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लोहिया और बाबासाहब को दशकों तक कैसे ‘दुश्मन’ बनाए रखा?

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कृष्ण प्रताप सिंह

दुश्मनी का सफर एक कदम दो कदम, तुम भी थक जाओगे, हम भी थक जायेंगे!…प्रख्यात शायर बशीर बद्र का यह शेर समाजवादी चिंतक डाॅ. राममनोहर लोहिया की उत्तर प्रदेश में अकबरपुर {आम्बेडकरनगर} स्थित जन्मभूमि में समाजवादी व बहुजन समाज पार्टियों की अस्मिताओं की राजनीति की जाई तीन दशक पुरानी और नाना खुन्नसों से भरी ‘दुश्मनी’ के सिलसिले में बारम्बार चरितार्थ होता आया है.

इस दुश्मनी के चक्कर में इन पार्टियों ने अरसे तक, और तो और, अपने राजनीतिक आराध्यों डाॅ. लोहिया और बाबासाहब डाॅ. भीमराव आम्बेडकर तक को ‘एक दूजे का कट्टर दुश्मन’ बनाए रखा और अब, राजनीतिक प्रवाह बदल जाने के बावजूद, ‘कभी दोस्ती तो कभी दुश्मनी’ की स्थिति से आगे बढ़कर बहुजनों की व्यापक एकता का मार्ग प्रशस्त कर अपनी थकान उतारने ओर दुर्दिन दूर करने की समझदारी नहीं दिखा पा रहीं. उलटे बशीर बद्र का ही एक और शेर याद दिला रही हैं: दुश्मनी जमकर करो लेकिन ये गुंजायश रहे, जब कभी हम दोस्त बन जाए तो शर्मिन्दा न हों.

सपा से बसपा या बसपा से सपा

प्रदेश के राजनीतिक प्रेक्षकों को यह शेर तब बहुत याद आता है, जब इन दोनों के अपनी बेकदरी से परेशान असंतुष्ट अथवा बागी नेता चुनावों के वक्त बेहतर भविष्य की तलाश में पालाबदलकर सपा से बसपा या बसपा से सपा का रुख करते हैं. कुछ इस तरह जैसे आम्बेडकर को छोड़कर लोहिया अथवा लोहिया को छोड़कर आम्बेडकर को अपना ‘आराध्य’ बना रहे हों. जब भी वे ऐसा करते हैं, हैरत होती है कि कभी वे और उनकी पार्टियां एक दूजे को फूटी आंखों देखना भी पसन्द नहीं करते थे! 2022 के विधानसभा चुनाव में मायावती की नाराजगी के शिकार हुए बसपा के दो बडे दलित व पिछड़े नेताओं रामअचल राजभर व लालजी वर्मा ने सपा की साइकिल पर सवार होने में देर नहीं लगाई. तब भी ऐसी ही हैरत हुई थी. इनमें रामअचल राजभर को बसपा का शिल्पकार कहा जाता रहा है और वे प्रदेश में मायावती की प्रायः सारी सरकारों में मंत्री और बसपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे हैं, जबकि लालजी वर्मा बसपा के राष्ट्रीय महासचिव, मायावती सरकार में मंत्री और बसपा विधानमंडल दल के नेता.

गौरतलब हैं कि इन पार्टियों ने अपना वह सुनहरा दौर भी देखा है, जब प्रदेश की राजनीति का सारा प्रवाह दलितों, पिछड़ों व अल्पसंख्यकों को सामाजिक न्याय मुहैया कराने वाले नारों की ओर था. आज भले ही वह पलटकर भाजपा के हिन्दुत्व की ओर हो गया है, तब सपा बसपा की ऐसी तूती बोलती थी कि सत्ता की सारी प्रतिद्वंद्विता उनके बीच ही सिमट जाया करती थी. लेकिन अब लगातार चार चुनावों {जिनमें दो लोकसभा और दो प्रदेश विधानसभा के हैं} में करारी शिकस्त से वे बुरी तरह पस्त होकर ‘थक’ गई हैं-फिर भी दलितों व पिछड़े की जिस एकता ने बीती शताब्दी के आखिरी दशक में उन्हें सुनहरे दिन दिखाये, वह उन्हें अभीष्ट नहीं लगती. 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्होंने बिना अपेक्षित तैयारी के आधे-अधूरे मन से गठबंधन किया भी तो उसका कोई लाभ नहीं उठा सकीं क्योंकि वह गठबंधन रहीम के इस दोहे को चरितार्थ करता था: ऐसी प्रीति न कीजिए जस खीरा ने कीन्ह, ऊपर से तो दिल मिला भीतर फांकें तीन.

