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जहरीली जमीन पर कैसे बन पाएगा भोपाल गैस त्रासदी का स्मारक?

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भोपाल गैस त्रासदी में पड़े हजारों टन जहरीले कचरे को निपटाने की कवायद फिर शुरू हो रही है. इसका स्वागत किया जाना चाहिए. लेकिन बात पूरे कचरे की की जाती तो सही रहता. और रही बात भोपाल गैस त्रासदी के बारे में स्मारक बनाने की. तो यह बिना पूरा कचरा हटाए यह कैसे संभव हो पाएगा? जिस जगह पर आज पुलिस का पहरा है, वहां लोगों की आम आवाजाही को बनाना क्या खतरे से खाली नहीं होगा?

राकेश कुमार मालवीय

वरिष्ठ पत्रकार

दुनिया की सबसे भयंकर त्रासदियों में से एक ‘भोपाल गैस ट्रैजडी’ में पड़े हजारों टन जहरीले कचरे को निपटाने की कवायद आखिर एक बार फिर शुरू हुई. त्रासदी के 36 साल गुजर जाने के बाद भी तमाम सरकारें अब तक इस मसले पर कुछ ठोस काम नहीं कर पाई हैं. भोपाल गैस त्रासदी के इस धीमे जहर पर अब तक 15 परीक्षण विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा किए जा चुके हैं. लगभग सारे अध्ययनों में जल प्रदूषण की पुष्टि हुई है. बताया जाता है कि प्रदूषण फैलकर 4 किमी तक के क्षेत्र में अब भी शनै:शनै: लोगों की जिंदगी में जहर घोलने का काम कर रहा है.

सरकार ने एक बार फिर इस मसले पर संवेदनशीलता दिखाई है. इस पर भोपाल गैस पीड़ित संगठनों इने आरोप लगाए हैं कि कचरे के निपटारे के लिए टेंडर बुलाए गए हैं. यह टेंडर केवल जमीन पर पड़े हुए कचरे को लेकर हैं. यूनियन कार्बाइड कारखाने परिसर में हजारों टन कचरा भी दफन है. जिस कचरे को निपटाने की बात की गई है, वह बहुत थोड़ा यानी कुल कचरे का पांच फीसदी ही है. यदि वास्तव में ऐसा है और इस कारखाने को केवल पांच फीसदी कचरा हटाकर त्रासदी का स्मारक बनाने की योजना बना जा रही है, तो यह एक दूसरी त्रासदी को खुला आमंत्रण तो नहीं दे रहे हैं?

हो सकता है कि नई पीढ़ी के बहुत सारे लोग भोपाल गैस त्रासदी घटना से परिचित ही न हों. 36 साल का अरसा कम नहीं होता है. तो जानिए कि मध्यप्रदेश की राजधानी में यूनियन कार्बाइड नाम का एक कारखाना था, इस कारखाने में पेस्टीसाइड यानी की कीटनाशक तैयार होता था. यह एक अमेरिकी कंपनी थी, जिसने जाने कैसे भोपाल शहर के बीचों-बीच इतना खतरनाक कारखाना बनाकर कीटनाशक बनाने की अनुमति लेकर काम शुरू कर दिया था. यहां पर खतरनाक रसायनों का प्रयोग किया जाता था. निर्माण प्रक्रिया के बाद निकले अपशिष्ट को परिसर में ही बनाए गए तालाबों में बहा दिया जाता था.

इस कारखाने में भारी लापरवाही भी बरती जा रही थी, इस पर कई मीडिया रिपोर्ट भी प्रकाशित हुईं, लेकिन प्रशासन नहीं चेता, और दो-तीन दिसम्बर की रात को इस कारखाने से एक जहरीली गैस रिसने लगी. इसने धीरे-धीरे शहर के एक बड़े हिस्से को अपने आगोश में ले लिया. भोपाल शहर में एक ही रात के अंदर हजारों लोगों की लाशें बिछ गईं, लाखों लोग किस्म-किस्म की बीमारी से ग्रस्त हो गए. यह दंश कई पीढ़ियां झेल रही हैं. इसमें लापरवाही बरतने वाले जिम्मेदारी लोगों का सरकार कुछ नहीं कर पाई. कारखाने का प्रमुख एंडरसन मर गया, पर उसे भारत की अदालतों में पेश भी नहीं किया जा सका, सजा की तो बात ही दूर.तकरीबन 66 एकड़ में फैले इस कारखाने को फौरन बंद कर दिया गया. गैस प्रभावित लोगों को करोड़ों रुपए का मुआवजा तो बंट गया, लेकिन इस कारखाने में रह गया तो हजारों टन कचरा. बताया जाता है कि 32 एकड़ जमीन पर यह तालाब बने हैं, और इनमें वह कचरा अब भी जमा हुआ है.

स्वयंसेवी संगठनों, आंदोलनों, गैस प्रभावित संगठनों की मांग पर इस कचरे को हटाने की मांग उठती रही, लेकिन इस पर कोई गंभीर प्रयास नहीं हो सके. 2015 में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के बाद तकरीबन दस टन कचरे को पीथमपुर के एक संयंत्र में नष्ट किया गया, लेकिन इसके बाद यह मामला भी ठंडे बस्ते में चला गया जो आज तक ठंडे बस्ते में ही है. हर साल गैस कांड की बरसी पर होने वाले धरना प्रदर्शन में इसकी मांग उठती है ओर ठंडी हो जाती है.

अब एक बार फिर इस कचरे को निपटाने की प्रक्रिया शुरू हुई है उसका स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन बात पूरे कचरे की की जाती तो सही रहता. शहर की उस प्राइम लोकेशन पर दुनिया भर को भोपाल गैस त्रासदी के बारे में स्मारक बनाने का ख्याल अच्छा है, लेकिन बिना पूरे कचरे को हटाए यह कैसे संभव हो पाएगा? जिस जगह पर आज भी पुलिस का पहरा है और लोगों को बिना अनुमति अंदर जाना मना है, वहां पर लोगों की आम आवाजाही को बनाना क्या खतरे से खाली नहीं होगा?अब जबकि भोपाल गैस पीड़ितों के द्वारा इस बात को मुददा बनाया जा रहा है तब सरकार की ओर से यह कहा जा रहा है कि जमीन के अंदर दफन कचरे की जांच की जाएगी कि इतने सालों में वह खतरनाक रह गया है या नहीं, तो क्या इस कचरे की जांच के बगैर ही इतनी बड़ी योजना को अमली जामा पहनाया जा रहा है?

इससे पहले पिछले सालों में विभिन्न जांच एजेंसियों ने आसपास की दो दर्जन से ज्यादा कॉलोनियों में भूमिगत पेयजल में खतरनाक रसायन पाए जाने के जो आरोप पिछले सालों में लगाए हैं, उनकी जांच कर सरकार ने आरोपों की पुष्टि या खारिज क्यों नहीं किया है. ऐसी आधी-अधूरी परिस्थितियों में क्या इस स्मारक को भोपाल गैस स्मारक में तब्दील कर दिए जाने का फैसला कितना पूरी तरह सही नहीं होगा.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है.)

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