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सर संचालक के पी सुदर्शन की अपील पर कितने हिंदुओं ने ज्यादा बच्चे पैदा किए?

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-रघु ठाकुर

राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षण संस्थाओं के माध्यम से ऐसे आंकड़े प्रस्तुत किए जा रहे हैं जिनसे लगता है कि देश में आबादी वृद्धि स्वयं मेव नियंत्रित हो चुकी है और अब आबादी वृद्धि कोई समस्या नहीं है। यह बात हमारे देश के बौद्धिक तत्वों में भी चल रही है जो इन अध्ययन संस्थाओं के अध्ययनों पर पूर्ण विश्वास करते हैं। वे यह पता लगाने का प्रयास नहीं करते हैं कि इन अध्ययनकर्ताओं ने किस माध्यम से अध्ययन किए हैं और कब किए हैं और क्या वास्तव में जमीन पर ऐसी स्थिति है? जिसकी चर्चा वाह कर रहे हैं। अक्सर यह होता है कि देश के विभित्र तबके अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार उनकी तथ्यात्मक जांच कराए बगैर आंकड़े उद्भुत, प्रचारित और प्रसारित करने लगते हैं। भारतीय राजनीति के राजनीतिक समूह भी जनसंख्या संबंधी आंकड़ों को अपनी अपनी राजनीतिक आवश्यकता और सुविधा के अनुसार प्रचारित करते हैं और कई बार तो सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में इन अध्ययन रपटों को अपना आधार बताते हैं। लगभग दो तीन दशक पहले गोपाल सिंह कमेटी की एक रपट आई थी, जिसने यह कहा था कि देश में मुस्लिम आबादी की वृद्धि तुलनात्मक रूप से गैर मुस्लिम या हिंदू आबादी की वृद्धि दर से कम है और इस रपट का काफी सार्वजनिक प्रयोग देश के गैर भाजपाई समूहों याने कांग्रेस, समाजवादी, मावसंवादी दलों ने किया। दूसरी तरफ कुछ ऐसे अध्ययनकर्ताओं की रपट भी आई कि देश में मुस्लिम आबादी बढ़ रही है तथा तुलनात्मक रूप से हिंदू आबादी घट रही है। इस समूह ने अपने अध्ययनकर्ताओं की रिपोर्ट को जोरशोर से प्रसारित किया और आम हिंदू मानस में यह प्रचारित करने का प्रयास किया की बहुत जल्दी देश में हिंदू अल्पसंख्यक हो जाएंगे। यहां तक की इसी रपट के आधार पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संचालक स्वर्गीय के पी सुदर्शन ने तो यह सार्वजनिक बयान दिया था कि हिंदुओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने चाहिए। मैं, नहीं जानता हूं और मेरी जानकारी में कोई ऐसा अध्ययन नहीं हुआ है कि जिसमें यह तत्व सामने आया हो कि स्वर्गीय सुदर्शन की अपील पर कितने हिंदुओं ने ज्यादा बच्चे पैदा किए या किसी अध्ययन में इस पर भी विश्वसनीय रपट नहीं आई कि मुस्लिम भाइयों के स्व नियंत्रण से आबादी की वृद्धि में कितनी कमी आई या नियंत्रण हो सका।

