(फुल्ल कोलख्यान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि हमारा भविष्य युद्ध में नहीं बुद्ध में है। जी, बात तो अच्छी है। अच्छी है, फिर भी कहना जरूरी है कि एक राष्ट्र के रूप में ‘हमारा भविष्य’ युद्ध में हो या बुद्ध में, लेकिन इतना तो साफ है कि ‘हम भारत के लोगों’ का ‘भविष्य’ आप, आप की भावधारा (विचारधारा तो है नहीं), आप की कथनी-करनी और राजनीतिक कारस्तानी में नहीं है।
प्रसंगवश लोगों के मनन प्रसंग (Public Domain) चुनावी चर्चा का इतना जबरदस्त दखल लोगों के लोकतंत्र को चुनावी लोकतंत्र में ही बदल देगा, क्या लोकतंत्र सिर्फ चुनाव है, सिर्फ सत्ता है या लोकतंत्र जीवनयापन की एक व्यापक पद्धति भी है? निश्चित ही लोकतंत्र मूल रूप से जीवनयापन की व्यापक पद्धति है, तो फिर सवाल खुद से है कि जीवनयापन की इस व्यापक पद्धति पर चर्चा इतनी कम, लगभग नहीं के बराबर क्यों है!
भारत की घरेलू और वैश्विक परिस्थितियों में बदलाव आ रहा है। बदली हुई वैश्विक स्थिति, वैश्विक व्यवस्था और खिसकते हुए आर्थिक और सामरिक शक्ति संतुलन के दौर में धन के वर्चस्व और जन के वर्चस्व के बीच बहुत तेज द्वंद्व और दोलन की स्थिति सामने आ रही है। दुनिया एक ध्रुवीय बनने के दौर से बाहर निकल गई है। भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में सिकोड़ आते ही बहु-ध्रुवीय बनने की संभावनाएं क्षीण हो गई है।
वैश्विक महामारी (COVID-19) कोरोना ने विश्व व्यवस्था में क्या-क्या बदलाव कर दिया यह तो इतिहास लिखेगा लेकिन जो दिखता है वह यह कि भूमंडलीकरण के सिकोड़ की प्रक्रिया क्या बहुत तेज कर दिया। इतनी तेज कि न अमेरिका की इच्छा के अनुसार एक ध्रुवीय बनी, न विकासशील देशों की महत्वाकांक्षाओं के अनुसार दुनिया के बहु-ध्रुवीय बनने की आकांक्षा ही फलीभूत हो पाई। दुनिया घुमा-फिराकर फिर द्वि-ध्रुवीय होने की तरफ बढ़ रही है, बल्कि बहुत आगे बढ़ चुकी है।
इस बार बहु-ध्रुवीयता का भूगोल बदल गया। फिलहाल, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका अपनी जगह पर कायम है और सोवियत संघ की जगह साम्यवादी केंद्रीयता के साथ चीन आ डटा। द्वि-ध्रुवीय होने की तरफ दुनिया बढ़ तो रही है लेकिन पुरानी द्वि-ध्रुवीयता और नई द्वि-ध्रुवीयता के चरित्र में बुनियादी अंतर है।
मागा (Make Amerika Great Again) की कराह को समझना है तो “aGain” पर आंख गड़ानी होगी। इस कराह में एक तरफ तरह से अमेरिका की आर्थिक स्थिति के ‘गौरव’ में गिरावट की आत्म-स्वीकृति छिपी है। यहां कहा जा सकता है कि जिस तरह से धरती के अंदर के बड़े चट्टान के संघाती दिशा (Fault Line) में बढ़ने से भूकंप से धरती के ऊपर तहस-नहस मच जाता है उसी तरह से बड़े आर्थिक चट्टान के संघाती दिशा (Fault Line) पकड़ लेने से सभ्यता में संक्रमण के दौर में उथल-पुथल और उत्थान-पतन का नया क्रम सामने आते है। विश्व इस समय ऐसे ही उथल-पुथल और उत्थान-पतन के मुहाने पर पहुंच रहा है। इस मुहाने पर एचएमपीवी (HMPV) वायरस अपनी क्या भूमिका तय करता है यह तो भविष्य में स्पष्ट होगा।
भूमंडलीकरण में सिकोड़ के साथ ही दुनिया में राष्ट्रवाद के वापसी की प्रक्रिया शुरू हो सकती है। ध्यान रहे यह राष्ट्रवाद पहले के राष्ट्रवाद से बिल्कुल भिन्न हो सकता है। किस या किन-किन अर्थों में भिन्न होगा! कुछ भी कहना मुश्किल है, इस समय। पारस्परिक समझ पर राष्ट्रों के नये-नये सामाजिक-समूह बनेंगे या अलग-थलग रहेंगे या किसी-न-किसी ध्रुव के दबाव में रहेंगे या निर्गुट-चेतना का कोई नया संस्करण सामने आयेगा! थोड़ा इंतजार! मुनाफा की हड़बड़ी से गड़बड़ी हो कती है। सामरिक हलचल की आशंका के होने से भी इनकार नहीं किया जा सकता है।
