पुष्पा गुप्ता
पूँजीवाद पूरी दुनिया को बर्बाद कर रहा है, यह कहना और इसे समझना बहुत ज़रूरी है। आप अगर भारत में रहते हैं और ऊपर के पाँच प्रतिशत लोगों में शामिल नहीं हैं, तो आप अपनी ज़िन्दगी से भी दुनिया की बर्बादी को समझ सकते हैं, जो पूँजीवाद द्वारा जनित हैं। आप अगर भारत में रहने वाले निचले 90 प्रतिशत लोगो में शामिल हैं, जो मेहनत-मशक्कत कर एक बेहतर ज़िन्दगी का सपना देखते हैं, जिसमें आपका अपना घर हो, अच्छी नौकरी हो, बच्चे अच्छी शिक्षा पा रहे हों, तो आप यह ज़रूर जानते होंगे कि यह सपना पूरा होना आज कितना मुश्किल होता जा रहा है। देश की बहुसंख्यक आबादी की ज़िन्दगी इसी सपने को पूरा करने के प्रयास में ख़त्म हो जाती है।
चलिए शुरू से शुरू करते हैं और जानते है कि कैसे यह पूरी पूँजीवादी व्यवस्था हमारे बेहतर ज़िन्दगी के सपने को बर्बाद कर रही है।
मान लीजिए आप एक सरकारी स्कूल से बारहवीं पास नौजवान हैं और बस यह चाहते है कि कॉलेज पढ़कर अच्छी नौकरी मिल जाये, बस ज़िन्दगी सेटल हो जाये। इस सपने को पूरा करने के लिए आप सोचेंगे कि सबसे पहले विश्वविद्यालय में दाख़िला लिया जाये।
तब आप फ़ॉर्म भरते हैं, प्रवेश परीक्षा के बाद देखते हैं कि अच्छे नम्बर आने के बावजूद आपको किसी कॉलेज में दाख़िला नहीं मिला, क्योंकि सीटों की संख्या बहुत कम थी और उसके दावेदार बहुत अधिक थे। आपके 98 प्रतिशत नम्बर भी आये हों, तब भी वह दाख़िले के लिए नाकाफ़ी हैं।
बाक़ी जिनके इससे भी कम नम्बर आयें, उनकी संख्या तो बहुत अधिक होती है और सीट सिर्फ़ 40-50। फिर आप सोचते हैं कि मेरी ही मेहनत में कमी रही होगी, इसलिए दाख़िला नहीं हुआ। भारत में 92 प्रतिशत ऐसी युवा आबादी जो बारहवीं पास करने के बाद कॉलेज-विश्वविद्यालयों तक नहीं पहुँच पाती। जिनका दाख़िला हो भी जाता है, उनके पास लाखों रुपये होने चाहिए ताकि पढ़ाई पूरी कर सकें।
इसके बाद आप सोचते हैं, छोड़ो कॉलेज-वॉलेज, ओपन से फ़ॉर्म भरकर, सरकारी नौकरी की तैयारी करेंगे। अगर आपके माँ-बाप के पास आपकी तैयारी का ख़र्च उठाने का पैसा नहीं है, तो आपको इसके साथ कोई नौकरी भी करनी पड़ेगी। इसके बाद आप काम करते-करते मन लगाकर पढ़ते हैं।
फिर से आपकी बेहतर ज़िन्दगी का सपना जाग उठता है। इसी सपने का पीछा करते-करते आप तैयारी करते हैं। परीक्षा का दिन आता है, आप परीक्षा केन्द्र पर पहुँचते हैं, पता चलता है कि पेपर लीक हो गया। हज़ार पदों की नौकरी पर लाखों लोगो ने फ़ॉर्म भरा सबका यही हाल। बिना योग्यता जाँचे बग़ैर आप सब नाक़ाबिलों की फ़ेहरिस्त में शामिल हो जाते हैं। क्यों? क्योंकि सत्ता व पैसे की मदद से कुछ लोगों ने पहले ही प्रश्न पत्र हासिल कर लिया था।
