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किसान आंदोलन कितना असर डालेगा देश की राजनीति पर?

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फसल बचाने की जिद से शुरू हुआ किसान आंदोलन अब नस्ल बचाने की ​लड़ाई तक पहुंच चुका है। इसके बार बार कमजोर होने और खत्म होने तक की घोषणा की जा रही है। लेकिन दरहकीकत किसान आंदोलन अब दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, ​पश्चिम यूपी और राजस्थान समेत देश के तमाम हिस्सों में सियासी बदलाव का औजार बनता दिखाई दे रहा है। किसान आंदोलन के मौजूदा परिदृश्य और देश की राजनीति पर उसके असर का पश्चिमी उत्तर प्रदेश की जमीनी हलचलों से जायजा ले रही हैं युवा पत्रकार डिम्पल सिरोही…

पश्चिमी यूपी की राजनीति पर किसान आंदोलन का असर

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन को लेकर अभी किसानों का गुस्सा शांत नहीं हुआ है। इस ऐतिहासिक आंदोलन ने जहां देश और दुनिया का ध्यान अपनी और खींचा वहीं वेस्ट यूपी की बात करें तो यहां किसानों के समर्थन में उतरी विपक्षी पार्टियों और किसानों न सिर्फ कृषि कानूनों का विरोध किया बल्कि आगामी चुनाव को देखते हुए एक सियासी जमीन तैयार की है। यही कारण है दिल्ली बाॅर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन को फिर से नई धार देने के लिए नई रणनीति बनाई जा रही है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसान आंदोलन को लेकर अभी किसानों का गुस्सा शांत नहीं हुआ है। पंचायत चुनाव के बाद से किसान आंदोलन की आंच यूपी में वेस्ट यूपी में धीरे धीरे फिर तेज होने लगी है। 26 मई को किसान आंदोलन को 6 माह पूरे हो गए। इस दिन किसानों ने अपने घरों और ट्रैक्टरों पर काले झंडे लगाकर काला दिवस मनाया। वहीं भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने काली पगड़ी बंधवाकर  कृषि कानूनों का विरोध जताया। उन्होंने कहा कि सरकार हठधर्मिता अपना रही है, लेकिन जब तक हमारी मांगे पूरी नहीं होंगी तब तक किसान आंदोलन जारी रहेगा।

खास बात यह है कि कोरोना महामारी खत्म होने के बाद इस आंदोलन को धार दिए जाने की बात की जा रही है। किसान नेताओं का कहना है कि जब तक कृषि कानून वापस नहीं होंगे और एमएसपी पर गारंटी कानून नहीं बनेगा तब तक किसान आंदोलन खत्म नहीं करेंगे।

महत्वपूर्ण बात यह भी है किसान आंदोलन के बाद से पश्चिमी यूपी में ग्रामीण परिवेश की राजनीति पर भी प्रभावित हुई है। भाकियू राष्ट्रीय अध्यक्ष चौधरी नरेश टिकैत ने कहा कि केंद्र सरकार आंदोलन को खत्म नहीं कराना चाहती उन्होंने यहां तक कह दिया कि यदि कृषि कानून वापस नहीं लिए गए, तो 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का विरोध करेंगे। उन्होंने साफ किया कि अब आंदोलन को मजबूती देने के लिए हर एक गांव का दिल्ली बॉर्डर पर कैंप लगाया जाएगा, जिसमें बॉर्डर पर प्रत्येक गांव की उपस्थिति अनिवार्य होगी। किसान नेताओं का कहना है कि कि बॉर्डर पर किसान सर्दी, गर्मी और बरसात के मौसम देख चुके हैं। 400 से ज्यादा किसानों की शहादत हो चुकी है, लेकिन सरकार चुप बैठी है।

बता दें कि किसान संयुक्त मोर्चा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को वार्ता के लिए चिट्ठी लिखी थी लेकिन सरकार की ओर से 25 मई तक कोई जवाब नहीं आया था। नतीजन 25 मई को काला दिवस मनाने के बाद से मेरठ के सिवाया टोल प्लाजा पर किसानों का धरना शुरू हो गया, अब इस धरने को 18 दिन हो चुके हैं। विपक्षी पार्टियों का भी किसानों के धरने को समर्थन मिल रहा है और विभिन्न जिलों में बैठकें की जा रही हैं।

हाल ही में पश्चिमी यूपी के मुजफ्फरनगर में भाकियू के प्रदेश अध्यक्ष राजवीर सिंह यादव ने कहा कि सरकार तीनों ऋषि कानूनों को वापस लेने में हठधर्मिता दिखा रही है, अभी आंदोलन फसल बचाने के लिए नहीं बल्कि नस्ल बचाने के लिए किया जा रहा है यह किसान आंदोलन किसानों के मान सम्मान की लड़ाई बन गया है। किसान बहादुर कौम है और किसानों के कानूनों को वापस करा कर ही दम लेगी।

कृषि कानूनों के विरोध में दिल्ली बाॅर्डर पर चल रहे किसान आंदोलन में किसानों की संख्या बढ़ाने के लिए नई रणनीति बनाई गई है। यानी अब गाज़ीपुर बॉर्डर पर भी किसानों की संख्या बढ़ाने की तैयारी है और इसके लिए फार्मूला अपनाया गया है कि एक ब्लॉक से एक ट्रैक्टर और 10 किसानों को एक सप्ताह तक बॉर्डर पर बुलाया जाएगा। जल्द ही किसानों की संख्या गाजीपुर बॉर्डर पर पहुंचना शुरू हो जाएगी।