क्या दुनिया को लोगों के लोकतंत्र के आग्रह और अपील के साथ ‘चुनावी तानाशाही’ से बचाने के नाम पर ‘पूंजी की तानाशाही’ को अपनाने के लिए प्रोत्साहित और प्रेरित नहीं किया जा रहा है? निश्चित रूप से इस का जवाब ‘हां’ ही हो सकता है। डिजीटल आजादी की जिद के सामने लोगों के लोकतंत्र, ‘चुनावी तानाशाही’ और ‘पूंजी की तानाशाही’ को फिर से परिभाषित किया जाना जरूरी है। तिजारती मुनाफा और राजनीतिक नफा-नुकसान को तौलकर आपदा में अवसर, दुविधा में सुविधा तलाशने का उत्कट लालच और दुश्मनों में दोस्त और दोस्तों में दुश्मन पहचानने की चपल प्रवृत्ति संकट की सरहद पर पहुंचा देती है।
भारत के सत्ताधारी दल की राजनीति में उत्कट लालच और चपल प्रवृत्ति बहुत मुंहजोर है। इस मुंहजोरी के चलते एक ओर आंतरिक संकट से उबार की बात तो दूर, नित नये-नये संकटों का जन्म होता रहता है, तो विदेश नीति के मामलों में कूटनीतिक चतुराई की जगह इस का व्यवहार विकसित हो जाता है जिस से हास्यासपद स्थिति बन जाती है; घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने! भारत जैसे बहु-सांस्कृतिक, सामाजिक-धार्मिक मान्यताओं और विविधताओं से समृद्ध देश में साम्यवादी केंद्रीयता की तरह से सांस्कृतिक केंद्रीयता की स्थिति नहीं बनाई जा सकती है। सहमिलानी प्रवृत्ति इस की संस्कृति की मौलिक रुझान है।
इस मौलिक रुझान के खिलाफ होना भारत की अस्तित्व चेतना को झकझोर देती है। इस से लापरवाह राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की नीति में राजनीतिक लोकतंत्र और संवैधानिक व्यवस्था को मात देने पर कोई परहेज नहीं है। पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय तक भारतीय समाज पतवार खो चुकी नाव की तरह से जलगर्तिकाओं के बीच घूर्णन करता रहा है; न नीति न न्याय बस मुंहजोरी। मुंहजोरी और नफरती माहौल, उन्माद और उत्तेजना अंततः पहले से उपलब्ध सकारात्मकताओं को भी निष्क्रिय और नष्ट कर देती है, जबकि सकारात्मकताओं के नये अवसरों की तलाश में इस की कोई रुचि ही नहीं होती है।
कोरोना महामारी (COVID-19) के दौर में सावधानी नहीं बरतने के कारण और निरंतर राजनीतिक उखाड़वाद में लगी रही। कांग्रेस मुक्त भारत के खेल में लगी रही। अब राष्ट्रीय स्वयं-सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी पर आंतरिक या बाहरी नजर रखनेवालों को हिसाब-किताब देख लेना चाहिए कि इस बेमतलब के उखाड़-पछाड़ से आखिर हासिल क्या हुआ और क्या हुस्स हो गया! देश का हौसला भी गया और हुलास भी गया!
संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के मागा (Make America Great Again) में क्या-क्या छिपा है! कौन जाने! जॉर्ज सोरोस और एलन मस्क तो दिख रहे हैं लेकिन यह सारा खेल तो अदृश्य हाथ और घात का होता है। अदृश्य को दृश्यमान करना इस व्यवस्था में करना इसलिए भी बहुत मुश्किल है कि मंच और नेपथ्य के बीच की दीवार कब है, कब नहीं, कहना मुश्किल होता है। राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय पूंजी हितों में तनाव, टकराव और अंधराष्ट्रवाद का दौर शुरू होगा।
यह दौर कैसा होगा, अभी देखा जाना है। जन-हित के ही नहीं, पूंजी हित के पिटे हुए सत्य के चमकीले रैपर के बीच से झुठलाये हुए सच को निकालकर हथेली पर रखकर इतराने, ‘पा लिया, पा लिया’ कहकर चिल्लाने और नाचने की कोई गर्वीली गुंजाइश अब लगभग नहीं ही है; कब कहां किसी के मुंह से फूट सकता है यूरेका-यूरेका! क्या ‘चुनावी तानाशाही’ के ‘पूंजी की तानाशाही’ में बदलने का नया दौर सामने है!