जानकार कहते हैं कि अब न उन्हें अपनी अभूतपूर्व यारी के सबक याद रह गये हैं, न अभूतपूर्व दुश्मनी के. उन्हें इस सवाल से जूझना भी गवारा नहीं कि 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा हो गये जयश्रीराम’ के नारे पर सारे राजनीतिक समीकरण पलटते हुए उन्होंने प्रदेश में अपनी गठबंधन सरकार बनाई तो उसकी उम्र लम्बी क्यों नहीं कर पाईं? क्यों 1995 आते-आते उनके अंतर्विरोध इतने गहरा गये कि नौबत बिखराव तक आ पहुंची? गठबंधन टूटने के बाद क्रुद्ध सपाइयों ने दो जून, 1995 को लखनऊ में मीराबाई मार्ग स्थित स्थित स्टेट गेस्टहाउस के कमरा नम्बर एक में बसपा विधायकों की बैठक कर रही मायावती पर हमलाकर दुश्मनी की जो दीवार उठाई, क्यूंकि वह आगे चलकर चीन की अलंघ्य दीवार बन गई?

मायावती ने लोहिया की जन्मभूमि को अपनी कर्मभूमि क्यों बनाया?

भाजपा के समर्थन से मुख्यमंत्री बनी मायावती ने लोहिया की जन्मभूमि में इस दीवार को और ऊंची करते हुए क्यों सपाइयों को चिढाने के लिए उक्त जन्मभूमि को 29 सितम्बर, 1995 को गुप-चुप अम्बेकरनगर नाम से जिला बना डाला? क्यों तब मायावती के इस कदम को उनके द्वारा जिले के नामकरण के लिए लोहिया के घर में डकैती बताया गया था और क्यों अब कोई जिले के नाम से अम्बेडकर का नाम हटाने या लोहिया का नाम जोड़ने की बात नहीं करता?

इनमें आखिरी सवाल का जवाब इस पेंच से गुजरता है कि सपाई दशकों से अकबरपुर कोे लोहियानगर नाम से जिला बनाने की हसरत रखते थे और मायावती से पहले मुलायम ने अपने मुख्यमंत्रीकाल में उनकी हसरत को इस ‘चतुराई’ के तहत अधूरी रहने दिया था कि उसके पूरी होने का सारा श्रेय बसपा लूट लेगी, क्योंकि प्रस्तावित नये जिले की विधानसभा सीटों से चुने गये सभी पांच विधायक उसी के हैं. मतलब साफ है कि बसपा को गठबंधन की जूनियर पार्टनर बनाये रखने के लिए अपने राजनीतिक आराध्य की जन्मभूमि को उनके नाम से जिला बनाने की अपने समर्थकों की मांग की अनसुनी से भी परहेज नहीं था!

ऐसे में स्वाभाविक ही था कि सपा व बसपा सरकारें अपनी-अपनी बारी पर इस दुश्मनी को जिलों, सरकारी योजनाओं व संस्थानों के नामों से लोहिया या आम्बेडकर के नाम जोड़ने के बेमतलब विवादों तक ले गईं कुछ ऐसे, जैसे उक्त दोनों शख्सियतें परस्पर दुश्मन हों और उन्हें एक दूजे का नाम कतई बर्दाश्त न हों. सपा सत्ता में आती तो इन सबसे जुड़ा आम्बेडकर का नाम पोतकर लोहिया का नाम जोड़ देती और बसपा आती तो इसका उलटा करती. इस चक्कर में कभी अम्बेडकर ग्राम योजना लोहिया ग्राम योजना में बदल जाती और कभी लोहिया ग्राम योजना अम्बेडकर ग्राम योजना हो जाती! इसी चक्कर में मायावती ने लोहिया की जन्मभूमि को अपनी कर्मभूमि बनाया और वहां सें कई चुनाव लड़ीं!