हालांकि इन दोनों घटनाओं का यह तो असर हुआ कि परिवार नियोजन की योजनाएं और विभाग लगभग उप जैसा हो गया। वैसे भी 1977 में आपातकाल के बाद हुए चुनाव में, आपातकाल के दिनों में, परिवार नियोजन के नाम पर हुई ज्यादतियों ने एक अहम भूमिका निभाई और एक मुस्लिम मतदाता के हिस्से ने भी स्वर्गीय इंदिरा गांधी, स्वर्गीय संजय गांधी और कांग्रेस के लिए वोट नहीं दिया था। उस समय के समाचार पत्रों में यह सूचनाओं आई थी कि स्वगीय संजय गांधी परिवार नियोजन के कार्यक्रम को सरकार को शक्ति से लागू करने के पक्षधर थे और इसीलिए ज्यादतियां हुई थी तथा कांग्रेस का परंपरागत मुस्लिम वोट बैंक उनसे दूर हुआ था। इन सूचनाओं का इतना राजनीतिक प्रभाष तो हुआ ही गांधी दोबारा आबादी अघोषित पार्टी की पृष्ठभूमि में भूमिका को कुछ बदला तथा परिवार नियोजन पर मौन साथ लिया। कुल मिलाकर भारतीय राजनीति का आबादी संबंधी संवाद लगभग 1980 से लेकर 2000 तक बिल्कुल ही मुख्य संवाद के मुद्दों से हट गया। स्वर्गीय सुदर्शन जी के प्रभाव मैं यह भी हुआ कि जब मध्य प्रदेश में 2003 में भाजपा सरकार बनी और उस सरकार के तीसरे मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान बने तो उन्होंने श्री दिग्विजय सिंह की सरकार के द्वारा उठाए गए आबादी नियंत्रण के एक तार्किक और वैधानिक कार्यक्रम को भी समाप्त कर दिया। भले ही देश में आज श्री दिग्विजय सिंह की छषि मुस्लिम परस्त बनाई गई हो परंतु में आज भी उनकी इस बात के लिए प्रशंसा करूंगा कि उन्होंने अपनी सरकार में स्थानीय संस्थाओं के लिए यह नियम बनाया था कि पंच, सरपंच आदि का चुनाव वही लोग लड़ सकेंगे जिनके अधिकतम दो बच्चे हो। उन्होंने इस कानून को विधानसभा से पारित भी कराया था और इस कानून को धर्म जाति या किसी भी प्रकार के पूर्वाग्रह से मुक्त रखा था। उस समय विधानसभा में भाजपा ने इसका इसका समर्थन किया था और उसी भाजपा ने पूर्ण यू टर्न लेकर 2008 के बाद उसे समाप्त कर दिया था। भाजपा को भी नीतियों के मामले में अपनी तत्कालीन राजनीतिक जरूरतों के आधार पर उलट पलट करने का उत्कृष्ट कौशल हासिल है। अभी पिछले दिनों में इलाहाबाद में एक पुस्तक चर्चा के कार्यक्रम में गया था और वहां मैंने देश की आबादी वृद्धि की समस्या के प्रश्न के उत्तर में उल्लेखित किया था। मेरे एक बुद्धिजीवी मित्र जो की एक प्रोफेसर रहे हैं ने मुझे टोकते हुए हस्तक्षेप किया कि देश में आबादी की वृद्धि की दर उनके द्वारा प्राप्त आंकड़ों के आधार पर स्थिर हो चुकी है और आबादी हालांकि में उनके अपने दिनांदिन देख रहा हूं वृद्धि का वैश्विक बुद्धि अब कोई समस्या नहीं है। इस ज्ञान से सहमत नहीं हूं। मैं जीवन और देश को जिस रूप में उसमें मुझे आबादी वृद्धि तो दूर आबादी विस्फोट नजर आता है। दुनिया के अध्ययन संस्थानों में आमतौर पर कॉरपोरेट फंडिंग होती है और वे अपने आप को एनजीओ यानी गैर सरकारी संगठन कहते हैं ने अब एक नई चर्चा शुरू की है जो आबादी की वृद्धि के लिए तर्क के पैर देती है। देश की सार्वजनिक स्मृति अवसर कमजोर होती है और वह घटनाओं या सूचनाओं के मीडिया के मुख्य पृष्ठ या मुख्य खबर से हटते ही धीरे-धीरे अपने आप भूला दी जाती है। 2009 के आसपास अथ स्वर्गीय एपीजे अब्दुल कलाम भारत के राष्ट्रपति थे सत्ता प्रतिष्ठानों के केंद्र से यह चचर्चा हुई थी कि भारत अब युवकों का देश बन है और दुनिया में सबसे ज्यादा युवा आवादी भारत में है न केवल तत्कालीन राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री बल्कि लगभग सभी दलों के राजनेता मुझ जैसों को छोड़कर इस पर गौरवान्वित होते थे कि देश की यह एक बड़ी उपलब्धि है कि देश युवाओं का देश है। हालांकि में लगातार कहता और बोलता रहा कि इसमें सरकार का कोई योगदान नहीं है और यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जो यह भी संकेत देती है किBS से 90 के बाद देश की आबादी में तेजी से वृद्धि हुई है। अगर यह प्रसत्रता का कारण सही भी है तब भी दूसरे पक्ष महत्वपूर्ण हैं। तथ्य यह है

था कि 1980 में जब श्रीमती इंदिरा प्रधानमंत्री बनकर आई तो उन्होंने नियंत्रण कार्यक्रम को सरकारी सूची से रूप से लगभग हटा दिया था तथा जनता सरकार जिसमें तत्कालीन जनसंख्या और आरएसएस शामिल थी, ने अपनी पूर्व अधिकांश युवा बेरोजगार हैं या अर्थ रोजगार में कि है। युवकों का एक बड़ा हिस्सा अपराधों में लिप्त है और संस्कार तथा मूल्य विहीनता में जी रहा है। एक अच्छी खासी युवा आबादी नशे में डूबी है इसलिए युवाओं की संख्या गौरव की बात नहीं है बल्कि देश में एक ऐसे युवाओं की संख्या हो जो आर्थिक रूप

