र (४। ७४ )
यदि वृक्ष के नीचे भी अपनी प्रियतमा हो, तो वही गृह।
इन दो कथनों से यह स्पष्ट हो जाता है कि गृह गृहिणी एवं सुख में अन्योन्याश्रय संबंध है। अर्थात् गृह से सुख है, गृहिणी से सुख है, सुख के लिये घर है, सुख के लिये गृहिणी है, गृहिणी के लिये गृह है। गृहिणी के लिये सुख है। जो इस त्रिकोण को सम्यक रूप से समझता है, वह गृहस्थ है। ऐसे घर में जो पुरुष रहे, वह गृहस्थ है। गृहे स्थितः पुरुषः हि गृहस्थः। गृहस्थाश्रमी के लिये गृह की अनिवार्यता है। जिस गृहस्थ के पास अपना घर है, वह धन्य है। अपने घर में किया गया यज्ञादि कर्म पूर्ण फलप्रद होता है।
“गृहाश्रमः कर्मक्षेत्रं यस्मिन्नहि कर्माण्युत्सीदन्ति यदयं कामकरण्ड एवं आवसथ:।”
~भागवत (५।१४।४)
गृहाश्रम वह कर्म क्षेत्र है, जिसमें कर्म कभी समाप्त नहीं होते। क्योंकि यह आश्रम कामनाओंका पिटारा होता है।
ग्रह + क= गृहम्। गृह्णति गृहमिति । जो पकड़ता है, कसकर पकड़ता है. थामता है, बाहर जाने से रोकता है, छोड़ता नहीं उसे गृह कहते हैं।
“गृणाति पुरुष यस्मात् गृहं तेन प्रकीर्तितम्।”
~देवी भागवत (१ । १४ । ५३)
गृहपति/ गृहस्थ को हो गृहमेधिन कहा गया है। ब्रह्मचर्याश्रम के पश्चात् विवाहित जीवन बिताने वाला घर का स्वामी/यजमान/आतिथ्यादि कर्मों का सम्पादन करने वाला गृहमेधिन है।
“गृहस्थस्थ परं क्षेत्रं गृहमेधिन् गृहा इमे।”
~श्रीमद् भागवत महापुराण (८।१६।११ )
ये घर गृहस्थों के लिये सर्वोत्तम कर्मक्षेत्र हैं। यह गृहस्थ सब धर्मो का मूल है.
“गृहस्थस्त्वेष सर्वेषां धर्माणां मूलमुच्यते।”
~महाभारत (शांतिपर्व २३४ । ६)
गृहस्वामी सब से श्रेष्ठ माना जाता है। क्योंकि वह इन तीनों (ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी, संन्यासी) का भरण-पोषण करता है।
“गृहस्थ उच्यते श्रेष्ठ: स त्रीनेतान् बिभर्ति हि।”
~मनुस्मृति (६ । ८९ )
√•समस्त प्राणियों के हित की कामना करना, यही गृहस्थ का धर्म है।
“‘कुगेहिनीं प्राप्य गृहे कुतः सुखम् ?”
~नीतिवचन.