ये तो थी किसान आंदोलन को लेकर किसानों की नई रणनीति की बात, और अब बात करते हैं कि आखिर किसानों के ऐतिहासिक आंदोलन ने कैसे पश्चिमी यूपी के सियासत को प्रभावित किया है।

किसान आंदोलन कृषि कानून के विरोध के साथ साथ पश्चिमी यूपी में सियासी समीकरण भी बदल रहा है। एक तरफ आंदोलन का पश्चिमी यूपी से आंदोलन का नेतृत्व कर रहे किसानों के सबसे बड़े संगठन भारतीय किसान यूनियन भाकियू को रालोद का समर्थन मिला, तो वही खाप पंचायतों ने भाजपा का सरासर विरोध करना शुरू कर दिया।

दरअसल दिल्ली के लाल किला पर 26 जनवरी को ट्रैक्टर परेड के दौरान हुई हिंसा के बाद किसान आंदोलन कमजोर हुआ था, किसान अपने ट्रैक्टरों के साथ घर लौटने लगे थे और गाजीपुर बॉर्डर पर भाकियू के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत को गिरफ्तार करने के लिए भारी पुलिस बल पहुंचा था। इसी दौरान मीडिया से बात करते हुए राकेश टिकैत की आंखों से आंसू छलक आए। सोशल मीडिया पर जैसे ही यह वीडियो वायरल हुई तो किसानों के बीच आक्रोश फैल गया। इसी दौरान तत्कालीन रालोद अध्यक्ष चौधरी अजित सिंह ने को कॉल कर समर्थन दिया था। इसके चंद घंटों बाद ही गाजीपुर से किसानों का जमावड़ा लगना शुरू हो गया।

इस वाकये के बाद पश्चिमी यूपी में लगातार महापंचायतों का दौर शुरू हुआ। भाकियू और रालोद ने मिलकर कई महापंचायतें आयोजित की। महापंचायत में जहां भाकियू की मंच हुंकार भरी। वहीं रालोद ने अपनी खोई जमीन वापस पाने की कोशिश की।इन पंचायतों में केंद्र सरकार व प्रदेश सरकार को किसान विरोधी बताते हुए सभी विपक्षी दलों ने की किसान आंदोलन व राकेश टिकैत को पूर्ण समर्थन देने की घोषणा की गई। इन महापंचायतों में उमड़ी भीड़ ने किसान आंदोलन को तो संजीवनी दी ही, साथ ही सियासी समीकरणों में उलटफेर के संकेत भी दिए। इस दौरान रालोद उपाध्यक्ष जयंत चौधरी ने भाकियू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नरेश टिकैत के साथ मिलकर भरी सभा में नून लोटा कसम खाई।

आठ साल पहले जिले में भड़के दंगे के बाद पहली बार भाकियू के बैनर तले विपक्षी दलों ने गिले शिकवे भूलकर एक साथ मंच साझा किया। विपक्षी पार्टियों के बड़े मुस्लिम चेहरे भी मंच पर थे। इन बदलते सियासी समीकरणों ने भाजपा के लिए मुश्किलें बढ़ा दी हैं।पूरे उत्तर प्रदेश में चली किसान महापंचायतों के बाद से चारों तरफ भाजपा का विरोध शुरू हो गया और पंचायत चुनाव में इसका असर देखने को मिला। पिछले माह किसान नेता रालोद अध्यक्ष चौधरी अजीत सिंह का कोरोना संक्रमण से निधन हो गया। निधन के बाद उनके पुत्र जयंत चौधरी को रालोद के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी गई।

जयंत चौधरी हालांकि लंबे समय से सियासी मैदान में हैं और किसान राजनीति की अच्छी समझ रखते हैं। गौरतलब यह भी है कि पिछले छह महीनों में जयंत चौधरी ने कृषि कानूनों और किसानों के मुद्दे पर भाजपा सरकार को जमकर घेरा है। उन्होंने किसानों की समस्याएं उठाई और युवाओं को अपनी तरफ से जोड़ने की कोशिश की हैं। जयंत की मेहनत का सकारात्मक असर अभी हाल ही में हुए प्रकाश चुनाव के नतीजों में भी दिखाई दिया है रालोद ने जिला पंचायत सदस्य कई सीटों पर भाजपा के प्रत्याशियों को हराया है वही बागपत की बात करें, तो यह वेस्ट यूपी में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है।

जाहिर है कि किसान आंदोलन को समर्थन में चल रही पंचायतों, महापंचायतों बैठकों और धरना प्रदर्शनों ने आगामी चुनाव के लिए पृष्ठभूमि तैयार कर दी है। लेकिन इनके जरिए किसान संगठन और विपक्षी पार्टियां मिलकर किस तरह से पश्चिमी यूपी के सियासी समीकरण बदलेंगी इसे लेकर सुगबुगाहट तेज हो गई है।

बता दें कि वेस्ट यूपी प्रदेश में संवेदनशील मुद्दों को लेकर हमेशा चुनावी राजनीति और रणनीति का केंद्र रहा है। क्योंकि यहां जो भी भी माहौल बनता है वह पूरे उत्तर प्रदेश के राजनीतिक पारिद्श्य को प्रभावित करता है। इतना तो तय है कि वेस्ट यूपी में बदल रहे राजनैतिक माहौल ने सरकार की चिंता जरूर बढ़ा दी है।

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