इसके बाद भी आप हार नहीं मानते और अगली सरकारी परीक्षा की तैयारी में जुट जाते हैं। तमाम परीक्षाओं के लीक होने, रद्द होने के बाद, मान लें कि आप अपवादस्वरूप किसी एक परीक्षा में पास हो जाते हैं। फिर इण्टरव्यू के इन्तज़ार में महीनों बीत जाते हैं, ज्वाइनिंग होते-होते साल लग जाता है, अगर वह कभी हुई तो। तमाम जुगाड़ के बाद नौकरी एक मिलती है।
आप सोचते हैं चलो अब दुखों से मुक्ति मिलेगी, बेहतर ज़िन्दगी का सपना अब पूरा हो जायेगा। नौकरी लगने के कुछ समय बाद पता चलता है कि आपके विभाग को निजी हाथों में बेच दिया गया है। यानी आपका सरकारी काम भी ठेके पर हो गया। डरते-डरते एक साल बीत गया। अगले साल पता चला कि ठेका समाप्त हो हो गया और आपको नौकरी से निकाल दिया गया।
फिर आप ख़ुद को वहीं पाते हैं, जहाँ से शुरू किया था। यानी एक बार फिर बेहतर ज़िन्दगी की मृग-मरीचिका का पीछा करते हुए आप भटक जाते हैं।
यहाँ से दो रास्ते होते हैं या तो आप निराश होकर अपने बेहतर ज़िन्दगी के सपने को त्याग देते हैं और जो सामने हैं स्वीकार लेते हैं या फिर आप सोचते हैं सरकारी नौकरी नहीं मिली तो क्या हुआ, प्राइवेट नौकरी कर के या अपना कोई बिजनेस शुरू कर के बेहतर ज़िन्दगी के सपने को पूरा कर लेंगे।
अपना धन्धा शुरू करने के लिए भी पैसे चाहिए और इतना कि जब तक मुनाफ़ा न हो तब तक धन्धे को टिका सकें। इतने पैसे होते तो आप नौकरी की तलाश ही क्यों करते! तब थक-हार कर एक अदद नौकरी चाहे जैसी भी हो उसकी तलाश में जुट जाते हैं। तमाम जगह आवेदन भरते हैं, जहाँ भी आप जाते हैं, अपने तरह हज़ारों नौजवानों को इसी तलाश में पाते हैं। किसी तरह आपको एक छोटी-मोटी नौकरी मिल जाती है, पर इससे बेहतर ज़िन्दगी नहीं मिल सकती, बस मुश्किल से ज़िन्दा रहा जा सकता है।
अपने सपने को साइड में रखकर आप ज़िन्दा रहने की होड़ में लग जाते हैं। आप अपना हाड़-माँस खपाने के बाद भी बमुश्किल तमाम इतना ही कमा पाते हैं कि माँ-बाप को कुछ पैसा भेज सके, कमरे का किराया दे सके और परिवार को दो वक़्त की रोटी मिल जाये। पूरे महीने काम करने के बाद आपको वेतन मिलता है, जो दो दिन में ही राशन-दवा-इलाज़, बच्चो की पढ़ाई में ख़त्म हो जाता है। खाने-पीने की चीज़े इतनी महँगी है कि हफ़्ते में चार दिन की कमाई खाने पर ही ख़र्च हो जाती है।
बच्चो की पढ़ाई की फीस महँगी होती जा रही है। मज़बूरी में आकर आप अपने बच्चो को भी सरकारी स्कूल में डाल देते हैं। आप सोचते है कि पत्नी को भी कोई काम करना चाहिए, पर सामाजिक दवाब से करने नहीं देते। घर में भी गाँव की ज़मीन के लिए झगड़े बढ़ने लगते हैं। जो भाई आपका कल तक सगा था, गाँव के ज़मीन के बँटवारे के लिए आपसे बोलचाल तक बन्द कर चुका है। इसी में आपकी आधी ज़िन्दगी गुज़र जाती और ख़ुद को 17 वर्ष के युवा से 37 वर्ष के एक व्यक्ति में पाते हैं।
