,मुनेश त्यागी
मैं भी आस्तिक हूं, आशिक हूं,,,,
मोहब्बत और दोस्ती का,
आदमी की शाइस्तगी का,
ममता और समता का,
जनतंत्र और न्याय का,
सबके साम्य का,
कानून के शासन का,
धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद का,
क्रांति के विश्वगान का,
विश्व बंधुत्व और वसुधैव कुटुंबकम का।
मैं भी आस्तिक हूं, आशिक हूं,,,,
कुदरत की अदाओं का,
उसके दिलकश नजरों का,
झीलों और झरनों का,
नीले आसमानों का,
सतरंगी इंद्रधनुष का,
रात का, प्रभात का,
गुलशन की बहारों का,
चिड़ियों के कलरव का,
मन मौसम को तर करती बरसातों का।
मैं भी आस्तिक हूं, आशिक हूं,,,
ज्ञान और विज्ञान का,
स्वदेश और स्वाभिमान का,
मानवीय आश्चर्यों का,
आदमी के करिश्मों का,
मानव के प्रकृति का मालिक
होने के पराक्रमों का।
मैं कहता हूं,,,,
आदमी को होना चाहिए आस्तिक
आपसी भाईचारे का,
सद्भावना और सद्विचार का,
ईमानदारी और सदाचार का,
जननी के दुलार का,
पत्नी के प्यार का।
मैं नहीं होना चाहता आस्तिक,,,,
बे-सिर-पैर की बातों का,
पैगंबरी करिश्मों का,
छल कपट और झूठ का,
धर्म को तबाहियों की छूट का,
आदमियों की आपसी फूट का,
मन की और माल की लूट का।
क्या जरूरी है, भगवान
और खुदा की टेक का होना?
कौन रहता है आसमानों में?
वहां तो कुछ भी नहीं है
अंधेरों के सिवाय।
कोई भी हो सकता है आस्तिक,
राम और रहीम की बैसाखी के बगैर भी,
फिर नास्तिक होना,
कोई गुनाह तो नहीं है,
कृपया मत लगाइए तोहमत,
मुझ पर नास्तिक होने की,
मैं तो बहुत बड़ा आस्तिक हूं,
यानी पक्का आस्तिक हूं,
मेरी तो पक्की चाहत है
आप भी बनें आस्तिक, मेरी तरह।