से आत्मनिर्भर हो, देश और समाज के प्रति समर्पित हो, जीवन मूल्यों के प्रति संकल्पित हो, वह गौरव की बात हो सकती है। जिन वैश्विक शोध संस्थानों ने यह आंकड़े देकर उस समय देश को युवा आबादी का देश बनने का उत्सव मनवाया था अब वहीं कुछ दिनों से कह रहे हैं कि भारत बूढ़ा हो रहा है और युवा आबादी घट रही है। भारत सरकार ने यूथ इंडिया 2022 की रपट जारी की है कि देश की युवा आबादी जो अभी 47 प्रतिशत है वह घटकर 2036 तक 34.55 करोड़ हो जाएगी। अभी देश में 25 करोड़ युवा 15 से 25 साल के बीच के हैं और अगले 15 वर्षों में यह संख्या और कम होगी। साथ ही संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष यूएनपीएफ की इंडिया एजिंग रिपोर्ट 2023, के अनुसार 2011 में भारत की युवा आबादी की औसत उम्र 24 साल थी जो अब बढ़कर 2023 में 29 साल हो गई है यानी बुजुर्गों की संख्या 2050 तक बढ़कर लगभग कुल आबादी की 20 प्रतिशत हो जाएगी। यूथ इंडिया भारत सरकार की रपट में यह भी कहा गया को 2011 में प्रजनन दर 2.4 प्रतिशत थी जो अब घटकर दो प्रतिशत हो गई है तथा मृत्यु दर जो 2011 में प्रति हजार 7.1 थी वह 2019 में घटकर 6 हो गई है। संभवत 2024 में यह घटकर चार या के बीच हो जाएगी।

पांच आंध प्रदेश के मुख्यमंत्री नायडू बुजुर्ग आबादी को लेकर बहुत चिंतित हैं और उन्होंने आंध प्रदेश की राजधानी के प्रोजेक्ट को लॉन्च करते हुए कहा कि लोग कम से कम दो या दो से अधिक बच्चे पैदा करें, हम ऐसे दंपतियों को प्रोत्साहित करेंगे। राज्य सरकार शीघ्र ही ऐसा कानून लाएगी की दो या उससे अधिक बच्चे वाले ही चुनाव लड़ सकें। नायडू के इस बयान ने जहां एक तरफ पाहले अधिकतम दो बच्चों की धारणा थी के स्थान पर अब न्यूनतम दो की नीति को स्वीकार किया है। उन्होंने यह भी कहा कि 1950 के दशक में देश की आबादी की वृद्धि दर 6.2 प्रतिशत थी जो 2024 में घटकर 1 प्रतिशत हो गई है। नायडू के बारे में मेरी समझ पहले भी थी और आज भी है कि वह अमेरिका व पूंजीवादी दुनिया के आर्थिक एजेंट को लागू करने वाले सीईओ जैसे हैं, उसका प्रमाण तब भी मिला था जब देवगोडा देश के प्रधानमंत्री थे तथा नायडू आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री थे और अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारत की यात्रा पर आए थे। देश के प्रधानमंत्री ने एक राजनयिक शिष्टाचार के तहत उन्हें शाम को अपने घर खाने का निमंत्रण दिया था पर उन्होंने उसे स्वीकार न कर पहले हैदराबाद जाकर चंद्रबाबू नायडू का निमंत्रण स्वीकार किया था। यह इस बात का प्रमाण है कि नायडू दुनिया के कारपोरेट और कॉर्पोरेट सरकारों के सितारे रहे हैं। स्वाभाविक है कि वैश्विक दुनिया के अपने उद्देश्यों के लिए जारी किए गए आंकड़ों में उनका विश्वास कुछ ज्यादा ही है। उन्होंने बताया कि 1950 में जनसंख्या की वृद्धि दर 6 प्रतिशत थी यानी मान लो कि 1950 में देश की आबादी