इसकी तह में जाए तो तब वहां सपा-बसपा के निश्चिंत होकर ‘दुश्मनी-दुश्मनी’ खेलने की राह में कोई बाधा नहीं थी. कांग्रेस अपनी पुरानी जमीन खो चुकी थी और भाजपा अपनी सारी बढ़त के बावजूद जिले में आजादी के बाद से ही चला आ रहा अपनी जीत का सूखा खत्म नहीं कर पा रही थी. चुनावों में सारी लड़ाई सपा-बसपा के बीच ही सिमट आती थी और उन्हीं दोनों में से कोई जीतती और कोई हारती थी. यह स्थिति 2014 में बदली, जब नरेन्द्र मोदी की आंधी में भाजपा के अनाम से प्रत्याशी हरिओम पांडे ने बसपा की कलाई मरोड़कर अम्बेडकरनगर {अकबरपुर} लोकसभा सीट उससे छीन ली. लोहिया की जनम्भूमि में यह सपा-बसपा दोनों के हाशिये पर जाने की शुरूआत थी, जो 2017 के विधानसभा चुनाव में भी जारी रही. इस चुनाव में भाजपा ने न सिर्फ जिले की टांडा और आलापुर विधानसभा सीटें जीतीं बल्कि अकबरपुर, जलालपुर व कटेहरी विधानसभा सीटों पर भी कड़ी चुनौती पेश की.

2019 के लोकसभा चुनाव में मरता क्या न करता की तर्ज पर सपा व बसपा गठबंधन करके चुनाव मैदान में उतरीं तो बसपा ने भाजपा के अम्बेडकरनगर को अपना स्थायी गुलिस्तान बनाने के प्रयासों को धूल चटाते हुए अम्बेडकरनगर लोकसभा सीट फिर अपने नाम कर ली. इस तरह 2017 के विधानसभा चुनाव में जलालपुर से चुने गये बसपा विधायक रितेश पांडे सांसद बन गये और उनके द्वारा रिक्त विधानसभा सीट पर उपचुनाव हुआ तो भाजपा सपा के हाथों उसे भी गंवा बैठी. गत विधानसभा चुनाव में सपा व बसपा के अलग-अलग चुनाव लड़ने के बावजूद जिले में भाजपा का खाता नहीं खुला.

यहां यह जानना भी दिवचस्प है कि लोहिया की जन्मभूमि बीती शताब्दी के सातवें दशक में गैर-कांग्रेसवाद के उभार के बाद से ही चैधरी चरण सिंह के भारतीय क्रांति दल के गढ़ में बदलने लगी थी. आगे चलकर वह गैर-कांग्रेसवाद दलों के जनता पार्टी व जनता दल नामक प्रयोगों के साथ भी जुड़ी. फिर मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी और कांशीराम ने बहुजन समाज वार्टी बनाई तो यह राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में उनकी यारी व दुश्मनी दोनों की साक्षी बन गयी. यहां तक कि लोहिया व अम्बेडकर, जो अपने आखिरी वर्षे में दलितों व पिछड़ों की एकता के लिए मिलकर काम करने की सोच रहे थे, जानी दुश्मन-से बना दिये गये.

आज, बदली हुई परिस्थितियों में उस दुश्मनी की बर्फ तो खैर काफी हद तक पिघल गई है, लेकिन उसे 1993 की ऐतिहासिक यारी और उसकी बिना पर अपने सुनहरे दौर तक ले जाने के लिए जिस राजनीतिक विवेक की जरूरत है, सपा व बसपा के दुर्दिन में भी वह उनके नेतृत्वों में दिखायी नहीं दे रहा.

(कृष्ण प्रताप सिंह अयोध्या स्थित जनमोर्चा अखबार के पूर्व संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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