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कितना महत्व का और चुनौतीपूर्ण हैं दिसानायके का श्रीलंका का राष्ट्रपति बनना ?

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  —सुसंस्कृति परिहार

विगत शनिवार के दिन हुए श्रीलंका के राष्ट्रपति चुनाव में मार्क्सवादी अनुरा कुमारा दिसानायके की जीत से दुनियां का सिर चकरा गया। श्रीलंका पर साम्राज्यवादी देशों की नज़र थी। इससे पूर्व के राष्ट्रपतियों ने श्रीलंका को जिस तरह उनके कब्जे में डाल दिया था उससे देश में त्राहिमाम की स्थिति उत्पन्न हो गई थी उसी के प्रतिरोध में श्रीलंका की अवाम ने तत्कालीन राष्ट्रपति को देश से बाहर खदेड़ दिया था और राष्ट्रपति निवास में ख़ूब मस्ती की थी। इनमें युवा शक्ति बहुतायत से थी।इसी क्रांतिकारी युवा शक्ति ने वर्तमान राष्ट्रपति दिसानायके को लगभग 42फीसदी मतों से जिताया है।अब कायदे से विधानानुसार राष्ट्रपति भवन में वे सम्मान पूर्वक बैठ सकेंगे। विदित हो मार्क्सवादी नेता अनुरा दिसानायके ने श्रीलंका के दिग्गज सजीथ प्रेमदासा और विक्रमसिंघे को राष्ट्रपति चुनाव में  यह मात दी हैं।

अपनी जीत के बाद, दिसानायके ने राष्ट्रीय एकता का आह्वान किया है और कहा कि “सिंहली, तमिल, मुस्लिम और सभी श्रीलंकाई लोगों की एकता एक नई शुरुआत का आधार है।”उन्होंने साफ़गोई पूर्वक कहा, ‘मैं जादूगर नहीं हूं। मैं श्रीलंका का एक आम नागरिक हूं। मुझमें काबिलियत और कमियां दोनों हैं। ऐसी कई चीजे हैं, जो मैं जानता हूं और कुछ के बारे में नहीं जानता।'” उन्होंने आगे कहा, ‘मैं राष्ट्रपति के रूप में इस यात्रा में अपनी क्षमताओं को और बढ़ाना चाहता हूं और अधिक ज्ञान हासिल हासिल करना चाहता हूं।’

दिसानायके का जन्म श्रीलंका की राजधानी कोलंबो से 100 किलोमीटर दूर थंबुट्टेगामा में एक दिहाड़ी मजदूर के घर हुआ था। दिसानायके अपने परिवार के गांव से विश्वविद्यालय जाने वाले पहले छात्र थे। एक बातचीत में उन्होंने बताया था कि शुरुआत में पेराडेनिया विश्वविद्यालय में दाखिला लिया था लेकिन राजनीतिक विचारधाराओं के कारण धमकियां मिलने लगीं और वह केलानिया यूनिवर्सिटी आ गए। दिसानायके ने 80 के दशक में छात्र राजनीति शुरू की। कॉलेज में रहते हुए 1987 और 1989 के बीच सरकार विरोधी आंदोलन के दौरान वह जेवीपी में शामिल हुए और तेजी से अपनी पहचान बनाई।वामपंथी दिसानायके कॉलेज में रहते हुए ही जेवीपी के साथ जुड़े। 80 के दशक में जेवीपी ने सरकार के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह किया और भारी हिंसा हुई। इसे श्रीलंका का खूनी दौर भी कहा जाता है। सरकार ने इस विद्रोह को कुचला और इसमें जेवीपी संस्थापक रोहाना विजेवीरा भी मारे गए। हालांकि बाद में दिसानायके और जेवीपी ने हिंसा के रास्ते से दूरी बनाई और। दिसानायके साल 2000 में सांसद बने और इसके बाद 2004 में श्रीलंका फ्रीडम पार्टी (एसएलएफपी) के साथ गठबंधन के बाद उन्होंने कृषि और सिंचाई मंत्री बनाया गया। हालांकि गठबंधन में असहमति के बाद दिसानायके ने 2005 में ही मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था।

कठिन वक्त में एक मार्क्सवादी का श्रीलंका का राष्ट्रपति बनना इसीलिए महत्वपूर्ण हो जाता है कि वे पूर्ववत राष्ट्रपतियों की तरह देश में किसी को आधिपत्य नहीं जमाने देंगे तथा पिछले ऐसे समझौतों को रद्द करेंगे जिनसे श्रीलंका को भारी आर्थिक क्षति हुई है। उन्हें चीन समर्थक माना जाता है इसलिए चीन में दिसानायके के राष्ट्रपति बनने पर खुशी जाहिर की जा रही है। किंतु चीन की विस्तारवादी नीति से उन्हें बचकर चलना होगा। इधर वर्तमान  भारत सरकार भी वामपंथियों की कटु आलोचक है किंतु श्रीलंका के पुराने सम्बन्ध और पड़ौसी होने की खातिर उसे भरपूर समर्थन देना होगा। अमरीका के लिए यह जीत बहुत दुखकर होगी ।देखना है आगे उसका क्या रवैया होगा। 

ऐसी परिस्थितियों में ज़रूरी यह होगा कि श्रीलंका के विकास और वहां मौजूद मंहगाई और बेरोज़गारी को हल करने सुचिंतित पहल हो। उन्हें यह भी याद रखना होगा जो कहा है ” यदि वे जीतते हैं तो वे चुनिंदा विदेशी निवेशकों, विशेषकर हरित ऊर्जा क्षेत्र में, का स्वागत करेंगे।”को पूरा करेंगे।

कुल मिलाकर दिसानायके ने उन देशों के सामने एक चुनौती स्वरूप जीत दर्ज की है जहां युवाओं में मंहगाई, बेरोजगारी और देश की जर्जर अर्थव्यवस्था है। विकल्प स्वरूप श्रीलंका की अवाम ने जो रास्ता चुना है।वह स्वागतेय है।कड़ी चुनौतियां हैं किंतु यदि इच्छा शक्ति दृढ़ हो और अवाम का सहयोग हो तो उनसे निपटा जा सकेगा। उम्मीद है दिसानायके श्रीलंका के लिए ही नहीं दुनिया को नई दिशा देने वाले नायक बनेंगे।

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