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अकती खेलन कैसें जाऊँ री….

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-डाॅ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर

    बुन्देलखण्ड में दूर-दराज गांवों में अखती अपने ही ढंग से मनाई जाती है। अब से 45 वर्ष पूर्व के वो दिन मुझे याद हैं जब मेरे जन्म स्थान खुटगुवां ग्राम उ.प्र. में अलग ही तरह से अक्षय तृतीया मनाई जाती थी। इसे खेल और पूजा दोनों तरह से मनाते थे। वहां इसे अकती कहते हैं। यह तो मुझे बाद में ज्ञात हुआ कि अक्षय तृतीया का ही अपभ्रंस अकती है। अकती- अखती- आखाती- अक्षय तीज- अक्षय तृतीया।
    यहां यह मुख्यता से महिलाओं का त्योहार बन गया है। विशेषतः कुँवारी कन्याएँ इसमें भाग लेती हैं। वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन घर में मिट्टी के छोटे छोटे कलश, एक बड़ा कलश, भींगी हुई चने की दाल आदि रखकर पूजा करतीं। दूसरे दिन रात्रि को ग्राम के बाहर जाकर लगभग एक घंटे तक बरगद के पेड़ की पूजा करने के बाद पुतरा-पुतरिया (गुड्डा-गुड्डी) का ब्याह रचाया जाता, जिसमें विवाह की सभी रश्में की जाती। लड़कियाँ पूजा से लौटते समय रास्ते में मिलने वाले लोगों को सौन भेंट करती आती हैं, वे झुंड बनाकर घर-घर जाकर शगुन गीत गाती हैं और सोन बांटतीं है। वरगद पलास आदि के कौपल वाले पत्तों को तोड़कर, उन्हें पीस सुखाकर जो चूर्ण रहता है वह सौन कहलाता है। मान्यता है कि इस सौन को अपने धान्य में रखने से धान्य की वृद्धि होती है, सुख-समृद्धि बनी रहती है। माना जाता है कि अकती की पूजा करने से कुंवारी लड़कियों को सुंदर, गुणवान मनचाहा वर मिलता है।
    जब ये युवतियां वटवृक्ष की पूजा- अकती खेलने जाती हैं तो एक विशेष गीत गाती हैं। मुझे उस गीत की केवल एक पंक्ति याद है-

अकती खेलन कैसे जाऊँ री…. वर तरै मेले लिवौउआ।         

    अर्थात् अक्षय तृतीया की पूजा का खेल खेलने कैसे जाऊँ, उस बड़ के पेड़ के नीचे तो नववधु को लिवाने के लिए बारात ठहरी हुई है। इस एक पंक्ति में भी बहुत कुछ छिपा है। दरअसल गांवों में जब किसी लड़की की बारात आती थी तब दर्जनों बैलगाड़ियां सजाकर, बैलों को घुंघरु पहनाकर, उनके सींगों को रंगकर, बैलगाड़ी पर ऊपर छाया करने वाली बांस की पंचोटों (जिनसे डलिया आदि बनाते हैं) से बनी हुई विशेष घुमावदार चटाई लगाकर सजाते थे। इन्हीं बैलगाड़ियों से गांवों में बारात पहुंचती थी। और बारात को किसी धर्मशाला आदि में नहीं बल्कि गांव के बाहर पेड़ों के नीचे ठहराया जाता था। वरगद के पेड़ भी प्रायःकर गांव के बाहर ही हैं। उस पेड़ की पूजा करने युवतियां जाती हैं, जाते जाते रास्ते में उक्त गीत गाती हैं।
    उस समय हमने एक और बात देखी थी। रात्रि में गांव के बाहर के जिस वटवृक्ष की पूजा करने लड़कियां जाती हैं उस पेड़ पर गांव के कुछ लड़के पहले से चढ़कर छुप जाते थे, जब पूजा करके लड़कियां गुड्डा-गुड्डी का ब्याह रचाती तब पेड़ पर छुपे हुए लड़के विविध प्रकार से डराते, डालें हिलाते, डरावनी आवाजें निकालते, यहां तक कि जलती हुई लकड़ियां (जिन्हें लुगरिया कहते हैं) तक गिराते। यह सब पूजा और खेल का मिश्रित रूप बन जाता था क्योंकि गुड्डा-गुड्डी की शादी भी इसमें सम्मिलित है।

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