36 करोड़ थी तो उसका 6 प्रतिशत लगभग 2.16 करोड़ हुआ। 1950 में मृत्यु दर प्रति हजार 12 थी गानी लगभग 44 लाख लोग देश में मृत्यु के शिकार होते थे। आबादी वृद्धि में से मौतों की संख्या को घटाकर याने जीवित आबादी वृद्धि बची लगभग 1.70 करोड़ और अगर उनका ही आंकड़ा माने तो अब प्रतिवर्ष की दर एक प्रतिशत, माने लगभग 1.5 करोड़ लोग और मृत्यु दर घट कर रह गई हजार पर छह की संख्या में। याने देश में मरने वालों की संख्या अब घटकर एक करोड़ प्रतिवर्ष। आबादी की वृद्धि संख्या और मृत्यु में कमी के बाद लगभग 2 करोड़ के आसपास नई आबादी हो जाती है। कहने का तात्पर्य यह है कि देश में आबादी पहले भी लगभग दो करोड़ प्रतिवर्ष के आसपास बढ़ रही थी अभी भी लगभग उतनी ही बढ़ रही है। इसमें कोई विशेष अंतर नहीं आया है। कुल मिलाकर देश में औसत आबादी की वृद्धि प्रतिशत में भले ही कम हुई हो पर वास्तविक रूप में यह आज भी दो करोड़ के आसपास है याने लगभग यथावत है। दूसरा पक्ष यह भी है कि आंध्र प्रदेश अब विभाजित है उसका एक बड़ा हिस्सा तेलंगाना के रूप में नए प्रदेश में चला गया। इसलिए भी चंद्रबाबू नायडू का आबादी का आंकड़ा कुछ गड़बड़ आया हुआ लगता है। तीसरा पक्ष है कि चंद्रबाबू नायडू ज्यादा बच्चे पैदा करने के बजाय मृत्यु दर कम करने के प्रयास अपनी सरकार के माध्यम से करें तो यह विसंगति दूर होने लगेगी। उन्हें वृद्धों की आचादी से भय है जोकि बहुत तार्किक नहीं है एक तो इसलिए कि आज मशीनीकरण और वैश्वीकरण के चलते एक-एक मशीन से कई हजार मजदूरों का काम हो रहा है इसलिए वैसे ही युवकों के लिए रोजगार की संख्या काफी कम हो रही है और अगर युवकों की संख्या बढ़ जाए और वे केवल बेरोजगारी, भुखमरी, आत्महत्या या अपराधी होकर मरें तो ऐसी आबादी का भी कोई भला नहीं होगा। श्री नायडू को चाहिए कि वह अपने प्रदेश के किसानों की आत्महत्याओं को रोके, बेरोजगारों की आत्महत्याओं को रोके और जिंदा युवकों को बचाने का प्रयास करें।

विदेशी यूएनओ और एनजीओ के आंकड़ों के पीछे कई छिपे हुए वैश्विक हिट होते हैं। वैश्विक पूंजीवाद निरंतर उचत और अति समर्थ तकनीक की ओर बह रहा है। पहले यानी 18वीं सदी के पूंजीवाद में, एक मजदूर अपनी ताकत भर कमाकर, पूंजी के मालिक को देता था, जिसका कुछ हिस्स्स उसे जिंदा रहने के लिए मजदूरी के रूप में वापस दिया जाता था ताकि वह जिंदा बना रहे और निरंतर काम करता रहे। वह इतना मजबूत भी नहीं हो कि काम ना करें, यानि इतना कमजोर भी ना रहे की काम करने के लायक भी ना रहे। पर अब पूंजीवाद का नया स्वरूप उससे भी भयावह है। अब उसे केवल, उत्सत तकनीक चाहिए जो हजारों लाखों का फाम अकेले एक बटन से कर सके। पर रंगीन या गरीब दुनिया में, उसे खरीददार भी चाहिए, वरना विपुल पैदावार का क्या होगा? तो अब उसे, भारत, अफ्रीका जैसे देशों में खरीददारों की संख्या बढ़ाना है, तो फिर आबादी वृद्धि जरूरी है। शायद वृद्धों के बढ़ने का व जवानों के घटने का शोर इस रणनीति को क्रियान्वित करने का एक हिस्सा है। रूस में यह ठीक हो सकता है क्योंकि बफीले प्रदेशों में प्राकृतिक रूप में जन्म दर बहुत कम रहती है। वैसे भी यूरोप अमेरिका में प्रति व्यक्ति क्षेत्रफल भारत की तुलना में ज्यादा है। आशा है देश में केंद्र की सरकार व सुबाई सरकारें इस षड्यंत्र को समझेंगी। जमीनी हकीकत यह है कि देश में आबादी का विस्फोट है और वह भयावह दृश्य पैदा कर रहा है। सरकार को जमीनी सत्य के आधार पर आबादी नियंत्रण नीति बनानी चाहिए जो धर्म जाति के आधार पर नहीं वरन सभी को साथ लेकर बने। (जगत फौचर्स)

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