यही ज़िन्दगी जीते हुए आप कभी-कभी सोचते होंगे कि आख़िर क्यों इतनी मेहनत करने के बावजूद आपको अच्छी ज़िन्दगी नहीं मिल रही! तब आपको समझाया जाता है कि यही नियति है, सबको अच्छी ज़िन्दगी नहीं मिल सकती। क्योंकि सब लोग वैसे मेहनत नहीं करते जैसे ऊपर के पाँच प्रतिशत लोग करते हैं, इसलिए आपको ऐसे ही गुज़ारा करना पड़ेगा।
इसके बाद भी अगर आप सोचना जारी रखते हैं कि आख़िर ऐसा क्यों हो रहा है। तब आपको बताया जाता है कि आपको बेहतर ज़िन्दगी इसलिए नहीं मिल रही क्योंकि दूसरे धर्मों के लोग आपकी नौकरी छीन रहे हैं, देश पर कब्ज़ा कर रहे हैं। अगर बेहतर ज़िन्दगी चाहिए तो आपको उनको मारना होगा, उनका सफ़ाया करना होगा।
अगर यह आप मान लेते हैं तो आप हत्यारों की फ़ौज में शामिल हो जाते हैं, जो सिर्फ़ अन्य धर्म के लोगो को ही सारी समस्याओं का जड़ और उनका ख़ात्मा समस्याओं का हल बताते हैं। सरकार, मीडिया व पूरे तन्त्र द्वारा यही झूठ बार-बार ज़ोर-शोर से दोहराया जाता है, आपको इसे ही सच मानने के लिए मज़बूर किया जाता है। इस तरह आपके सामने एक नकली दुश्मन खड़ा कर दिया जाता है।
अगर यह अन्धभक्ति का चश्मा आप नहीं पहनते हैं, तो ज़िन्दगी आपके सामने चीख-चीख कर सच्चाई बोलती है। आपको वेतन कम मिल रहा है, नौकरी पर हमेशा ख़तरे की तलवार लटकती रहती है, महँगाई बढ़ती जा रही है, इन सब में बहुत ढूँढने के बावजूद आपको अन्य धर्म के लोग ज़िम्मेदार नज़र नहीं आयेंगे। बल्कि उल्टा होता है, लूटने वालों में शामिल अधिकतर आपके अपने धर्म और जाति के ही लोग होते हैं! आपका और आपके मालिक का धर्म एक जैसा होने के बावजूद एक अन्तर है अमीर और ग़रीब का।
जो आपको लूट रहे हैं वह अमीर पूँजीपति हैं। यही आपको कहते हैं कि मुसलमानों/दलितों का सफ़ाया करो तो समस्या का समाधान हो जायेगा! पर यही आपका आपका वेतन नहीं बढ़ाते, आपको तमाम श्रम अधिकार नहीं देते। संघ परिवार और उसकी सरकार कहते हैं “हिन्दू राष्ट्र” बनाना है! पर निरपेक्ष संख्या की बात करें तो महँगाई-बेरोज़गारी से सबसे अधिक संख्या में हिन्दू ही परेशान हैं, हालाँकि प्रतिशत के हिसाब से सबसे ग़रीब आबादी मुसलमानों व दलितों की बीच है।
इससे भी ज़ाहिर हो जाता है कि आम मेहनतकश मुसलमान या दलित देश की आम मेहनतकश जनता के दुश्मन नहीं हैं और न ही वे उनके अवसर छीन रहे हैं, उल्टे वे तो मेहनतकश जनता के सबसे शोषित व उत्पीड़ित हिस्से हैं।
तो अगर आप सरकार के जाल में भी नहीं फँसते और न ही जो हो रहा है उसे नियति मान कर हार मान लेते हैं, तब फिर उसी सवाल पर आते हैं कि आपके साथ ऐसा क्यों हो रहा है! क्या बेहतर ज़िन्दगी का सपना देखना अपराध है! आप जहाँ भी जाते हैं, अपने तरह हज़ारों-लाखों लोगो को पाते हैं, जो आपकी तरह ही बेहतर ज़िन्दगी का सपना लिए पूँजीवाद की चक्की में बिना रुके गोल-गोल घूमते हुए पिसते चले जा रहे हैं।