वे गृहस्थ धन्य हैं, जो गृह और गृहिणी से युक्त होकर सुखी हैं। जिस गृहस्थ के घर का आँगन यज्ञ की वेदी से युक्त हो तथा जिसके आँगन वा भोजन कक्ष में ब्राह्मण अतिथि भोजन करते हों, वह धन्य मैं उसे प्रणाम करता हूँ।
जिस गृहस्थ के घर के बैठक / स्वागत-सभा कक्ष में सामने मुखरूपी मुख्य द्वार हो, अगल-बगल कान रूपी दो अतिरिक्त द्वार हों, पीछे कण्ठ रूपी अन्तः द्वार भोजन कक्ष/ आँगन की ओर खुलता हो तथा जिसमें नासा छिद्र रूपी दो वातायनएवं चक्षु रूपी दो गवाच्छ हों, वह गृहस्थ महान् है। मैं ऐसे गृहस्थ को नमस्कार करता हूँ।
सभा/ वार्ता कक्ष गोलाकार होता है, कपाल की तरह। इसकी छत भी सपाट/ समतल न होकर वर्तुल होनी चाहिये। जैसे कपाल में शिखा रखी जाती है, वैसे ही इस वर्तुलाकार छत के ऊपर ध्वज फहराते रहना चाहिये। ऐसे वैष्णव चिह्नित ध्वज वाले गृहस्थ के स्वागत कक्ष में आने वाले विद्वानों को मैं नमन करता हूँ।
चौरासी लाख योनियों को बनाने वाले ब्रह्मा ने इस मनुष्य देह के निर्माण में अपना सम्पूर्ण तप लगा दिया। इससे श्रेष्ठ अन्य कोई शरीर नहीं ब्रह्मा से श्रेष्ठ और कोई शिल्पी नहीं। इस विश्वकर्मा ब्रह्मा को मैं बारम्बार प्रणाम करता हूँ। इस मानव तन को आदर्श गृह मान कर तदनुरूप वास्तु को मैंने कहा की । १४ भुवनों का पति आत्मा इस मानव देह में रहता है। यह मनुष्य, गृहस्थ धर्म अंगीकार करके १४ कक्षों वाले ईंट पत्थर मिट्टी लकड़ी वाले घर में रह कर के सनातन धर्म की ध्वजा को ऊंचा उठाये रखे- ऐसी कल्पना करता हूँ। इस शरीर को क्षेत्र कहते हैं।
“इदं शरीर कौन्तेय क्षेत्रमिति अभिधीयते।”
~गीता (१३।१)
क्षेत्र कभी रिक्त रहीं रहता। उसमें न बोने पर भी तृण आदि उगते रहते हैं। खेत में उगे हुए खर-पतवार घास पात को उखाड़ कर फेंक देना चाहिये। खेत में तैयारी के साथ अच्छे बीज बोना चाहिये. जिससे सुस्वादु अन्न/ फल मिले। जो ऐसा नहीं करता, वह घास ही खाता है अथवा भूखों मरता है। संसार में ऐसे मूर्खो की कमी नहीं है।
गृहस्थ का घर कर्मक्षेत्र है। इसमें रहते हुए धर्म करना चाहिये। यज्ञ, दान, तप, व्रत, आतिथ्य- ये गृहस्थ धर्म के बीज हैं। इन्हें बोना चाहिये। इनका फल है-सुख, आरोग्य, आयुष्य, शक्ति, यश जिस घर में सद् कर्मों के बीज नहीं बोये जाते वहाँ भूतप्रेत, डाकिनी शाकिनी, वेताल पिशाच, पूतना कूष्माण्डी, ज्वर राक्षस रूपी कँटीली झाड़ियाँ भड़भड़ा भटकटैया गाजरघास आदि तृणों का दुःखद फैलाव होता है। यह अकाट्य तथ्य है और प्रत्यक्ष प्रकट है। इसलिये बिना कर्म किये, धर्म किये, घर में नहीं रहना है। गृही के लिये कर्म (धर्म) अनिवार्य है।
जो घर की मापिकी (नक्शा) तैयार करता है, वह वास्तुविद होता है। जो घर की संरचना करता है, उसे वास्तुकार कहते हैं। ऐसे वास्तुविदों एवं वास्तुकारों द्वारा, जो विश्वकर्मा की श्रेष्ठतमकृति से अपरिचित है, घर बनवाने से गृही को शांति नहीं मिलती। १४ भुवनों वाले वास्तु देवता के अनुरूप घर बनवा कर रहने से गृही को चतुर्वर्ग की प्राप्ति सद्यः होती है। [१४= १ +४= ५ कक्षों वाला घर।
जो पुरुष / ब्राह्मण / यजमान मेरी तरह है, अर्थात् घर बनाने की इच्छा नहीं रखता वा घर निर्माण की क्षमता से होन है वा घर बनाने के झंझट में नहीं पड़ना चाहता, उसके लिये भी मार्ग है। बड़ा सरल मार्ग है। इस शरीर को ही घर मान कर इसमें रहने वाले भुवनपति की प्रसन्नता के लिये सतत जपयज्ञ किया जाय, व्रतों का परिपालन किया जाय, तिर्यक् योनियों वाले प्राणियों का आतिथ्य किया जाय। एतस्मै वास्तुदेवतायै नमः।